भाजपा की हार के ये हैं ‘गुनहगार’

punjabkesari.in Wednesday, Feb 12, 2020 - 02:04 AM (IST)

चुनाव तो भ्रष्टतम नेता भी जीत जाते हैं, राज्यों में सरकार बना लेते हैं, जनता भ्रष्ट राजनेताओं को भी जनादेश दे देती है। इसका उदाहरण लालू प्रसाद यादव हैं, जयललिता उदाहरण थी और मायावती उदाहरण है। मायावती दौलत की रानी की पदवी हासिल कर चुकी थी, फिर भी वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गई थी। लालू प्रसाद यादव चारा खाने के दोषी ठहराए गए और जेल में हैं, फिर भी उनकी पार्टी बिहार में जनादेश हासिल कर चुकी थी। जयललिता भी आयकर मामलों में फंसी थी, फिर भी तमिलनाडु में वह राजनीति की सिरमौर बनी रही थी। इसलिए यह समझ नहीं होनी चाहिए कि ईमानदार नेता को ही जनता जनादेश देती है। अरविंद केजरीवाल भी हर तरह के भ्रष्टाचार के दोषी थे, राजनीतिक वायदे के प्रति उदासीनता बरतने के दोषी थे, भ्रष्टाचार के आरोपी मंत्री सत्येन्द्र जैन को संरक्षण देने के दोषी थे, दागी और माफिया को विधानसभा में टिकट देने के दोषी थे, फिर भी अरविंद केजरीवाल ने तीसरी बार सरकार बनाने का जनादेश प्राप्त कर लिया।

केजरीवाल ने भी अप्रत्यक्ष तौर पर मजहब और क्षेत्रीयता का हथकंडा अपनाया था
यह कहना कि अरविंद केजरीवाल ने विकास के नाम पर चुनाव जीता है, यह भी एक प्रत्यारोपित राजनीति है, अरविंद केजरीवाल ने भी अप्रत्यक्ष तौर पर मजहब और क्षेत्रीयता का हथकंडा अपनाया था। शाहीन बाग, जामिया का प्रसंग उन्होंने भड़काया था। मनीष सिसोदिया ने कहा था कि हम शाहीन बाग के साथ हैं। हनुमान चालीसा पढऩे का नाटक कर हिन्दू वोटरों की नाराजगी दूर करने की कोशिश की थी। बिहारियों के खिलाफ अप्रत्यक्ष राजनीति कर क्षेत्रीयता के मुद्दे पर सवार केजरीवाल थे। कभी पाकिस्तान की तरफदारी कर अरविंद केजरीवाल एयर स्ट्राइक के सबूत मांगते थे, कभी जे.एन.यू. की अफजल मानसिकता पर सवार हो जाते हैं तो कभी शाहीन बाग के देश को टुकड़े-टुकड़े करने की मानसिकता पर सवार हो जाते हैं। क्या ये मुस्लिम मतदाताओं को रुझाने वाले कदम नहीं थे? 

राजधानी दिल्ली में भाजपा के लिए अवसर बहुत ही आसान थे, राजनीतिक परिस्थितियां भी अनुकूल थीं। अगर घोषणापत्र की बात करें तो अरविंद केजरीवाल असफल थे। राजनीतिक शुचिता की जगह राजनीति के अपराधीकरण, राजनीति के रुपयाकरण करने, राजनीति के माफियाकरण करने के दोषी थे। भ्रष्टाचार को दूर करने की उनकी मानसिकताएं कहीं से भी परिलक्षित नहीं हो रही थीं, भ्रष्टाचार के दलदल में उनके मंत्री फंसे हुए थे, उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के ओ.एस.डी. रंगे हाथ रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार हुए थे, उसने सी.बी.आई. को अपने बयान में कहा था कि चुनाव के लिए धन जुटाने हेतु उन पर दबाव था, इसीलिए उन्होंने रिश्वत की डील की थी। 

अरविंद केजरीवाल का पहला एजैंडा विकास नहीं था, उनका पहला एजैंडा भ्रष्टाचार था, भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए लोकपाल का गठन उनकी प्राथमिकता थी। लोकपाल के आंदोलन की कसौटी पर ही अरविंद केजरीवाल राजनीति में आए थे। पर उस प्राथमिकता को अरविंद केजरीवाल ने पूरा करने की कोशिश ही नहीं की, केन्द्रीय सरकार से अनावश्यक विवाद खड़ा कर लोकपाल के गठन को मंझधार में छोड़ दिया। विवाद खड़ा करना और लोकपाल के गठन को मंझधार में छोडऩा भी एक रणनीति थी? 

