भारतीय विदेश नीति की खामियां दूर करने की जरूरत

punjabkesari.in Friday, Jan 21, 2022 - 07:20 AM (IST)

बीमार का हाल कैसा है, यह नब्ज बता देती है और किसी देश का हाल कैसा है, यह उसकी विदेश नीति बता देती है। ऐसा इसलिए है कि विदेश नीति दरअसल किसी भी देश की आंतरिक स्थिति का आईना होती है। इसे हम अपने देश के संदर्भ में अच्छी तरह समझ सकते हैं। हमारी आंतरिक सच्चाई यह है कि एक चुनाव से दूसरा चुनाव जीतने की चालों-कुचालों से अलग हम न कुछ कर, कह और सोच रहे हैं। गले लगने-लगाने, झूला-झुलाने और गंगा आरती दिखाने को विदेश नीति समझने का भ्रम जब से टूटा है, एक ऐसी दिशाहीनता ने हमें जकड़ लिया है, जैसी पहले कभी न थी। 

करीब-करीब सारी दुनिया में ऐसा ही आलम है। जब सत्ता ही एकमात्र दर्शन हो तब सत्य और साहस के पांव रखने की जगह कहां बचती है। क्या कोई अमरीकी अध्येता कह सकता है कि बाइडेन ने अंतर्राष्ट्रीय मामलों में एक भी ऐसी पहल की है जो अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अमरीका की नई छवि गढ़ती हो? अफगानिस्तान की उनकी अर्थहीन पहल चौतरफा पराजय की ऐसी कहानी है जिसे विफल राजनीतिक निर्णयों के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाना चाहिए। 

अमरीका की अंतर्राष्ट्रीय हैसियत दरअसल उसकी आर्थिक शक्ति की प्रतिछाया थी। वह आॢथक शक्ति चूकी तो अमरीका की हैसियत भी टूटी! बाइडेन के पास इन दोनों मोर्चों पर अमरीका को फिर से खड़ा कर सकने का न तो साहस है, न सपना। कभी महात्मा गांधी ने इसकी तरफ  इशारा करते हुए कहा भी था कि जब तक पूंजी के पीछे की पागल दौड़ से अमरीका बाहर नहीं आता, तब तक मेरे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं है। 

ऐसा ही हाल है रूस और चीन का। रूस के 69 वर्षीय राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन कभी भी सामाजिक या राजनीतिक नेता नहीं रहे, रहे तो बस 16 लंबे सालों तक रूस की खुफिया सेवा की नौकरी में। सोवियत संघ के बिखरने के बाद जो उथल-पुथल मची, उसके परिणामस्वरूप कई हाथों से गुजरती हुई रूस की सत्ता पुतिन के हाथ लगी और तब से ही उसे हाथ से न जाने देने की चालबाजियां ही पुतिन की राजनीति है। 2012 से अब तक रूस की तरफ से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई भी ऐसा हस्तक्षेप नहीं हुआ जिससे विचार व आचार का कोई नया दरवाजा खुलता हो। 

चीन के शी जिनपिंग पुतिन के छोटे संस्करण हैं, हालांकि उनके पांव में पुतिन से बड़ा जूता है। 68 वर्षीय जिनपिंग करीब-करीब तभी 2012 में चीन की सत्ता में आए जब पुतिन रूस में आए। उनकी राजनीति का आधार भी पुतिन की तरह ही आजीवन सत्ता अपने हाथ में रखना है, लेकिन जिनपिंग की हैसियत इसलिए पुतिन से बड़ी हो जाती है कि वह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आॢथक व फौजी सत्ता के मालिक हैं। वह रूस को नहीं, अमरीका व भारत को चुनौती देते हैं। इसलिए हमारी व्यापक विदेश नीति की कसौटी चीन ही है। 

