संयुक्त परिवार का भी जमाना था

punjabkesari.in Saturday, Oct 02, 2021 - 03:54 AM (IST)

महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने लिखे राष्ट्रगान की पंक्तियों जन-गण-मन में पंजाब, सिंधु, गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्कल बंगा, विंध्य, हिमाचल, गंगा ,जमुना, उच्छल जलधि तरंगा में पूरे भारत की परिकल्पना की थी। आजाद भारत में विभिन्न राज्यों को मिलाकर  पूरे देश की इसी अवधारणा को स्थापित और पुष्ट किया गया। पीछे मुड़कर देखती हूं, तो लगता है कि वह संयुक्त परिवार का जमाना था। संयुक्त परिवार के महत्व और ह्यूमन रिसोर्स की कीमत को लोग पहचानते थे।

वह कहानी घर-घर में कही जाती थी, जिसमें एकता का उदाहरण झाड़ू से दिया जाता था कि अगर झाड़ू की सींक अलग-अलग हों, तो उन्हें तोड़ना आसान है, जबकि पूरी झाड़ू को तोड़ना मुश्किल। फिर समय के साथ अपने देश में शिक्षा बढ़ी। नौकरी के लिए पलायन भी। इस तरह परिवार धीरे-धीरे बदलकर, एकल परिवार बनने लगे। आज हालत यह है कि गांवों में भी संयुक्त परिवार नजर नहीं आते। जो थोड़े-बहुत बचे भी होंगे, वे टूटने की कगार पर हैं। 

जिन नौकरियों के कारण लोग अलग-अलग जगहों पर गए थे, परिवार टूटे थे, अब वहीं हर जगह नौकरियां सिकुड़ रही हैं। नौकरियां कम हैं, इसलिए कहा जाने लगा है कि पहले अपने प्रदेश के लोगों को नौकरी मिले, बाद में किसी और को। इसीलिए अब अपने-अपने प्रदेश के लोगों को न केवल सरकारी नौकरियों में बल्कि निजी क्षेत्र में भी आरक्षित किया जा रहा है। सोचने की बात यह भी है कि जब परिवार के चार लोग इकट्ठे नहीं रहना चाहते, तो पूरे देश में लोग इकट्ठे रहना क्यों चाहेंगे। वे भी स्वार्थी होना चाहें तो क्या बुरा। इसीलिए इन दिनों अगर आप देखें, तो अपने-अपने प्रदेश, अपनी भाषा, अपने रीति-रिवाज, परंपराओं को सर्वश्रेष्ठ बताने की होड़ चल पड़ी है। धर्मों को एक -दूसरे से अच्छा बताना, जाति की श्रेष्ठता का गुमान, अपने नायकों की तलाश, उनके बरक्स अब तक चले आ रहे नायकों को छोटा करना आदि न जाने कितनी प्रविधियां हैं जो इन दिनों मीडिया, नेताओं, एन.जी.ओज यहां तक कि तमाम लोगों के कार्यकलापों-भाषणों, बोल-चाल में दिखाई देती हैं। 

पश्चिम ने सदियों से जिस तरह से संघर्ष या कनफ्लिक्ट की विचारधाराओं का तोहफा संसार को सौंपा, उसे तमाम देशों के नेताओं और जनता के एक बड़े वर्ग ने जस का तस अपना लिया है। यह अलग बात है कि आज विकास और अच्छे विचार का पश्चिमी माडल हर जगह असफल नजर आता है, मगर हम हैं कि अब भी उधर ही सरपट दौड़ रहे हैं। बीस साल बाद अफगानिस्तान में तालिबानों का आना इसी विफलता का सबसे अच्छा उदाहरण है। क्यों  जिस लोकतंत्र को सबसे अच्छा बताया जाता है, वह फेल हुआ और कट्टरवादी विचारधारा की जीत हुई, इस पर कोई भी विचार करने को तैयार नहीं है। आखिर बुरे विचार क्यों जीत रहे हैं, और अच्छे विचार जिनकी घुट्टी रह-रहकर पिलाई जाती है, वे क्यों पराजित हो रहे हैं। पहचान की राजनीति या आइडैंटिटी पॉलिटिक्स को जिस तरह से धार मिली है, उसने सारे पुराने विचार और हम ही ज्ञान देने वाले हैं, इस बात को सिर के बल खड़ा कर दिया है। 

इन दिनों हर प्रदेश के नेता सिर्फ अपनी-अपनी बातें करते दिखाई देते हैं। खुलेआम या चुपके से स्वायत्तता की धमकी देते भी पाए जाते हैं। तमिलनाडु के नेता हों, बंगाल के, बिहार के, उत्तर प्रदेश के, असम, या किसी और के सब अपने जातीय गौरव, अपनी अस्मिता और खुद की श्रेष्ठता के दंभ के कोड़े को फटकारते नजर आते हैं। ऐसा कैसे हो गया कि कहां तो देश की एकता की बातें करके नेता वोट बटोरते थे, अब सिर्फ पंजाब, सिर्फ तमिलनाडु, सिर्फ हरियाणा, मध्य प्रदेश, ओडिशा और सिर्फ अपने ही राज्यों के भले की बातें करके वोट बटोरने की कोशिश की जाती है। और दूसरे को अपने से कमतर बताया जाता है। अपने को अच्छा बनाने, दिखाने के लिए प्रयास करें, यह तो ठीक है। 

मगर बस हम ही हैं, दूसरा कोई नहीं, यह सोच तो ठीक नहीं है। आखिर इस तरह की सोच हमें कहां ले जाएगी। क्या अब फिर से हर प्रदेश, हर जिले, हर गली, नुक्कड़ का एक अलग राजा होगा। काश कि रवीन्द्रनाथ टैगोर को यह बात पता होती। चुनाव के दौरान अलगाव की जितनी, जिस तरह से आग लगाई जा सकती है, उसे हर तरह से बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। अफसोस कि इसमें किसी भी दल की भूमिका कम नहीं नजर आती। दंगा-फसाद जो ध्रुवीकरण करता है, उसमें नेताओं की सीट पक्की होती है लेकिन आम आदमी मारा जाता है, हाशिए पर रह जाता है।-क्षमा शर्मा
 


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