विकास अरविंद केजरीवाल की प्राथमिकता सूची में निचले स्तर पर था। दिल्ली में विकास सिर्फ स्कूल के क्षेत्र में प्रचारित है। अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि मैंने स्कूलों का विकास किया है। यह सही है कि स्कूलों की बिल्डिंगें जरूर दुरुस्त हुई हैं, पर पढ़ाई का ढर्रा पहले ही जैसा है। फिर स्कूल बिल्डिंगें बनाने में भ्रष्टाचार का प्रश्र भी उठा था। जो स्कूल कमरे 5 लाख में बनते थे वही स्कूल कमरे अरविंद केजरीवाल की सरकार ने 25-25 लाख रुपए में बनवाए थे। भाजपा ने इस पर भ्रष्टाचार के मामले उठाए थे। स्कूलों की असली प्रगति तभी मानी जाएगी जब अरविंद केजरीवाल के विधायकों के बच्चे और सरकारी अधिकारियों के बच्चे निजी स्कूलों को छोड़कर सरकारी स्कूलों में पढऩे जाना शुरू करेंगे। आम नागरिकों को 200 यूनिट बिजली जरूर फ्री मिल रही है पर 200 से अधिक यूनिट खर्च करने वाले नागरिकों में नाराजगी थी। साफ पानी का प्रश्न भी हर जगह मौजूद था, खासकर दिल्ली की कच्ची कालोनियों में गरीब जनता साफ पानी को लेकर आंदोलित भी थी। मोहल्ला क्लीनिक भी चुनाव के दौरान ही सक्रिय थे। दलितों और पिछड़ों की राजनीतिक हिस्सेदारी देने में भी आम आदमी पार्टी असफल थी। 

अपने 21 साल के वनवास को भाजपा समाप्त क्यों नहीं कर सकी
ऐसी अनुकूल राजनीतिक परिस्थिति में भी भाजपा दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को पराजित करने में क्यों नहीं सफल हुई? अपने 21 साल के वनवास को भाजपा समाप्त क्यों नहीं कर सकी? भाजपा अपने नेता नरेन्द्र मोदी की छवि और शासन को क्यों नहीं भुना सकी? इन सभी प्रश्नों का उत्तर ढूंढना जरूरी है। वास्तव में भाजपा पूरी तरह से सक्रिय ही नहीं थी, वह अपनी कैडर शक्ति को भी सक्रिय ढंग से प्रयोग नहीं कर पाई। अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कोई चाकचौबंद रणनीति बनाने में भाजपा विफल रही। भाजपा का प्रचार विष कन्याओं और प्रोफैशनल लोगों पर आश्रित था। बड़ी-बड़ी कम्पनियों में काम करने वाली विष कन्याएं और प्रोफैशनल लोग झुग्गी-झोंपडिय़ों में प्रचार करने की जगह दिल्ली के मॉल में फैशन शो जैसा प्रचार कर रहे थे। इन भाड़े के लोगों की बदौलत भाजपा अपनी किस्मत नहीं लिख सकती है। 

भाजपा को खुशफहमी थी कि हमें काम करने की जरूरत ही क्या
भाजपा के नेता खुशफहमी के शिकार थे। उनकी खुशफहमी थी कि हमें काम करने की जरूरत ही क्या है, हमारे पास नरेन्द्र मोदी जैसा नेता है और नरेन्द्र मोदी के प्रति जनता में विश्वास प्राप्त है तो फिर जनता हमें वोट देगी ही। यह सही है कि नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली भाजपा के नेताओं को जीत के लिए बहुत बड़ा मुद्दा दिया था। दिल्ली की कच्ची कालोनियों का प्रश्न 10 सालों से लम्बित था। नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली की कच्ची कालोनियों को नियमित कर एक बड़ा काम किया था। दिल्ली की कच्ची कालोनियों में कोई 1-2 लाख नहीं बल्कि 40 लाख लोग रहते हैं। ये 40 लाख लोग चुनाव के दौरान सरकार बनाने की बड़ी भूमिका निभाते हैं। कच्ची कालोनियों में भाजपा अगर दम लगाती तो फिर वह अपने पक्ष में बहुत बड़ा जनाधार हासिल कर सकती थी। पर भाजपा के लोग कच्ची कालोनियों में जाने या फिर उनके सुख-दुख में शामिल होने से बचते हैं, चुनाव प्रचार के दौरान भी भाजपा के लोगों के लिए कच्ची कालोनियों और झुग्गी-झोंपडिय़ों में जाने और उनका विश्वास जीतने के लिए जिस चाकचौबंद सक्रियता की जरूरत थी, वह कमजोर थी।

