भारत में प्रैस की आजादी पर संकट नजर आता है
punjabkesari.in Tuesday, Nov 16, 2021 - 04:41 AM (IST)
प्रथम प्रैस आयोग ने भारत में प्रैस की स्वतंत्रता की रक्षा करने और पत्रकारिता में उच्च आदर्श स्थापित करने के उद्देश्य से एक प्रैस परिषद की कल्पना की थी। परिणामस्वरूप, भारत में 4 जुलाई, 1966 को प्रैस परिषद की स्थापना हुई, जिसने 16 नवम्बर, 1966 से अपना औपचारिक कामकाज शुरू किया। तब से प्रतिवर्ष 16 नवम्बर को ‘राष्ट्रीय प्रैस दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
आज विश्व के लगभग 50 देशों में प्रैस या मीडिया परिषद है। यह दिवस प्रैस की स्वतंत्रता और जिम्मेदारियों की ओर हमारा ध्यान आकॢषत करता है। यह सर्वविदित है कि भारत में प्रैस ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई पत्रकारों, लेखकों, कवियों और रचनाकारों ने कलम और कागज के माध्यम से आजादी की आग को घी-तेल देने का काम किया।
मीडिया सूचना स्रोत के रूप में खबरें पहुंचाने का काम करता है तो हमारा मनोरंजन भी करता है। मीडिया जहां संचार का साधन है, तो परिवर्तन का वाहक भी है। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में निरंतर हो रही पत्रकारों की हत्या, मीडिया चैनलों के प्रसारण पर लगाई जा रही बंदिशें व कलमकारों के मुंह पर आए दिन स्याही पोतने जैसी घटनाओं ने प्रैस की आजादी को संकट के घेरे में ला दिया है। इंटरनैशनल फैडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स (आई.एफ.जे.) के सर्वे के मुताबिक वर्ष 2016 में पूरी दुनिया में 122 पत्रकार और मीडियाकर्मी मारे गए, जिनमें भारत में भी 6 शामिल हैं। आज ऐसा कोई सच्चा पत्रकार नहीं होगा जिसे आए दिन मारने व डराने की धमकी नहीं मिलती होगी।
प्रैस की आजादी को लेकर आज कई सवाल उठ रहे हैं। पत्रकार और पत्रकारिता के बारे में आज आमजन की राय क्या है? क्या भारत में पत्रकारिता एक नया मोड़ ले रही है? क्या सरकार प्रैस की आजादी पर पहरा लगाने का प्रयास कर रही है? क्या बेखौफ होकर सच की आवाज को उठाना लोकतंत्र में ‘आ बैल मुझे मार’ अर्थात खुद संकट को आमंत्रित करना है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज हर किसी के मन में उठ रहे हैं।
हाल के दिनों में कथित रूप से सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने वाले लोगों पर हमले तेज हुए हैं। इसके सबसे ज्यादा शिकार ईमानदार पत्रकार व सच्चे समाजसेवी रहे हैं। यही वजह है कि वल्र्ड प्रैस फ्रीडम इंडैक्स में भारत तीन पायदान खिसक कर 136वें नंबर पर आ गया है। यानी भारत में प्रैस की आजादी पर बहुत संकट दिखाई पड़ता है। यूं तो सत्ता और मीडिया में छत्तीस का आंकड़ा रहा है लेकिन कई बार शक्तिशाली सत्ताएं मीडिया के दमन से भी परहेज नहीं करतीं। दूसरी बात यह कि कई बार मीडिया भी अपने मूल चरित्र से इतर कुछ लाभ के लिए सत्ता और बाजार के हाथों की कठपुतली बन जाता है।
इन सब के बावजूद एक तबका ऐसा है जो आज भी सरकार की मान्यता को खारिज करता है और मीडिया की आजादी के लिए प्रतिबद्ध है। सवाल उठता है कि क्या मीडिया पर युक्तियुक्त प्रतिबंध मतलब लोगों के मौलिक अधिकार का हनन है? क्या यह स्वतंत्रता के विचार की मान्यता के खिलाफ है? क्या यह आपातकाल दो का संकट है? इस तरह मूल सवाल यही है कि वर्तमान में मीडिया का चाल, चरित्र और आचरण क्या और क्यों है तथा उस पर सरकार के नियंत्रण की कोशिश कितनी जायज है? मिशन से प्रोफैशन की ओर बढ़ते मीडिया की संकल्पना क्या बाजारवाद की ओर इशारा करती है?
एडविन वर्क ने मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ा गया है। यानी प्रैस की आजादी मौलिक अधिकार के अंतर्गत आती है। फिर भी सरकार इस पर प्रतिबंध क्यों चाहती है? इसके कुछ कारण इस प्रकार हैं-सरकार का निरंकुश चरित्र, मीडिया की अतिसक्रियता, बाजार का बढ़ता दबाव, नागरिक अधिकारों को कमजोर करने की साजिश और सरकार द्वारा प्रश्नों से परे जाने की चाहत आदि। सरकार चाहे लोकशाही हो या राजशाही, मूल में अधिकारवादी ही होती है। इसलिए सरकार नहीं चाहती कि कोई उसे कठघरे में खड़ा करे। जब भी केंद्र में बहुमत की सरकार आती है, तब प्रैस की आजादी पर अंकुश लगना प्रारंभ हो जाता है। 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आधुनिक समय में मीडिया पर प्रलोभन और धन कमाने की चाहत सवार है। खबरों व डिबेट्स के नाम पर फेक न्यूज का चलन इस बात को पुख्ता करता है। मीडिया में आम आदमी की समस्याओं से इतर अनुपयोगी रियलिटी शो संचालित होने लग गए हैं। पत्रकारिता की जनहितकारी भावनाओं को आहत किया जा रहा है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि मीडिया की स्वतंत्रता का मतलब स्वच्छंदता कदापि नहीं है। समाचार के माध्यम से कुछ भी परोस कर देश की जनता का ध्यान गलत दिशा में ले जाना कतई स्वीकार्य नहीं है। मीडिया की अतिसक्रियता लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो रही है। निष्पक्ष पत्रकार पार्टी के एजैंट बन रहे हैं। आदर्श और ध्येयवादी पत्रकारिता धूमिल होती जा रही है व पीत पत्रकारिता का पीला रंग तथाकथित पत्रकारों पर चढऩे लगा है। आज मीडिया की दिशा और स्थिति पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।-देवेन्द्रराज सुथार
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