चीन की बढ़ती आक्रामकता को लेकर अमरीकी सक्रियता में इजाफा

punjabkesari.in Saturday, Aug 21, 2021 - 05:39 AM (IST)

हाल ही में अमरीकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन ने अपनी भारत यात्रा  के दौरान एक तीर से कई शिकार किए। पहला शिकार चीन था जिसके लिए एंटोनी ब्लिंकन ने एक के बाद एक तीर अपने तरकश से निकाले, पहले तीर से ब्लिंकन ने भारत की यात्रा कर चीन को यह दिखा दिया कि अमरीका का खुला समर्थन किस देश को है, ब्लिंकन ने दूसरा तीर निकालते हुए बौद्ध दार्शनिक और तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के प्रतिनिधि न्गोडुप तुंगचुंग से मुलाकात की, जो भारत के धर्मशाला शहर में केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन के प्रतिनिधि के रूप में काम करते हैं इन्हें निर्वासित तिब्बत सरकार माना जाता है। 

इस मुलाकात से चीन इतना तिलमिलाया कि उसने अपने सरकारी मीडिया से अमरीका को धमकी तक दे डाली, ग्लोबल टाइम्स ने लगे हाथ भारत को भी धमकी दी है। अखबार लिखता है कि ब्लिंकन की भारत यात्रा ने अमरीका का दोमुंहा चेहरा दुनिया के सामने रख दिया है। 

अखबार आगे लिखता है कि अभी दो दिन पहले ही अमरीकी उप विदेश मंत्री विंडी शेरमन ने उत्तरी चीन के थियेनचिन शहर में चीनी प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात कर यह बात कही थी कि दोनों देशों में बातचीत के द्वार खुले रहने चाहिएं। इसके अलावा ब्लिंकन ने भारत में तिब्बत हाऊस के निदेशक दोर्जी दामदुल से भी मुलाकात की, दामदुल पहले दलाई लामा के अनुवादक थे। ब्लिंकन की इन मुलाकातों से चीन चारों खाने चित्त हो गया है हालांकि अमरीका ने चीन का इससे पहले भी ऐसा हाल किया है। बात वर्ष 2016 की है जब तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वर्ष 2016 में दलाई लामा से मुलाकात की थी। 

उस समय भी दुनिया ने चीन को तिलमिलाते हुए देखा था। भारत में अमरीकी प्रतिनिधि  की भेंट तिब्बती बौद्ध प्रतिनिधियों से होना एक सीधा संदेश चीन को जाता है कि चीन ने तिब्बत पर अपना अवैध कब्जा कर रखा है और भारत से तिब्बत अपनी निर्वासित सरकार चला रहा है उसे अमरीका एक तरह की मान्यता देता है कि चीन की दमनकारी नीति के चलते एक देश का अस्तित्व चीन खत्म करने पर तुला है जिसे अमरीका सहन नहीं करेगा। इसपर चीन की तीखी प्रतिक्रिया आना स्वभाविक था।

ग्लोबल टाइम्स लिखता है कि इससे यह बात एकदम साफ है कि अमरीका भारत का इस्तेमाल चीन की राह में रोड़ा अटकाने के लिए कर रहा है। ब्लिंकन ने अपनी यात्रा के दौरान कहा कि अमरीका और भारत लोकतांत्रिक मूल्यों को सांझा करते हैं। तिब्बत की निर्वासित सरकार भी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर चल रही है और यही वजह है कि अमरीका और तिब्बत में बातचीत होनी चाहिए। इस यात्रा के दौरान ब्लिंकन ने इंडोनेशियाई विदेश मंत्री रेत्नो मर्सूदी के साथ रणनीतिक वार्ता भी की,जाहिर है कि यह वार्ता चीन को ध्यान में रखकर ही की गई है क्योंकि हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में अमरीका अपनी मौजूदगी बढ़ाना चाहता है जिससे इस क्षेत्र में चीन की आक्रामक गतिविधियों पर लगाम लगाई जा सके।

ब्लिंकन के इंडोनेशिया के दौरे पर दोनों देशों में इस बात पर सहमति बनी कि रक्षा और मुक्त जहाजरानी के क्षेत्र में दोनों देश मिलकर काम करेंगे, इंडोनेशिया का अमरीका के साथ रणनीतिक समझौता वर्ष 2015 में ही हो गया था। यह समझौता दक्षिणी चीन सागर और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते वर्चस्व पर लगाम लगाने के लिए किया गया था। इसके अलावा दोनों देशों में कोरोना महामारी के खिलाफ मिलकर कदम उठाने, आपसी आर्थिक सहयोग बढ़ाने और पर्यावरण परिवर्तन से धरती को हो रहे नुक्सान के खिलाफ मिलकर काम करने पर भी सहमति बनी। 

ब्लिंकन ने लोकतांत्रिक मूल्यों वाले इंडोनेशिया के बारे में कहा कि 10 सदस्यीय आसियान देशों में सबसे बड़ा देश होने के कारण इंडोनेशिया इस मंच पर अपनी आवाज को मुखर तरीके से रखता है यह प्रशंसनीय है। इस खास मौके पर इंडोनेशियाई रक्षा मंत्री मर्सूदी ने कहा कि दोनों देशों के संबंध हिन्द प्रशांत क्षेत्र में अमरीका की गतिविधियों के लिए  बेहतर रहेंगे। दक्षिणी चीन सागर में जहाजरानी और साईबर सुरक्षा में भी दोनों देशों ने आपसी सहयोग पर बात की। इंडोनेशिया को इन दोनों क्षेत्रों में चीन से ज्यादा खतरा है इसलिए इंडोनेशिया अमरीका की हिन्द प्रशांत क्षेत्र में सक्रिय मौजूदगी का पक्षधर है। 

हाल के वर्षों में अमरीका की मौजूदगी भारत, मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में बढ़ी है इसे चीन की इन क्षेत्रों में बढ़ती आक्रामकता के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए, क्योंकि चीन दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर अपनी समृद्धि में इजाफा कर रहा है वहीं दूसरी तरफ़ उन देशों में मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों को खत्म कर रहा है जिससे पूरा विश्व एकजुट होकर चीन की बढ़ती शक्ति का मुकाबला करना चाहता है और अमरीका किसी भी कीमत पर वर्तमान वैश्विक व्यवस्था पर चीन को काबिज होते नहीं देखना चाहता क्योंकि चीन के पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है। 


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