चीनी गतिरोध पर संसद में ‘बहस’ होनी चाहिए थी

punjabkesari.in Sunday, Sep 27, 2020 - 01:29 AM (IST)

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद में सबसे संवेदनशील राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौती जोकि भारत 1962 के बाद पहली बार झेल रहा है पर कोई बहस नहीं हुई। इस समय पूर्वी लद्दाख तथा उत्तरी सिक्किम में भारत चीनी अतिक्रमण झेल रहा है। यह स्पष्ट है कि सरकार कठोर सवालों के जवाब देने में आना-कानी करने की कोशिश करती है मगर दोनों सदनों में संयुक्त विपक्ष को ऐसे मुद्दों को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए था। उन्हें रक्षा मंत्री से एक अपर्याप्त बयान के साथ संतुष्ट नहीं होना चाहिए था। 

वास्तव में मैंने रक्षामंत्री को 16 सितम्बर को लिख कर यह आग्रह किया था कि भारत को सरहद पर ऐसी स्थिति के बारे में संज्ञान लेना चाहिए। इससे न केवल हमारे लोकतंत्र की शक्ति का प्रदर्शन होता बल्कि संसद की ओर से चीन को एक कड़ा संदेश भी जाता। मैंने उनको 1962 के भारत-चीन युद्ध के बारे में स्मरण करवाया। जब लोकसभा के 165 सदस्यों ने एक विचार-विमर्श में भाग लिया जोकि उस समय भारत-चीन युद्ध से संबंधित था। यह विचार-विमर्श लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों में किया गया जिसमें भारत के पूर्व दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी हिस्सा लिया। 

20 अक्तूबर 1962 को चीन ने भारत पर हमला कर दिया। भारतीय जनसंघ के 4 सदस्यों में से एक सांसद वाजपेयी ने राज्यसभा में आग्रह किया जिसे पंडित नेहरू ने बिना किसी हिचकिचाहट संसद को 8 नवम्बर 1962 को बुलाने का फैसला किया। एक दिन बाद फ्लोर पर वाजपेयी ने कड़े शब्दों में नेहरू प्रशासन की आलोचना की। उस दौरान चीनियों ने ग्रीन पिंपल तथा यैलो पिंपल को जब्त किया हुआ था। कुछ कड़े सवालों का जवाब देने के लिए वाजपेयी ने मांग की जिनमें उन्होंने कहा कि हमारी सेना नेफा में अपना पूरा बल प्रदर्शन क्यों नहीं कर रही तथा युद्ध के लिए तैयार क्यों नहीं? उन्होंने सिविल तथा सैन्य प्रशासन में श्रेष्ठता की पहचान करने पर जोर दिया जिन्होंने अंधेरे में रखा था। उन्होंने यह पूछा कि उनके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई। 

वाजपेयी ने स्पष्ट तौर पर समझ लिया कि एक लोकतंत्र में हमें सच्चाई को बताना चाहिए। संगीन मुद्दों को हमें उजागर करना चाहिए। उस पर धूल नहीं डालनी चाहिए। इसी कारण 37 वर्षों बाद जब अप्रैल-मई 1999 में कारगिल में घुसपैठ हुई तब वाजपेयी ने राष्ट्र को बताया कि हम पाकिस्तान द्वारा छले गए हैं तथा पाकिस्तान ने द्रास, कारगिल तथा अन्य ऊंचे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया है। इसके अलावा उसने श्रीनगर से लेह को जोडऩे वाले राष्ट्रीय राजमार्ग 1-ए पर भी कब्जा जमा लिया। इसी तरह दिसम्बर 1971 में बंगलादेश को आजाद करवाने के युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद को चकमा नहीं दिया। 

दुर्भाग्यवश वाजपेयी की विरासत संभालने वाले लोगों में चीनी गतिरोध पर कार्रवाई करने में नैतिक साहस की कमी है। सरकार बहुत कुछ छिपाने की करती है। कड़े सवालों को सरकार दर-किनार करती है। उनसे निपटना ही नहीं चाहती। इस सरकार का यही पागलपन है कि मेरे सभी सवाल इस संसद सत्र में पूछे जाने के बिना ही अधूरे रह गए। ये सवाल प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, गृह तथा विदेश मंत्री से थे। मेरे सवाल चीनी गतिरोध को लेकर थे। इन्हें इस आधार पर पूछने की अनुमति नहीं मिली कि यह बेहद संवेदनशील हैं। हालांकि यह 230 सवालों की सूची में रखे गए थे जिनके जवाब किसी भी दिन दिए जा सकते थे। अस्पष्टता का स्तर केवल गलतफहमियों को बढ़ाता है। सरकार पूरे राष्ट्र से सच्चाई को छिपाने का प्रयास कर रही है। 

प्रथम विश्व युद्ध तथा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान विश्वभर के लोकतांत्रिक संसदें निरंतर ही ऐसे विषयों पर विचार-विमर्श करने के लिए बुलाई जाती रही हैं। उन्हें युद्ध की दिशा और व्यवहार पर बात करनी थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हाऊस ऑफ कामन्स के फ्लोर पर विंस्टन चॢचल ने कई मशहूर भाषण दिए। वर्तमान घटनाक्रम जो भारत देख रहा है वह उसी का बनाया हुआ है।  भारत चीनी इरादों को भांपने में नाकामयाब रहा। जब भारत चीन के साथ दोस्ताना व्यवहार का खेल खेलने में व्यस्त था तब चीनी संघर्ष के लिए तैयारियां कर रहे थे। चीन ने भारत को धोखे में रखा और उसे आत्मसंतुष्ट बनाए रखा। वर्तमान संघर्ष दर्शाता है कि 2018 में वुहान तथा 2019 के महाबलीपुरम सम्मेलन धुएं का पर्दा बन कर रह गए। एल.ए.सी. पर चीनी गतिविधियों को जांचने में कमी दिखी। सभी ओर खुफिया, रणनीतिक तथा कूटनीतिक असफलता लिखी गई। 

चीनी यह बात अच्छे से जानते हैं कि भारत की सत्ताधारी पार्टी अपनी बहुत बड़ी राष्ट्रवादी छवि को बनाने में लगी हुई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आधिकारिक बयान जिसमें उन्होंने कहा कि हमारी सीमाओं में कोई भी नहीं घुसा, ने चीनियों का और उत्साह बढ़ा दिया। अब वह भारत पर एल.ए.सी. की उल्लंघना का आरोप मढ़ रहा है। 

मुझे नहीं लगता कि वर्तमान संकट जल्द ही सुलझने वाला है। मई से ही बातचीत चल रही है ताकि यथास्थिति बनाकर रखी जा सके। हालांकि बातचीत असफल हुई है क्योंकि दोनों पक्षों के लिए यथास्थिति को समझने का भाव अलग-अलग है। भारत अप्रैल 2020 की यथास्थिति चाहता है। हालांकि चीन 2019 से पहले की स्थिति को तरजीह देता है। भारत और चीन दोनों ही युद्ध में उलझना नहीं चाहते। वे नहीं चाहते कि यह गतिरोध दोनों को युद्ध की कगार पर ले जाए। अगर ऐसा हुआ तो हमारी अर्थव्यवस्था और भी कमजोर पड़ जाएगी।क्या कोई आत्मसम्मान वाला राष्ट्र इस राष्ट्रीय निरादर को सहन करेगा? सरकार बॉलीवुड से संबंधित समाचारों पर शोर मचा रही है जो बीते कल तक एक समाचार थे।-मनीष तिवारी


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