स्वाभाविक है कि एशिया उप-महाद्वीप के तमाम छोटे मुल्क यही देखते व भांपते रहते हैं कि भारत चीन से कब, कहां और कैसे निपटता है। श्रीलंका में चीन का प्रवेश जिस तरह हो रहा है, वह भारत को सावधान करता है। राजधानी कोलंबो से सट कर चीन एक नया सिंगापुर या दुबई बसा रहा है। भारत को इसका जवाब आॢथक स्तर पर नहीं, राजनीतिक स्तर पर देना चाहिए, लेकिन ऐसा कोई जवाब दिखाई या सुनाई नहीं दे रहा। 

चीन के इशारे व खुले समर्थन से सू की की लोकतांत्रिक सरकार की जैसी बिरयानी यांमार की फौजी सत्ता ने बनाई और वहां का सारा लोकतांत्रिक प्रतिरोध फौजी बूटों तले रौंद डाला, उसका जवाब भारत कैसे देता है, यह देखने वाले एशियाई मुल्क हैरान व निराश ही हुए हैं। बंगलादेश संघर्ष के समय जयप्रकाश नारायण ने भारत की विदेश नीति में एक नैतिक हस्तक्षेप करते हुए उसे एक कालजयी आधार दिया था कि लोकतंत्र का दमन किसी देश का आंतरिक मामला नहीं है। इस आधार पर यांमार के मामले में भारत की घिघियाती चुप्पी उसे चीन के समक्ष घुटने टेकती दिखाती है। 

चीन का विस्तारवादी रवैया हांगकांग और ताइवान को भी अपना उपनिवेश बनाकर रखना चाहता है। यदि इंगलैंड में थोड़ी भी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना होती तो वह 1842 की नानकिंग जैसी प्राचीन व अनैतिक संधि की आड़ में हांगकांग चीन को नहीं सौंप देता, बल्कि कोई ऐसा रास्ता निकालता (जनमत संग्रह), जिससे हांगकांग की लोकतांत्रिक चेतना को जागृत व संगठित होने का मौका मिलता। लेकिन खुद को लोकतंत्र की मां कहने का दावा करने वाले इंगलैंड ने भारत विभाजन के वक्त 1946-47 में जितना गंदा खेल खेला था, उसने वैसा ही गंदा खेल 1997 में खेला और हांगकांग को चीन के भरोसे छोड़ दिया। भारत ने तब भी इस राजनीतिक अनैतिकता के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई और अब भी नहीं, जब दमन, हत्या व कानूनी अनैतिकता के रास्ते चीन हांगकांग को निगलने में लगा है।

ताइवान के बारे में ऐसा माहौल बनाया गया है मानो वह तो चीन का ही हिस्सा था। यह सच नहीं है। ताइवान में जिस जनजाति के लोग रहते थे, उनका चीन से कोई नाता नहीं था। लेकिन डच उप-निवेशवादियों ने ताइवान पर कब्जा किया और अपनी सुविधा के लिए वहां चीनी मजदूरों को बड़ी सं या में ला बसाया। यह करीब-करीब वैसा ही था जैसा बाद में तिब्बत के साथ हुआ। ताइवान ने 1949 में चीन से खूनी गृहयुद्ध के बाद अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम किया और धीरे-धीरे एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में अपनी जगह बनाई। अब चीन उसे उसी तरह लील लेना चाहता है जिस तरह उसने तिब्बत को लील लिया है। 

भारत चुप क्यों है? क्या उसे ताइवान व हांगकांग के समर्थन में आवाज नहीं उठानी चाहिए ताकि इन देशों की मदद हो और चीन को कायर चुप्पी की आड़ में अपना खेल खेलने का मौका न मिले। आज भारतीय विदेश नीति का केंद्र बिंदू चीन को हाशिए पर धकेलना होना चाहिए न कि चीन की तरफ  पीठ कर उसे हमारी सीमा पर सैन्य निर्माण का अवसर देने का। भारत के राजनीतिक हितों का संरक्षण और चीन को हर उपलब्ध मौके पर शह न देने की रणनीति आज की मांग है। इस दृष्टि से महत्वपूर्ण देशों के साथ संपर्क-संवाद की खासी कमी दिखाई देती है।-कुमार प्रशांत 
 


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