यहां लाखों का नहीं करोड़ों का खेल चल रहा है

punjabkesari.in Sunday, May 09, 2021 - 03:47 AM (IST)

कोरोना चरम पर है लेकिन राजनीति को कोई फर्क नहीं पड़ता। यू.पी. से खबर आ रही है कि वहां पंचायत चुनाव के बाद जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लाक प्रमुख बनने के लिए करोड़ों का खेल चल रहा है। 

जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव जिला पंचायत सदस्य करते हैं और यू.पी. के स्थानीय अखबारों से लेकर सोशल मीडिया में आ रहा है कि एक एक सदस्य की कीमत 50 लाख से लेकर एक करोड़ लगाई जा रही है। इसी तरह ब्लाक प्रमुख के लिए सदस्यों का रेट 3  लाख जा रहा है। कहा जा रहा है कि निर्दलीयों पर ज्यादा ध्यान है लेकिन प्रमुख  राजनीतिक दलों के निर्वाचित सदस्यों पर भी डोरे डाले जा रहे हैं। 

इस सवाल का जवाब देने से पहले 30 साल आपको पीछे लेकर जाना चाहता हूं। राजस्थान के राजसमंद जिले (तब जिला नहीं था , तब उदयपुर जिले का हिस्सा था) के देव डूंगरी गांव में अरुणा राय ने सूचना के अधिकार की लड़ाई की शुरूआत की थी। अरुणा राय आई.ए.एस. की नौकरी छोड़कर सूचना के अधिकार के लिए सड़क पर उतरी थीं, मजदूर किसान शक्ति संगठन बनाया था  और इस काम के लिए उन्हें मैगसेसे पुरस्कार भी दिया गया था।  खैर, उस समय मैं जयपुर से छपने वाले एक राष्ट्रीय अखबार में रिपोर्टर (नवभारत टाइम्स) हुआ करता था। उस दौरान जवाजा नाम के गांव में जन सुनवाई में जाने का मौका मिला था। 

अरुणा राय ने ताजा ताजा जन सुनवाई का सिलसिला शुरु किया था। यहां पूरा गांव जुटता था, सरपंच, बी.डी.ओ. (ब्लाक विकास अधिकारी), पटवारी, जूनियर इंजीनियर आदि भी इसमें शामिल होते थे। जन सुनवाई में गांव के विकास का पोस्टमार्टम किया जाता था। चौपाल भवन के नाम  पर सरपंच के घर की दूसरी मंजिल बन गई, नहर प्रधानजी  के खेत में जाकर संपन्न हो गई, दस ट्राली पत्थर की जगह 3 ट्राली पत्थर ही लगा, सीमेंट में घोटाला किया गया, मस्टररोल में उन गांव वालों को भी शामिल किया गया जो उस समय गुजरात में मजदूरी करने गए हुए थे। 

खैर, उस समय यानी 30 साल पहले राजस्थान की कुछ बड़ी पंचायतों में साल के एक लाख से ज्यादा रुपए विकास के लिए आते थे। यानी 5 साल के लिए पांच लाख रुपए-यह पैसा कैसे सरपंचों, पंचों, प्रधानों के खुद के या उनके परिवार के विकास पर खर्च होता था उसकी पोल जन सुनवाई में खोली जा रही थी। 30 साल बाद भी यह सिलसिला चल रहा है तो कोई हैरान करने वाली बात नहीं है। ओ.टी.टी. प्लेटफार्म पर एक फिल्म देखनी चाहिए। तमिल फिल्म है। नाम है मंडेला। एक छोटे से गांव की कहानी है जहां दो भाई पंचायत का चुनाव लड़ रहे हैं। गांव में कुल जितने वोट हैं उसके आधे-आधे दोनों के पास हैं। 

अचानक गांव में पेड़ के नीचे हजामत का काम करने वाला एक आदमी (जिसे गांव के लोग पगलेट, मूर्ख आदि कहा करते हैं) वोटर बन जाता है। उसका नाम है मंडेला। यह नाम भी पोस्ट आफिस में काम करने वाली महिला कर्मचारी रखती है जहां वह आदमी खाता खुलवाने जाता है। खैर, अब गांव में कौन बनेगा सरपंच इसकी चाबी मंडेला के वोट में है। 

लिहाजा दोनों उम्मीदवार मंडेला पर कपड़ों, खाना-पीना, पक्की दुकान, तमाम तरह की सुविधाओं की बारिश कर देते हैं। मंडेला दोनों को ही वोट देने का वायदा करता रहता है और सुख सुविधा का फायदा उठाता रहता है। ऐसा कुछ दिन चलता है। एक दिन पोस्ट ऑफिस की वही महिला कर्मचारी मंडेला को नैल्सन मंडेला के बारे में बताती है और वोट की कीमत बताती है। मंडेला अब एक भाई से गांव की सड़क ठीक करवाने को कहता है तो दूसरे भाई से स्कूल में नए कमरे बनाने को।

एक भाई से शौचालय बनवाने को कहता है तो दूसरे भाई से बिजली के खंभे लगवाने को। अब सरपंची के लिए लड़ रहे दोनों भाई मंडेला के वोट की पूरे गांव के सामने बोली लगाते हैं जो लाखों से शुरू होकर करोड़ रुपए पार कर जाती है। दोनों भाई जानते हैं कि मंडेला पर एक दो करोड़ रुपए खर्च हो भी गए तो सौदा सस्ता ही है क्योंकि खान  खोलने वाली कंपनी तो 30 करोड़ रुपए देने को तैयार है। 

यही हाल शायद यू.पी. के जिला पंचायत अध्यक्ष बनने के लिए पंचायत सदस्यों को एक करोड़ रुपए देने से जुड़ा है। एक करोड़ दे भी दिया तो क्यों पांच साल तक के लिए इससे कई गुना ज्यादा पैसा विकास फंड के नाम पर आएगा जो एक करोड़ रुपए की भरपाई आसानी से कर देगा। अब मंडेला फिल्म में तो जब मंडेला के एक वोट पर एक करोड़ रुपए की बोली लगती है तो वह समझता है कि उसके वोट की कीमत क्या है। मंडेला के आगे-पीछे कोई नहीं है और वह अपने वोट के बदले गांव के विकास की शर्तें लगाता है। 

खैर , यह तो एक फिल्म थी। निर्माता को हैप्पी एंडिंग करनी थी सो कर दी लेकिन हकीकत में अरुणा राय की जन सुनवाई की हैप्पी एंङ्क्षडग हुई होती तो आज यू.पी. में एक वोट के लिए एक करोड़ देने की खबरें सामने  नहीं आतीं। (बात सिर्फ यू.पी. की नहीं है पूरे देश की है। बात सिर्फ पंचायत की नहीं है। विधायक से लेकर सांसद तक यही कहानी है।) 

दरअसल गांव की चौधराहट कोई छोडऩा नहीं चाहता। कहीं पैसा है तो कहीं रुतबा। तो कहीं सरपंच प्रधानी से होते हुए ही विधायकी और फिर संसद तक का रास्ता जाता है। अंत में तो यही कहा जा सकता है कि जब पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हो तो क्या संसद क्या विधानसभा और क्या गांव की चौपाल का रोना रोया जाए।-विजय विद्रोही


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