दो राज्य लेकिन व्यवहार अलग-अलग

punjabkesari.in Tuesday, Apr 19, 2022 - 05:54 AM (IST)

जरूरी नहीं कि अपराध, धार्मिक उन्माद, सदाचार या विविधता को जोड़ कर सांझा शक्ति बनाने वाला समाज शिक्षा, प्रति व्यक्ति आय या संयुक्त राष्ट्र द्वारा बनाए गए मानव विकास में भी बेहतर हो। एक अशिक्षित समाज का व्यवहार सामजिक मानदंडों पर आदर्श हो सकता है और एक अति-शिक्षित समाज हिंसक। देश की राजधानी दिल्ली प्रति व्यक्ति आय में दूसरे स्थान पर है और साक्षरता में 6वें स्थान पर, लेकिन दंगों में पिछले 2 वर्षों में अव्वल आ रही है।

दरअसल कानून सभी जगह एक समान हैं, वही संविधान है, एक ही आई.पी.सी./सी.आर.पी.सी., लेकिन शायद सामाजिक चेतना और व्यक्तिगत आचार समाज के लोगों की सोच से बनता है न कि संविधान के अनुच्छेद या कानून की धाराएं पढ़ कर। यहां हम 2 राज्यों की हाल की घटनाओं और तथ्यों का जिक्र कर रहे हैं, जिनसे कुछ सत्य समझ में आएंगे। एक भारत का सबसे गरीब और सबसे कम साक्षर बिहार और दूसरा समृद्ध और शिक्षित गुजरात की एक अशिक्षित तहसील और उसके 11 अनपढ़ गांव।

बिहार, जहां इंजन और पुल चोरी होते हैं  : प्रति व्यक्ति आय हो या साक्षरता या अन्य कोई मानव विकास सूचकांक, बिहार सबसे नीचे के 3 पायदानों पर खड़ा मिलता है। लेकिन इस राज्य के चोरों ने यह मान लिया है कि कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। पिछले हफ्ते इस राज्य के एक जिले में 50 मीटर लम्बे व 50 साल पुराने एक पुल को चोरों ने जे.सी.बी. लगा कर उखाड़ लिया और ट्रकों में लोहा लाद कर गायब हो गए। स्थानीय ग्रामीणों ने जब जानना चाहा कि पुल क्यों उखाड़ा जा रहा है तो उनका जवाब था कि वे सिंचाई विभाग के अधिकारी हैं और पुल जर्जर होने के कारण हटाया जा रहा है। 

इससे पूर्व गत 15 दिसम्बर को इस राज्य के एक जिले में रेल विभाग के एक इंजीनियर ने फर्जी दस्तावेज बना कर एक पुराना रेल इंजन चोरी कर लिया था। सुरक्षा में लगी एक महिला सिपाही को जब स्टोर में इंजन का कबाड़ नहीं दिखा तो उसने अधिकारियों को खबर दी और तब यह राज खुला। यहां प्रश्न चोरी की घटना का नहीं, चिंता चोरों की इस मान्यता की है कि वे कुछ भी करके बच जाएंगे। पुल को जे.सी.बी. से उखाडऩे में समय लगा होगा। फिर ट्रकों पर दर्जनों चोरों ने लोहा लादा होगा और फिर टनों लोहा किसी बड़े गोदाम या कबाड़ी को बेचा गया होगा। क्या सिस्टम इतना भी सक्षम नहीं कि जे.सी.बी. का मूवमैंट, पुल को काट कर गिराना और फिर मलबे को घंटों लादना उसके संज्ञान में नहीं आया? 

