भारत में महिलाओं की स्थिति आज भी ‘दयनीय’ क्यों

punjabkesari.in Wednesday, Jan 13, 2016 - 11:51 PM (IST)

‘‘आह, मेरे कंगाल भारत!... कितने खेद की बात है! जिस देश की पुरुष आबादी इतनी निर्दयी, धर्मविहीन एवं नेकी और बदी के अंतर को भी न समझ पाने की हद तक अज्ञानता की शिकार है तथा न्याय एवं निष्पक्षता की कोई चिंता नहीं करती; जिसके लिए धर्म के नाम पर कर्मकांड करना ही मुख्य धंधा बन चुका है—ऐसे देश में लड़कियों का जन्म नहीं होना चाहिए।’’ यह व्यथा 19वीं शताब्दी में प्रसिद्ध समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने व्यक्त की थी। क्या तब से अब तक स्थितियों में कोई बदलाव आया है?

गत वर्ष मुझे कुछ घंटे दुबई हवाई अड्डे पर बिताने का मौका मिला। जब मैं प्रतीक्षालय में बैठी थी और यात्रियों का अवलोकन कर रही थी तो एक बात अचानक मेरे दिमाग में कौंध गई कि अकेले सफर करने वाली औरतों की संख्या बहुत कम थी। मैंने इसका मुम्बई के साथ मुकाबला किया जहां लगभग सभी औरतें किसी समूह का अंग बन कर यात्रा कर रही होती हैं। वैसे ही यह समूह अधिकतर मामलों में उनके परिजनों का ही होता है। चूंकि दुबई एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है और वहां आने वाली महिलाएं भी भारतीय मानकों की दृष्टि से काफी सम्पन्न होती हैं, उसके बावजूद वहां मुश्किल से ही कोई अकेली औरत थी, वे पुरुष यात्रियों की तुलना में बहुत कम मात्रा में थीं। 
 
आस्ट्रेलिया में बसे हुए एक भारतीय मित्र ने बहुत निराशापूर्ण ढंग से मेरे साथ यह व्यथा सांझी की कि जब उसकी जवान हो रही बेटी ने स्टडी टूर पर भारत जाने का इरादा व्यक्त किया तो  परिवार को यह कितना अटपटा लगा था, हालांकि आस्ट्रेलिया में अधिकतर विद्यार्थी (जिनमें लड़कियां और लड़के दोनों होते हैं) हाई स्कूल की पढ़ाई करने के बाद विदेश यात्रा पर निकल जाते हैं। विदेश भ्रमण करने और वहां की संस्कृति को आत्मसात करने के लिए वे कुछ समय तक यात्राओं पर रहते हैं। यह बात उन्हें वयस्कों के रूप में दुनिया में सफलता सहित विचरण हेतु तैयार करने में बहुत सहायक सिद्ध होती है। 
 
मेरे मित्र ने अपनी बेटी के मुंह से जब भारत जाने की बात सुनी तो मारे भय के उसका मुंह खुला का खुला रह गया। उसने बेटी को बहुत मनाने की कोशिश की और कहा कि जिस भी देश में वह जाना चाहे उसे भेज दिया जाएगा लेकिन भारत में नहीं। उसने कहा, ‘‘मेरी मातृभूमि नारी के लिए सुरक्षित नहीं रह गई है।’’
 
हम भारतीय महिलाएं किसी न किसी तरह खुद को घटिया समझने की आदी हो गई हैं। हमें ऐसी निर्लज्ज छनालों की दृष्टि से देखा जाता है जिनको भारतीय जीवन मूल्यों की ध्वजवाहक बने रहने के लिए लगातार संस्कार दिए जाने की जरूरत होती है। इस देश में हमारे जिंदा रहने की शर्त ही यह है कि हमें इस तरह का व्यवहार बर्दाश्त करना पड़ता है। यदि हम प्रोफैशनल के तौर पर जीवन व्यतीत करती हैं, अपनी मर्जी के अनुसार अपने पेशे का चयन करती हैं और अपने फैसले लेती हैं तो बहुत ‘बोल्ड’ होने के लिए हमारी प्रशंसा की जाती है। 
 
प्रतिवर्ष प्रोफैशनल क्षेत्र में कदम रखने वाली हजारों युवतियों को समाज द्वारा शिक्षा दी जाती है कि उन्होंने तब तक केवल उचित समय की ताक में रहना है जब तक उनका घर नहीं बस जाता। 10 में से 9 औरतों के बारे में यही समझा जाता है कि वे बस किसी मर्द की ही तलाश कर रही हैं।
 
बाम्बे हाईकोर्ट के एक जज ने एक मुद्दई को यह कहते हुए आधुनिक पहनावे को ‘बलात्कार को बुलावा देने’ का उलाहना देने की अनुमति दे दी कि यह आम आदमी का दृष्टिकोण है। हालांकि इस अदालत ने यह स्पष्ट नहीं किया कि ‘आम औरत’ का दृष्टिकोण क्या है? हरियाणा के एक पूरे के पूरे गांव ने लड़कियों को स्कूल भेजना केवल इसलिए बंद कर दिया कि उन्हें पड़ोसी लड़कों के हाथों परेशानी झेलनी पड़ती थी। किसी ने भी इन लड़कों को सार्वजनिक रूप में शॄमदा करने या उनका जलूस निकालने की बात नहीं की और न ही सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था तक उनकी पहुंच को रोकने का प्रयास किया। 
 
