यह कहानी है दो महिलाओं की

punjabkesari.in Friday, Jul 22, 2022 - 04:14 AM (IST)

जब राजनीतिक पैंतरेबाजी की बात आती है तो भाजपा कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों से काफी आगे है। आदिवासी द्रौपदी मुर्मू, जो ओडिशा में मयूरभंज के उपारबेड़ा गांव से संथाली जनजातीय समुदाय से अपने बलबूते पर खड़ी हुई महिला हैं, के चुनाव ने विपक्षी दलों के चेहरे का रंग उड़ा दिया। कई विपक्षी दलों, जिन्होंने इस सम्मान के लिए यशवंत सिन्हा का समर्थन किया था, ने अपने विचार बदल दिए। 

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, उद्धव ठाकरे का शिवसेना धड़ा तथा शिबू सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा या तो खुलकर मुर्मू के समर्थन में आ गए या जैसे कि ममता के मामले में, हिचकिचाहट के संकेत दिखाए। एक जनजातीय महिला को नामांकित करके, जिसे ‘लोगों की उम्मीदवार’ कहा जा सकता है, भाजपा ने विपक्ष के पांवों तले से जमीन खिसका दी। 

मैं विशेष तौर पर उस तरीके से नाखुश हूं जिसमें ‘एक अधिकारी तथा भद्र पुरुष’ कहलवाए जा सकने वाले यशवंत सिन्हा को अलग-थलग छोड़ दिया गया। क्या आप किसी अच्छे व्यक्ति को एक ‘सर्वसम्मत उम्मीदवार’ बताकर शुरूआत से पहले ही अलग-थलग छोड़ सकते हैं? यह अत्यंत अनैतिक है। 

वे सभी लोग, जो लिंग समानता में विश्वास करते हैं, जैसे कि निश्चित तौर पर मैं भी, यह स्वीकार करेंगे कि एक संभावित राष्ट्रपति के तौर पर व्यक्तिगत लिहाज से यशवंत सिन्हा मुर्मू से कहीं अधिक बेहतर होते। वह अत्यंत समझदार, जानकार, प्रशासन में अनुभवी तथा सबसे बढ़कर लोगों से निपटने के मामले में निष्पक्ष मानसिकता वाले हैं। वह महान कूटनीतिज्ञ अटल बिहारी वाजपेयी के अत्यंत विश्वासपात्र थे, जो उनकी ही तरह निष्पक्ष मानसिकता वाले थे और उनके मन में अल्पसंख्यकों के खिलाफ कोई दुर्भावना नहीं थी।  

द्रौपदी मुर्मू के लिए सब आसान नहीं होगा। भाजपा उनके पक्ष में 70 प्रतिशत वोट की आशा करती थी। सिन्हा जानते थे कि वह हारने वाले हैं, फिर भी उन्होंने लड़ाई जारी रखी। हमें अवश्य उनके मनोबल की सराहना करनी चाहिए। मैं उन्हें इसके लिए सैल्यूट करता हूं। भूलें नहीं कि वह अपने अच्छे दिनों में महान सेवा आई.ए.एस. का एक हिस्सा थे। भारत के लोगों को एक आदिवासी राष्ट्रपति का स्वागत करना चाहिए क्योंकि आदिवासी यहां हम में से किसी से भी पहले मौजूद थे, मुझे यह कहते हुए थोड़ा संकोच हो रहा है कि द्रविडिय़नों से भी पहले। 

स्वाभाविक है कि वह उस पार्टी की ऋणी होंगी जिसके पास उन्हें इस उच्च पद तक पहुंचाने के लिए संख्या है। मगर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके लिए संविधान तथा देश के सामान्य लोगों के प्रति एक जिम्मेदारी है। लोगों के अधिकारों के लिए आंदोलन, बोलने की स्वतंत्रता तथा समान अवसरों को कुचलने के किसी भी प्रयास को अस्वीकृत किया जाएगा या कम से कम अच्छी सलाह जरूर मिलेगी। इस मामले में मैं ईमानदारी से आशा तथा प्रार्थना करता हूं कि वह असफल नहीं होंगी। 

द्रौपदी मुर्मू को अपने पद का इस्तेमाल आदिवासियों के जनजातीय अधिकार सुनिश्चित करने के लिए करना चाहिए। उन्होंने झारखंड की राज्यपाल के तौर पर ऐसा किया है। हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि देश तभी विकास करेगा यदि कोयला तथा देश के अन्य प्राकृतिक स्रोतों का पूरी तरह से दोहन किया जाए। विकास सरकार के लिए स्वाभाविक चिंता है लेकिन यह कानून के अनुसार आदिवासियों को अधिकारों के भीतर किया जाना चाहिए। 

