‘यह प्यार नहीं आसां, इक आग का दरिया है’

punjabkesari.in Thursday, Feb 13, 2020 - 02:48 AM (IST)

सुना है कि एक संत वैलेंटाइन को 14 फरवरी को फांसी पर चढ़ाया गया था। यह भी सुना कि उस संत ने अपनी आंखें मरणोपरांत जेलर की अंधी बेटी जैकोबस को दान कर दीं। यह भी सुना कि संत ने जैकोबस को एक पत्र लिखा जिसके अंत में उसने लिखा, ‘‘तुम्हारा वैलेंटाइन’’। इन अंतिम दो शब्दों ‘तुम्हारा वैलेंटाइन’ में है पूर्ण समर्पण। प्यार में होता ही समर्पण है। दो हृदयों और प्राणों का एक्य। और प्यार का यह समर्पण वैलेंटाइन से शुरू नहीं हुआ। यह अनादि है, सनातन है। शायद सृष्टि की उत्पत्ति से भी पहले। दो पत्थरों की रगड़ की आग। चिंगारी है यह प्यार। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, कीट-पतंग हर प्राणी में यह आग है। देश और काल की सीमाओं से परे की चीज है यह प्यार। पर यह प्यार आसां नहीं। यह प्यार एक आग का दरिया है और डूब के जाना है। यह विद्यालय ही ऐसा है जिसमें छुट्टी है ही नहीं। 

प्रेम न बॉडी में पैदा होता है न किसी दुकान पर बिकता है। जो अपना सिर दे वह प्यार ले जाए। एडम और ईव विश्व के प्रथम प्रेमी युगल ने घुड़ती में दिया है यह प्यार इंसान को। प्यार दिखावा नहीं, बंधन भी नहीं। स्वत: दो जवान धड़कते दिलों में पैदा होता है और स्वत: दो दिल एक हो जाते हैं। न नींद आती है, न भूख लगती है। समय मानो ठहर जाता है। पांच बजते ही नहीं। धड़कते दिलों की तमन्ना है यह। प्यार किया नहीं जाता, यह बस यूं ही हो जाता है। स्थूल रूप से एक युवा-युवती में, एक युवा नौजवान में। सूक्ष्म रूप में प्यार एक दैवीय मानवीय गुण है। कवि हृदय तो इस प्यार को ‘लव इज गॉड’ भी कहते हैं। एक अदने से बंदे को खुदा भी बना देता है यह प्यार। 

इस प्यार की खातिर मीरा जहर का प्याला पी गई। सुकरात इसी प्रेमभाव से विष पी गए। तुलसीदास महाकवि कहला गए। ब्रिटेन के राजा इसी प्यार की खातिर राजशाही को ठुकरा गए। कोई हीर बनी, कोई रांझा। कोई रोमियो-जूलियट कहला गए। साहिबां की खातिर मिर्जा तीरों में बिंध गए। सोहणी इसी प्यार की दीवानगी में कच्चे घड़े पर तैर कर महीवाल से जा मिली। लैला-मजनूं के प्यार के किस्से तो हर जुबान पर हैं। सस्सी अपने प्रेमी पुन्नू को उबलती रेतों पर ढूंढती रही। 

मुगलिया सल्तनत में सलीम-अनारकली का कथानक तो कल की बात है पर आज का युवा प्रेम को समझा ही नहीं। आज के युवक के प्यार को समाज ने मान्यता नहीं दी तो वे फंदा क्यों लगाएं? रेल की पटरियों पर क्यों कूद जाएं? सल्फास क्यों लें? आज के युवा प्यार को प्यार ही रहने दें, कोई नाम न दें। नाम दोगे तो प्यार को रुसवा करोगे। आत्महत्या करोगे तो प्यार जैसे पवित्र शब्द को कलंकित करोगे। प्यार में त्याग करना सीखो। प्यार में मरना नहीं, जीना सीखो। प्यार नकारात्मक नहीं। प्रेम में अपनापन है। प्यार में सल्फास खाने वाले कायर हैं। प्यार का अर्थ समझते हो तो बहादुर बनो। आत्महत्या करने वाले देह की सुंदरता को ही सब कुछ समझ बैठे हैं। नारी केवल भोग्या ही नहीं है। नारी हमारी मां भी है। सृष्टि की जननी है। नारी प्रेम को यांत्रिक न बनाओ। प्यार में वासना का पुट न भरो। नारी की सुंदर काया का अवलोकन करो। वह सौंदर्य की मूर्ति है, उसकी पूजा करो। सम्भोग क्षणिक है और नारी सौंदर्य चिरन्तन। क्षणिक देह के सुख में अनादि प्यार की भावना को छोटा न करो। प्यार की गंगा में स्नान करो, अपमान न करो। नारी शरीर भगवान का पावन मंदिर है। इस मंदिर से देवताओं का निकास होता है। 