यह सबसे गरीब राज्यों में से है, शहरीकरण केवल 12 प्रतिशत है, बाकी पूरा हिस्सा ग्रामीण है, जहां हर बात का पता सबको चल जाता है। फिर इस राज्य का आबादी घनत्व (1200 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर) देश में सर्वाधिक और राष्ट्रीय औसत का 3 गुना है। लिहाजा कबाड़ के गोदाम आबादी से दूर नहीं होंगे। ऐसे में चोर यह मानते हैं कि यहां पैसे देकर हर अपराध छिपाया जा सकता है। शायद उनकी सोच सही है, क्योंकि इस राज्य में अगर पुलिस 100 लोगों पर आपराधिक मुकद्दमा करती है तो 88 कोर्ट से छूट जाते हैं।

गुजरात के 11 गांव, जो थाना/कोर्ट नहीं जाते  : गुजरात की एक ही तहसील के 11 गांवों में पिछले 5 साल से कोई विवाद थाने तक नहीं पहुंचा। इन गांवों में लोग आपस में ही बुजुर्गों को पंच बना कर अपने विवाद सुलझा लेते हैं। गांव के लोगों का कहना है कि हम बुजुर्गों के फैसले को अंतिम मानते हैं और श्रद्धा से उसे स्वीकार करते हैं। यह तहसील पूरे गुजरात में सबसे कम साक्षरता (50 प्रतिशत) वाली है, जबकि गुजरात की 78.3 प्रतिशत और राष्ट्रीय औसत 75 प्रतिशत है। सबसे कम साक्षरता वाले बिहार (62 प्रतिशत) से भी इन गांवों के लोग शिक्षा में नीचे हैं, लेकिन पंचों के फैसले पर सहमति रखते हैं। पंच ही उनके सुप्रीम कोर्ट हैं। 

बात सिर्फ यह मानने की है कि हम सामूहिक रूप से किस व्यक्ति, संस्था या समूह पर अपनी पूर्ण निष्ठा रखते हैं। दूसरा यह कि गांव के लोग इसके पंचों के फैसले को न मानने वाले को हिकारत से देखते हैं। ऐसे में रूस-यूक्रेन युद्ध, दिल्ली, खरगोन और बनासकांठा की सांप्रदायिक हिंसा में शामिल लोग क्या आदिम सभ्यता वाले जंगलियों से कम हैं? कौन-सा धर्म होगा जिसमें भीड़ पर पत्थरबाजी या गोली चलाना उचित माना जाता होगा? कौन-सा धर्म होगा जो दूसरे के धर्म के खिलाफ अपने धर्म को बचाने के लिए सीरिया जैसी स्थिति पैदा कर खून बहाएगा या दूसरे के धार्मिक प्रतिष्ठानों पर कब्जा कर अपने धर्म की फतह मान कर उसे पुण्य मानेगा? 

इन गांवों का तर्क यह है कि औपचारिक कानून और कोर्ट की व्यवस्था हमारी समस्याओं को दूर से देखते हैं, उन्हें उनकी सही समझ नहीं हो सकती और यह प्रक्रिया बेहद खर्चीली और समय बर्बाद करने वाली है। जबकि अगर हम अपने बुजुर्गों की सदाशयता, नेकनीयती और न्यायप्रियता को ही ईश्वरीय पवित्रता का दर्जा दे दें और उससे विमुख होने वाले को समाज के खिलाफ असली ‘विधर्मी’ मानें तो हमारे सारे विवाद स्वत: हल हो जाएंगे। कुल मिलाकर मुद्दा उस स्वच्छ सामूहिक चेतना का है। 

दुर्भाग्यवश, हमने औपचारिक लेकिन भाव-शून्य संस्थाएं, प्रक्रियाएं और उसे चलाने के लिए व्यक्ति और संविधान तो दिया, लेकिन समाज में वह समझ विकसित नहीं होने दी जिससे लालच, हिंसा, धार्मिक उन्माद पर अंकुश लगे। वरना धर्मों का तकाजा तो यही था कि हनुमान यात्रा निकले या ताजिया, हर व्यक्ति या व्यक्ति-समूह उसे पाकीजा समझ कर सिर झुकाए। बाबा साहब का संविधान और कानून गुजरात और बिहार दोनों के लिए समान हैं। गुजरात अगर गांधी का राज्य है तो बिहार में महात्मा बुद्ध पैदा हुए थे। फिर गलती कहां हुई, यह समझने की जरूरत है। सन् 2002 के गुजरात दंगे अपवाद थे न कि समाज का सामान्य और पारंपरिक तौर पर स्वीकार्य व्यवहार।-एन.के. सिंह       


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News