यह एक तथ्य है कि किसी समुदाय की खुशहाली में महिलाओं की भागीदारी की केंद्रीय भूमिका होती है। इसके चलते कृषि वृद्धि के क्षेत्र में विकास को समॢपत संगठन ने ग्राम सभा में महिलाओं की 50 प्रतिशत भागीदारी को अनिवार्य करार दे दिया। जो परिवार ग्राम सभा में शामिल हुए, केवल वे ही विकास सहायता के हकदार बने। 
 
उत्तरी भारत के मुख्य तौर पर मध्य प्रदेश और राजस्थान के क्षेत्र में औरतों को सदस्यता तो काफी संख्या में प्रदान की गई लेकिन उन्हें ग्राम सभा की मीटिंगों में बैठने की अनुमति नहीं थी क्योंकि पुरुषों के साथ घुलना-मिलना उनकी संस्कृति के विरुद्ध था।अध्ययनों से यह खुलासा हुआ है कि दक्षिण एशिया अभी भी दुनिया भर में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक स्थानों में से एक है। 
 
भारत भी इस मामले में अन्य दक्षिण एशियाई देशों से पीछे नहीं है। जैसे-जैसे महिलाओं की आकांक्षाएं बढ़ती जा रही हैं और वे समाज में अपना यथा योग्य स्थान ग्रहण करने के प्रयास कर रही हैं, जैसे-जैसे वे देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देने के लिए अग्रसर हो रही हैं, वैसे-वैसे भारतीय समाज का लगभग प्रत्येक अंग उनके रास्ते में अवरोध खड़े करने के भरसक प्रयासों में जुटा हुआ है।
 
शताब्दियों से भारत में लड़कियों को घटिया समझा जाता है और उन्हें समाज तथा अपने अभिभावकों पर बोझ के रूप में देखा जाता है। उन्हें केवल बच्चे पैदा करने और उनकी परवरिश करने वाली मशीनों के रूप में ही देखा जाता है। उनके प्रति इससे बेहतर दृष्टिकोण शायद ही कभी देखने में आता हो। 
 
भारत में अभी भी कई ऐसे मंदिर हैं जहां महिलाओं का प्रवेश वॢजत है, अभी भी ऐसे कर्मकांड जारी हैं जिन्हें केवल पुरुष ही अंजाम दे सकते हैं। मुस्लिम समाज में तीन बार तलाक कहने के अति अन्यायपूर्ण रिवाज को मौलवी वर्ग ही जारी रखे हुए है। देश में महिलाओं की स्थिति समूचे तौर पर उनकी हैसियत (स्टेटस) को ही प्रतिङ्क्षबबित करती है। बेशक ऊपर से भारत की छवि में कितने भी रंग क्यों न भरे जा रहे हों, वास्तविक अर्थों में विभिन्न सूचकांकों के मामले में इसकी विश्व रैंकिंग पहले की तरह ही आज भी निराशाजनक है।
 
विश्व की महाशक्तियों में से एक होने के दावों के बावजूद मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से भारत बिल्कुल निचले स्तरों के आसपास ही मंडरा रहा है जहां पाकिस्तान और ईरान जैसे देश भी उसके साथ मुकाबलेबाजी कर रहे हैं। जब हमारी आमदनियां बढ़ रही हैं और जी.डी.पी. की विकास दर विश्व की सबसे ऊंची विकास दरों में से एक है तो इसके बावजूद ऐसी स्थिति क्यों है? 
 
यदि हम आॢथक रूप में आगे बढ़ रहे हैं तो विश्व में हमारी सर्वांगीण हैसियत के रूप में यह तथ्य प्रतिङ्क्षबबित क्यों नहीं होना चाहिए? आज भी हमारे देश की जच्चा-बच्चा मृत्यु दर खौफनाक हद तक ऊंची क्यों है? जब सफाई व्यवस्था और व्यक्ति स्वच्छता की बात चलती है तो हम खुद को दुनिया भर के फिसड्डी देशों में घिरा हुआ क्यों पाते हैं? देश की विशाल भूगौलिक पट्टियों में बच्चे जन्म से ही कुपोषण के शिकार होते हैं क्योंकि महिलाओं को गर्भवती होने के बावजूद भी पौष्टिक खुराक अथवा डाक्टरी तवज्जो की हकदार नहीं समझा जाता।
 
क्या केवल आॢथक समृद्धि ही हमारे देश के विकास के रास्ते के इन अवरोधों पर काबू पा सकेगी? हम सदा अपनी संस्कृति और धरोहर के बारे में बहुत गर्व से दावे करते हैं। इस धरोहर का एक कुंजीवत पहलू है महिलाओं की हैसियत। हम ऐसी संस्कृति पर किस मुंह से गर्व कर सकते हैं जिसमें आधी आबादी को जन्म से मौत तक स्थायी रूप में घटिया समझा जाता हो।
 
हम अपनी तकनीकी उपलब्धियों का डंका पीटते नहीं थकते और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट हासिल करने के सपने संजोए हुए हैं लेकिन हमारे देश के कई क्षेत्रों में तो अभी तक मासिक धर्म के दिनों में महिलाओं को गांवों से बाहर रहना पड़ता है। आज के दौर में इस स्थिति का जारी रहना केवल यही दिखाता है कि हमारे समाज और राजनीतिक वर्ग में आधुनिकीकरण के प्रति प्रतिबद्धता शर्मनाक हद तक गैर-हाजिर है। औरतों के प्रति हमारी कुंठाएं इतनी गहरी हैं कि अक्सर ऐसा आभास होता है कि इनको कभी बदल पाना ही असंभव है। 
 

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