अध्यक्ष तेजी से सदन का ‘स्वामी’ बनता जा रहा है

punjabkesari.in Wednesday, Jul 22, 2020 - 03:37 AM (IST)

दोगलापन या पक्षपातपूर्ण। लगभग एक सप्ताह से राजस्थान में चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम के बारे में हर कोई अटकल ही लगा रहा है। इस की शुरूआत राजस्थान के उपमुख्यमंत्री और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट और उनके समर्थक 18 विधायकों द्वारा मुख्यमंत्री गहलोत के विरुद्ध विद्रोह करने के बाद उन्हें इस सप्ताह निलंबित किए जाने के साथ हुई। 

मुद्दा यह नहीं है कि पायलट कांग्रेस में ही रहते हैं या दल बदल कर भाजपा में जाते हैं या अपनी राजनीतिक पार्टी बनाते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि इस घटना ने अध्यक्ष की भूमिका पर पुन: प्रश्न लगा दिया है जो दल बदल रोधी कानून के अंतर्गत अपनी शक्तियों के प्रयोग, दुरुपयोग और कुप्रयोग के लिए कुख्यात हैं। गत वर्षों में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां पर अध्यक्ष ने अपने विवेक से राजनीतिक निर्णयों से संकट दूर किए हैं। दल बदल रोधी कानून के अंतर्गत अध्यक्षको किसी विधायक की अयोग्यता के बारे में निर्णय करने की शक्तियां दी गई हैं और इसके अंतर्गत अध्यक्ष को अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करने की गुंजाइशदी गई है जिसके चलते वे राजनीतिक निर्णय लेते हैं और दल बदल रोधी कानून की भावना को नजरंदाज करते हैं। 

यह सच है कि 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा विपक्ष शासित राज्यों में भगवा लहर लाना चाहती है और इसके लिए उसने विपक्ष शासित राज्यों की सरकारों को भी गिराया है। कुछ माह पूर्व मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में 22 कांग्रेसी विधायकों ने विद्रोह किया जिनमें 6 मंत्री भी शामिल थे और उन्होंने अपना त्यागपत्र मध्य प्रदेश के अध्यक्ष को भेजा। ये विधायक बेंगलुरू में एक रिसोर्ट में रह रहे थे किंतु प्रजापति ने उनका त्यागपत्र तब स्वीकार किया जब उच्चतम न्यायालय ने कमलनाथ सरकार को सदन में बहुमत साबित करने का आदेश दिया। 

जुलाई 2019 में कर्नाटक विधान सभा अध्यक्ष रमेश कुमार ने कांग्रेस के 11 और जद एस के 3 विधायकों को अयोग्य घोषित किया। इन विधायकों के त्यागपत्र उनके पास लंबित पड़े थे और उनके त्यागपत्र के कारण कुमारस्वामी सरकार गिर गई थी। इन विधायकों को विधानसभा के शेष कार्यकाल के लिए अयोग्य घोषित किया और उन्हें विधानसभा के शेष कार्यकाल तक चुनाव लडऩे की अनुमति भी नंही दी गई। तथापि इन विधायकों को उच्चतम न्यायालय से राहत मिली। उच्चतम न्यायालय ने अध्यक्ष के इन विधायकों को अयोग्य घोषित करने के निर्णय को वैध ठहराया किंतु उन्हें उपचुनाव में भाग लेने की अनुमति दी और इन विधायकों ने भाजपा उम्मीदवार के रूप में ये चुनाव लड़े। इन चुनावों के बाद इनमें से कई विधायकों को भाजपा सरकार में मंत्री बनाया गया। 

वर्ष 2015-16 में भाजपा के अरुणाचल विधान सभा में केवल 11 विधायक थे और उसे दो निर्दलीय विधायकों का समर्थन प्राप्त था। जबकि 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के 47 विधायक थे और भाजपा ने कांग्रेस के 21 विधायकों से दल बदल कराया। विधानसभा अध्यक्ष ने 14 बागी विधायकों को अयोग्य घोषित किया किंतु भाजपा ने एक सामुदायिक केन्द्र में एक समानान्तर सत्र बुलाया जहां पर कांग्रेस के बागी विधायकों और भाजपा विधायकों ने अध्यक्ष को उनके पद से हटा दिया। गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने उनकी अयोग्यता को वैध ठहराया किंतु उच्चतम न्यायालय ने उनकी अयोग्यता के बारे में निर्णय देने से इंकार कर दिया किंतु जुलाई 2016 में टुकी सरकार को बहाल कर दिया। 

हमारे देश में यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन मंत्री कब अध्यक्ष बन जाए और कौन अध्यक्ष कब मंत्री बन जाए। इंदिरा गांधी के शासन में गुरदयाल सिंह ढिल्लों दो बार लोकसभा अध्यक्ष रहे और फिर 1975 में केन्द्रीय मंत्री बने। संप्रग-1 में मीरा कुमार कांग्रेस मंत्री थीं और संप्रग-2 में वे लोकसभा अध्यक्ष बन गईं। इससे पूर्व शिवराज पाटिल, संगमा, बलराम जाखड़, लोकसभा अध्यक्ष और केन्द्रीय मंत्री भी रहे। अध्यक्ष की स्थिति विरोधाभासी है। वह लोकसभा या विधानसभा का चुनाव पार्टी के टिकट पर लड़ता है और फिर भी उससे अपेक्षा की जाती है कि वह बिना पक्षपात के कार्य करे और वह भी तब जब अगला चुनाव लडऩे के लिए उसे टिकट के लिए पार्टी के पास जाना पड़ता है। एक पूर्व लोकसभा अध्यक्ष के अनुसार हम पार्टी के टिकट पर चुने जाते हैं और पार्टी के पैसे से चुने जाते हैं। हम स्वतंत्रता का दावा कैसे कर सकते हैं। यदि हम अध्यक्ष बनने के बाद त्यागपत्र भी दे दें तो अगली बार चुनाव लडऩे के लिए टिकट हेतु हमें फिर से पार्टी के पास जाना पड़ताहै। 

अध्यक्ष वास्तव में सदन का सेवक होता है किंतु वह तेजी से सदन का स्वामी बनता जा रहा है और इसका कारण प्रक्रिया के नियम हैं। विधानसभाओं में विधायी कार्यों के गिरते स्तर के चलते अध्यक्ष की भूमिका और शक्तियां बहस का विषय बन गए हैं और उन्हें शीघ्र सुपरिभाषित किया जाना चाहिए। आगे की राह क्या हो। सदन की सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए अध्यक्ष की शक्तियों पर पुर्निवचार करने की आवश्यकता है। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अध्यक्ष सदन का सेवक है न कि इसका स्वामी। समय आ गया है कि अध्यक्ष निष्पक्षता से कार्य करे और राजस्थान की तरह तूफान खड़ा न करे।-पूनम आई कौशिश
 


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