राष्ट्र की रक्षा के लिए ‘पारदर्शिता’ भी जरूरी

punjabkesari.in Thursday, Jul 09, 2020 - 03:25 AM (IST)

यकीनन की पत्रकारिता के स्वर्णिम युग में प्रतिष्ठित अखबार द टैलीग्राफ के प्रधान संपादक मैक्स हेस्गिंस ने अपने पत्रकारिता जीवन पर लिखी पुस्तक ‘एडिटर-एन इनसाइड स्टोरी ऑफ न्यूजपेपर’ में 1991 के खाड़ी युद्ध में ब्रिटेन की भूमिका के संदर्भ में लिखा है कि ‘‘तनाव के दौर में एक मित्र मंत्री ने फोन करके पूछा-युद्ध में असली स्थिति क्या है, क्योंकि केवल रक्षा मामलों के मंत्रियों को ही पूरी जानकारी होती है और वे भी हमें कुछ अधिक नहीं बताते। कई बातें अखबार से भी  पता चलती हैं। हर मंत्री को उसके संबंधित विभाग तक की जानकारी रहती है।

यह तो युद्ध काल था, लेकिन सामान्य रूप से भी डाऊनिंग स्ट्रीट (प्रधानमंत्री कार्यालय) उन्हें उतनी जानकारियां ही देता है, जितना उसे अपने अनुकूल लगता है। मंत्रियों को सबसे अधिक यह बात खलती है कि उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन की जिम्मेदारियों को कामकाज तक सीमित रखा जाता है और युद्ध में ब्रिटेन की हार जीत की स्थितियों की जानकारी तभी मिलती है जब प्रधानमंत्री उपयुक्त समझते हैं।’’ 

मार्ग्रेट थैचर हों या जॉन मेजर या वर्तमान प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन या अमेरिकी राष्ट्रपति, सुरक्षा के मामलों में हमेशा गोपनीयता रखते हैं। इसीलिए बी.बी.सी. तक कई संवेदन मामलों पर बहुत संभलकर खबरें देता है। इसलिए पश्चिमी देशों में पढ़े-लिखे या अन्य देशों की समझ रखने वाले नेता जब भारत में लद्दाख, कश्मीर में सैन्य कार्रवाई, पाकिस्तान, चीन, अमेरिका, रूस, फ्रांस जैसे देशों से दोस्ती दुश्मनी की हर बात को उनसे सांझा करने या सारे प्रमाण दिखने की मांग करते हैं, तो दुखद आश्चर्य होता है। हम चीन, रूस या अन्य किसी देश के एक दलीय शासन से तो तुलना भी नहीं करना चाहते। हाल में लद्दाख में चीन की सेना के साथ हुए गंभीर तनाव पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, सेना के वर्तमान तथा पूर्व वरिष्ठतम अधिकारी, विदेश मंत्रालय भी निरंतर आवश्यक जानकारी सार्वजानिक रूप से दे रहे थे। 

स्वतंत्र मीडिया सेना के सहयोग से भी सही बहुत आगे जाकर सीमा से टी.वी. न्यूज चैनल पर बोलते दिखाते रहे। फिर भी सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेता राहुल गांधी की मंडली स्वयं प्रधानमंत्री से जवाब मांगती रही। उनके सहयोगी दलों के कुछ अपरिपक्व नेता, प्रवक्ता भी जनता को भ्रमित करने की कोशिश करते रहे। यों पत्रकार के नाते हम स्वयं पारदर्शिता और मीडिया की स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक हैं, लेकिन अपने प्रोफैशन में भी एक आचार संहिता अनुशासन के पक्षधर हैं। रक्षा सौदों के घोटालों पर बहुत कुछ बोला, लिखा, दिखाया गया और जाता रहेगा। लेकिन हथियार, विमान, पनडुब्बी खरीदी और उनकी उपयोगिता पर सेनाधिकारियों पर तो विश्वास करना होगा। फिर यह भी नहीं भुलाया जा सकता है कि चीन और पाकिस्तान ही नहीं अमरीका ,यूरोप भी अपने स्वार्थों के अनुसार भारत की सत्ता व्यवस्था, सूचना तंत्र का उपयोग करने की कोशिश करते हैं। 

पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, बांग्लादेश से लगी सीमा तो द्विपक्षीय स्तर पर लगभग तय है। चीन के साथ सीमा दोनों देशों ने अपने ढंग से तय कर रखी है और वर्षों से कोई एक नक्शा दोनों देश नहीं स्वीकारते। नक्शों को सामने रखकर सेना या विदेश विभागों के नेता अधिकारी नियमित रूप से चर्चा, बहस, विवाद की बैठकें करते रहे हैं। फिर भी सैनिकों की पहरेदारी के दौरान सीधे टकराव को न होने देने के लिए दोनों पक्षों ने अपनी सीमा नियंत्रण रेखा स्वीकारी हुई है और दोनों रेखाओं के बीच एक बफर क्षेत्र को माना हुआ है, जिसे दोनों अपना कह सकते हैं। हां सीमा नियंत्रण रेखा को लांघने की अनुमति कोई नहीं दे सकता है।

ऐसी स्थिति में भारतीय सीमा ही नहीं लद्दाख में चीनी सेना के घुस जाने और हमारे इलाके पर कब्जा करने के आरोप-झूठी अफवाहें फैलाकर क्या सेना के वीर अधिकारियों और जवानों का अपमान नहीं किया गया है? हमारे नेता, योग्य मीडिया कर्मी और एक्टिविस्ट भाई बहुत ज्ञानी भी हैं,उन्हें इतिहास की पृष्ठभूमि भी पलटते रहना चाहिए। वह भी पुरानी बात नहीं है। मात्र 200 साल पहले तक दुनिया में कई देशों के राज साम्राज्य होते थे, उन्हें अपने सरहदी इलाकों का ज्ञान होता था, लेकिन सीमा रेखाओं की जानकारी नहीं होती थी। अंतिम छोर पर पहुंचकर हर राज्य का क्षेत्राधिकार धुंधला और अपरिभाषित हो जाता था। 

ब्रिटिश राज के समय मैकमोहन ने पुरानी सरहदों और रेखाओं का फर्क बताया। उन्होंने लिखा ‘फ्रंटियर या सरहद का मतलब सीमा या बाऊंड्री से कहीं’ ज्यादा व्यापक है। ‘‘मैकमोहन ने ही परिसीमन और सीमांकन की अवधारणाएं भारत को दीं। परिसीमन तब होता है, जब संधि से या अन्यथा सीमा रेखा तय कर दी जाए और उसे शब्दों में लिखकर दर्ज कर दें। सीमांकन तब होगा, जब सीमा को बाकायदा चिन्हित करके सीमा पर खम्भे, तार आदि लगाकर माना जाए। समस्या यह है कि अंग्रेजों के समय से चीन मैकमोहन द्वारा बताई गई हमारी उसकी सीमाओं को स्वीकार नहीं करता और जब भी मौका मिलता है घुसपैठ करने लगता है और भारत के 70 वर्षों के शांति प्रयासों के बावजूद हेरा-फेरी, सेना धकेल की चालों से बाज नहीं होता।  इस बार अमरीका, यूरोप ही नहीं चीन के करीबी समझे जाने वाले आसियान देशों रूस, वियतनाम, इंडोनेशिया, म्यांमार तक ने उसके बजाय भारतीय पक्ष का साथ दिया। केवल कठपुतली पाकिस्तान ने कब्जाए कश्मीर के हिस्से से भी एक भाग चीन के हवाले कर अपना घिनौना रूप दुनिया को दिखा दिया।-आलोक मेहता 
 


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