‘केन्द्र और राज्यों के बीच गड़बड़ा रहा है नाजुक संतुलन’

punjabkesari.in Thursday, Mar 04, 2021 - 03:18 AM (IST)

ये विडम्बना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी संविधान की भावना के अनुसार राज्यों के अधिकारों के लिए सबसे मुखर होकर वकालत करते थे। वह अपने मामलों के प्रबंधन के लिए राज्यों को अधिक अधिकार और विवेक की मांग करते थे। 

मोदी राज्यों के लिए अधिक से अधिक राजकोषीय स्वायत्तता के लिए कड़ी मेहनत कर रहे थे। उस समय भारत सरकार की केंद्रीय स्कीमों के आलोचक थे और योजना आयोग के समक्ष ये तर्क दे रहे थे कि राज्यों को एक आकार में फिट करना अनुचित था। 2014 में प्रधानमंत्री के रूप में पद ग्रहण करने पर भी उन्होंने इस विश्वास को कायम रखा। मोदी ने केंद्रीय योजना आयोग को नीति आयोग में बदल डाला क्योंकि राज्य केंद्र के मात्र उपकरण नहीं बनना चाहते थे। 

उनकी सरकार ने अपनी नीतिगत कार्रवाइयों के माध्यम से सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने की बजाय केंद्र-राज्य संबंधों को केंद्र की ओर मजबूती से झुकाने के लिए सावधानीपूर्वक पैंतरेबाजी की। ये सब देश के संघीय ढांचे की प्रकृति और विशेषता को फिर से लाने के लिए राजकोषीय, प्रशासनिक और संस्थागत उपायों के मिश्रण और माध्यम से किया जा रहा है। हमारा संविधान केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सैंट्रल और स्टेट लिस्ट में क्षेत्रों को स्पष्ट रूप में बांटते हुए एक बढिय़ा संतुलन प्रदान करता है। समवर्ती सूची मध्य मार्ग थी, जहां केन्द्र और राज्य शक्तियां बांटते हैं। यह लिस्ट केंद्र हड़पना चाहता है और स्टेट लिस्ट को भी अपनी जागीर बनाने का प्रयास कर रहा है। 

विवादास्पद कृषि कानून एक नवीनतम उदाहरण है जहां केंद्र ने अपनी इच्छा एक ऐसे विषय पर लगाने की मांग की है जिसका राज्यों के साथ अधिक संबंध था। अध्यादेश आने और बाद में कानून पारित करने से पहले केन्द्र ने राज्यों से इस मुद्दे पर परामर्श नहीं किया। उसने कोई आम सहमति बनाने का भी प्रयास नहीं किया। केन्द्र सरकार ने जी.एस.टी. कानून के तहत राज्यों से महत्वपूर्ण वित्तीय शक्तियों और संसाधनों को छीन लिया है। केंद्र राज्यों को धन की बकाया राशि को हस्तांतरित करने में भी विफल ही रहा है और राज्यों से अपने पैसे उधार लेने के लिए कह रहा है। वित्त आयोग की सिफारिशों के बावजूद करों के विभाजय पूल में राज्यों की हिस्सेदारी कम हुई। 

इसी तरह बतौर मुख्यमंत्री मोदी ‘वन साइज फिट्स ऑल’ केन्द्रीय स्कीमों की प्रक्रिया के खिलाफ अपने आपको व्यक्त करते रहे। केन्द्र में उनकी सरकार ने और ज्यादा ‘उज्जवला’, ‘पी.एम. किसान’, ‘स्वच्छ भारत’ तथा ‘आयुष्मान भारत’ जैसी योजनाओं को आगे बढ़ाया है। कई मायनों में उनकी सरकार ने प्रधानमंत्री की निजी छवि का निर्माण करने के लिए पिछले सभी रिकार्डों को तोड़ डाला है।

वास्तव में सरकार के दूसरे कार्यकाल में केंद्रीयकरण के लिए और भी अधिक आक्रामक प्रयास हुए हैं। सरकार द्वारा ‘एक देश-एक ही सब कुछ’ घोषित करने के इरादे ने सहकारी संघवाद की अवधारणा को आगे बढ़ाया है। भारत जैसे बड़े राष्ट्र के लिए जहां पर कई विविधताएं हैं, देश भर में सभी नियमों को लागू करना या थोपना अनुचित और अन्यायपूर्ण है। हर क्षेत्र की जरूरतें और मांगें अलग-अलग होती हैं। 

मिसाल के लिए केन्द्रीय न्यूनतम नौकरी की गारंटी योजना के तहत नौकरियों की मांग महाराष्ट्र और पंजाब जैसे राज्यों की तुलना में बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अलग होगी। यहां तक कि विवादास्पद कृषि कानूनों को कुछ राज्यों के किसानों द्वारा लाभकारी माना जा रहा है और यह किसी भी तरह से प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाल सकते। मगर ज्यादा अनाज पैदा करने वाले राज्यों के किसानों का यह मानना है कि ये कानून उनको तबाह कर देंगे। कृषि कानूनों द्वारा यदि लाखों की गिनती में किसान बहुत ज्यादा आक्रोशित नजर आ रहे हैं तो उन्हें कुछ समय के लिए छूट देनी चाहिए या इस मुद्दे को हल करने के लिए संबंधित राज्यों पर छोड़ देना चाहिए। सरकार को किसी ऐसे मुद्दे पर निर्णय लेने के विकल्प पर विचार करना चाहिए जो अनिवार्य रूप से स्टेट लिस्ट में है। 

पंजाब के मुख्यमंत्री कै. अमरेन्द्र सिंह सहित कुछ मुख्यमंत्री राज्यों को कमजोर करने के लिए बढ़े हुए प्रयास की ओर इशारा कर रहे हैं। महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए उन्हें साथ नहीं लिया गया है। जाहिर तौर पर केन्द्र और राज्यों के बीच नाजुक संतुलन गड़बड़ा रहा है। यह संतुलन बहाल करने का समय है।-विपिन पब्बी


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