अब थोड़ा प्यार के पर्यायवाची फारसी भाषा के शब्द ‘इश्क’ का अवलोकन करते हैं। फारसी शब्दकोष के अनुसार ‘इश्क’ के अर्थ हैं ‘किसी वस्तु से हद से अधिक प्यार होना। फारसी में इश्क एक रोग है जिसे ‘जुनून’ या ‘पागलपन’ भी कहते हैं।  इश्क शब्द ‘इश्का’ से निकला है, जो एक बूटी है, जिसे फारसी में ‘लवलाव’ कहते हैं। हिन्दी में ऐसी बूटी को ‘अमरबेल’ कहा जाता है। लवलाव उस बूटी को कहते हैं जो जिस वृक्ष से चिपट जाती है उस वृक्ष को सुखा देती है। यही बात इश्क की है जिसे लग जाता है वह न घर का रहता है, न घाट का। बस या तो पीला पड़ जाता है या सूख जाता है। हीर-रांझा का भी यही हाल था। तनिक ध्यान दें :
‘वारिस शाह दो उड़नियां हीर-रांझा
सुक्के, पीलड़े ते बुरे हीलड़े नी॥’ 

कुराने-मजीद में इश्क एक ऐसी अग्रि है जो खुदा के सिवाय दूसरी चीजों को साद देती है। ‘हीर’ किस्से के रचयिता वारिस शाह ने ‘इश्क’ को दुनिया का बनाने वाला कहा है। तभी तो किस्से को आरम्भ करते हुए कहते हैं :
इश्क कीता सू जग दा मूल मियां
पहिलां आप है रब्ब ने इश्क कीता
माशूक है नबी रसूल मियां॥ 

फारसी भाषा का शब्द ‘इश्क’ शारीरिक-कामना की पूर्ति नहीं करता। इश्क कोई पीर-फकीर ही कर सकता है। इश्क से जीवन बनता है। इश्क पीर-फकीर दा मरतबा है। अफसोस आज ‘मोबाइल’ के आगमन ने प्रेम की परिभाषा ही बदल दी। प्रेम निवेदन का ढंग ही बदल दिया। तारघर बंद कर दिए। पत्र-व्यवहार बंद हो गए। अपनी अपरिपक्व अवस्था में हम तो खतो-खिताबत से ही प्रेम का इजहार करते थे। पत्र लिखते थे, प्रेमिका का उत्तर रातों की नींद उड़ा देता था। रात को उनके दरवाजे की ‘खरोंच’ से खत छोड़ आते थे। प्रेमिका के अबोध भाई के हाथ खत थमा देते थे। उनकी गली में ‘कोड वर्ड’ बोलते। झरोखे से उसे देख, घंटों खोए रहते। कभी किताबों की अदला-बदली से प्रेम निवेदन कर लिया करते। आनंद आता। उधर से भी चंद लाइन आ जाती : दिले दर्द करता है, दिले दवा भेजो- इस कागज के टुकड़े पर अपनी तस्वीर बना भेजो। 

बुरा हो इस कमबख्त मोबाइल का कि पत्र लिखना ही भुला दिया। ‘वीडियो कॉलिंग’ में अब आमने-सामने बातें होती हैं। नंगे अश्लील चित्र देखे-दिखाए जाते हैं। प्यार रहा ही कहां है? वासनाओं का ही बोलबाला। दुष्कर्म के सर्वत्र समाचार हैं। अत: बेकार है ‘वैलेंटाइन्स डे’। भारतीय सभ्यता को ‘वैलेंटाइन्स डे’ के नाम पर बदनाम न करो। प्यार की भाषा को समझिए, प्रेम की सघनता में डुबकी लगाइए। आज इतना ही।-मा. मोहन लाल(पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)


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