भाजपा को अपने समर्पित कार्यकत्र्ताओं पर विश्वास नहीं है, यह कहना भी सही होगा कि अब भाजपा में समर्पित कार्यकत्र्ता नहीं हैं, अगर हैं तो फिर वे हाशिए पर हैं, वे उदासीन हैं, वे असक्रिय हैं, उनकी कोई पूछ ही नहीं है। जब सत्ता साथ में होती है तो फिर कार्यकत्र्ताओं के रूप में सुविधाभोगी और दलाल संस्कृति के लोग कार्यकत्र्ता और नेता होने का शोर मचा कर प्रभावित जगह हासिल कर लेते हैं। भाजपा के पास केन्द्रीय सत्ता है। केन्द्रीय सत्ता में लाभ उठाने वालों की लिस्ट देख लीजिए, आपको पता चल जाएगा। अगर आप विश्लेषण करेंगे तो साफ हो जाएगा कि केन्द्रीय सत्ता में पद हासिल करने वाले कौन लोग हैं। भाजपा की तरफ से दर्जनों पत्रकारों को राज्यसभा टी.वी., लोकसभा टी.वी. और दूरदर्शन में नौकरी दिलाई गई। 

दिल्ली जीतने की जिन नेताओं पर जिम्मेदारी डाली गई थी वे जनता के प्रति जिम्मेदार होने वाले भी नहीं थे, वे दिल्ली की जनता की विभिन्न श्रेणियों की राजनीतिक मानसिकताओं से अनभिज्ञ भी थे, उनकी कोई दूरदर्शी दृष्टि नहीं थी। भाजपा ने दिल्ली चुनाव की जिम्मेदारी 2 नेताओं पर डाली थी। केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर दिल्ली चुनाव प्रभारी बनाए गए थे। तरुण चुघ सह प्रभारी थे। ये दोनों नेता दिल्ली से परिचित नहीं थे। 

प्रकाश जावड़ेकर दिल्ली में बहुत सालों से जरूर रहते हैं और वह वर्षों से भाजपा के प्रवक्ता भी रहे हैं, पर जावड़ेकर कभी भी दिल्ली वाले नहीं बन सके, उनकी मानसिकता में महाराष्ट्र प्रबल रहा है, आम कार्यकत्र्ता और जनता के बीच प्रकाश जावड़ेकर ने कभी भी लोकप्रिय होने की कोशिश ही नहीं की थी। इसी तरह तरुण चुघ भी दिल्ली के लिए नए थे और उनकी पहुंच कार्यकत्र्ताओं तक थी ही नहीं। टिकट बांटने में भी प्रकाश जावड़ेकर और तरुण चुघ जैसे नेताओं की बड़ी भूमिका थी जो दिल्ली की जनता का रुझान ही नहीं जानते थे। दिल्ली को जानने वाले-समझने वाले जो सारे नेता हाशिए पर थे, एक तरफ उठा कर फैंक दिए गए। दिल्ली में वर्तमान में जो नेता प्रमुख हैं जिनकी पहुंच दिल्ली की जनता तक है उनमें विजय गोयल, डॉ. हर्षवर्धन, पवन शर्मा जैसे लोगों को दिल्ली चुनाव में सक्रिय क्यों नहीं किया गया? 

अमित शाह का आक्रामक प्रचार और कुशल नीति हर बार परिणाम नहीं दे सकती है। अमित शाह के प्रचार में कूदने के पूर्व भाजपा हताश और निराश ही नहीं थी बल्कि भ्रमित थी। जैसे ही अमित शाह चुनाव प्रचार में कूदे, वैसे ही समॢपत कार्यकत्र्ता चुनाव में कूद पड़े। फिर भाजपा जोश से भर गई पर हमेशा मोदी का जादू नहीं चल सकता है। प्रादेशिक नेताओं का जनता के प्रति समॢपत नहीं होना खतरे की घंटी है, इस खतरे की घंटी को भाजपा क्यों नहीं सुन रही है। भाजपा को अपने कार्यकत्र्ताओं पर विश्वास करना सीखना होगा, दलाल कम्पनियों की विष कन्याओं और प्रोफैशनल संस्कृति के लोगों से दूर होना होगा।-विष्णु गुप्त
 


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