यदि उन अधिकारों की सीमा-रेखा लांघी जाएगी तथा कोयले तथा खनिजों का खनन आदिवासियों की सहमति तथा सहयोग के बिना किया जाएगा, जो कई शताब्दियों से इन जंगलों में रह रहे हैं तो आने वाली आदिवासी राष्ट्रपति को इस मुद्दे को उठाना तथा विरोध प्रकट करना चाहिए। उन्होंने ऐसा राज्यपाल के तौर पर पहले किया है। प्रशासन में पारदर्शिता के लिहाज से उनकी बाध्यताओं को जनता के सामने प्रकट किया जाना चाहिए।

राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार चुनने के मामले में अपनी उंगलियां जला चुका विपक्ष प्रतीक्षा करता रहा कि भाजपा अपना उप-राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुनने की पहल करे। सत्ताधारी पार्टी ने एक पार्टी-मैन को चुना जिनकी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के तौर पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ लड़ाई की पृष्ठभूमि जग-जाहिर है। जगदीप धनखड़, जो हिंदी पट्टी से जाट हैं, केंद्र में सत्तासीन पार्टी के वफादार रहे हैं। उप-राष्ट्रपति राज्यसभा की उस भूमिका में अध्यक्षता करता है जो लोकसभा में एक चुना हुआ स्पीकर निभाता है। यद्यपि उप-राष्ट्रपति को कई अन्य कत्र्तव्य भी निभाने होते हैं, यह उनकी भूमिका का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा है। 

अत: यह पद उतना सजावटी या अलंकारिक नहीं है जितना कि लोग समझते हैं। वह सरकार के तानाशाहीपूर्ण कार्यों में बाधा डालकर प्रशासन में काफी अंतर ला सकता या सकती है। यह इसका महत्व है। मोदी प्रशासन को धनखड़ के रूप में एक विश्वसनीय साथ मिला है। 

विपक्षी उम्मीदवार मार्गरेट अलवा दक्षिणी राज्य कर्नाटक से एक ईसाई हैं। धनखड़ की तरह उन्होंने भी उत्तराखंड के राज्यपाल बनने से पहले राजनीति में अपने हाथ आजमाए हैं। अपने सेवाकाल के दौरान कई बार उनसे मिला हूं और उनकी निष्पक्षता तथा न्याय की भावना के लिए उनका बहुत सम्मान करता हूं। जब राजीव गांधी ने एक कानून के माध्यम से शाहबानो मामले को पलट दिया था, वह अत्यंत विचलित हुई थीं। एक वफादार सैनिक होने के नाते उन्होंने अपनी राय को अपने तक ही सीमित रखा लेकिन जो लोग उन्हें अत्यंत करीब से जानते हैं वे उनकी भावनात्मक परेशानी से अच्छी तरह वाकिफ थे। 

मैं मार्गरेट से भी अधिक अच्छी तरह उनकी सास वायलैट अलवा को जानता था क्योंकि वह तथा उनके पति जाओचिम अपने करियर्स के एक चरण में मुम्बई में थे। वह खुद भारत की एक पूर्व उप राष्ट्रपति थीं। मुझे याद है कि वायलैट के बेटों में से एक (मार्गरेट के पति नहीं) वामपंथियों में शामिल हो गए थे। श्रीमती अलवा सीनियर ने मुझे बताया कि वह अपने बेटे के निर्णय से हैरान नहीं थीं क्योंकि वह भी महसूस करती थी कि गरीबों तथा वंचित लोगों के साथ उचित व्यवहार नहीं किया जाता।

उन्होंने कहा कि उनकी स्थिति किसी भी सही सोच वाले भारतीय की अंतर्रात्मा को झकझोर देगी। वह मेरे साले डा. ईवान पिंटो, कार्डियालोजिस्ट,  की एक पेशंट थी तथा इसी तरह से मेरी उनके साथ पहचान हुई। उप-राष्ट्रपति पद के लिए स्पर्धा में मार्गरेट निश्चित तौर पर एक छुपा रुस्तम साबित होंगी लेकिन देश के लिए मैं आशा करता हूं कि वह सफल रहें। एक महिला, दक्षिण से एक ईसाई तथा एक निष्पक्ष रैफरी! यह बाद वाला गुण मतदाताओं को आकॢषत करना चाहिए।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)


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