सवाल यह नहीं कि किसने पहला ‘पत्थर’ मारा

punjabkesari.in Sunday, Mar 01, 2020 - 03:59 AM (IST)

हिंसा जिसने उत्तर-पूर्वी दिल्ली में 24 फरवरी को शांति को तहस-नहस कर दिया और उसके बाद 38 जिंदगियां ले ली थीं, पूर्णतया उम्मीद के मुताबिक थी। एक ही चीज जो इसके लिए तैयार न थी वह थी दिल्ली पुलिस। ‘द हिन्दू’ के 25 फरवरी के अंक के अनुसार, यह हिंसा करीब 100 पुलिस कर्मियों की उपस्थिति में फैली जिसने हालात को काबू करने में तत्काल कार्रवाई नहीं की। यहां यह बात महत्वपूर्ण नहीं कि सबसे पहले किसने भड़काया? किसने पहला पत्थर मारा? यह भी अहम नहीं कि किसने पहले बंदूक उठाई? 

महत्वपूर्ण बात यह है कि जो लड़ाई सरकार तथा सी.ए.ए. विरोधी प्रदर्शनकारियों में चल रही थी वह गलियों तक फैल गई तथा इसके बाद यह सी.ए.ए. विरोधी प्रदर्शनकारियों तथा सी.ए.ए. समर्थित प्रदर्शनकारियों के बीच में युद्ध का रूप ले गई। 11 दिसम्बर 2019 से ही देश के विभिन्न हिस्सों में काफी कुछ घट चुका था। शाहीन बाग तथा अन्य शहरों व कस्बों में प्रदर्शन तथा रैलियां शुरू हो चुकी थीं। चुनाव के दौरान अभद्र बोलने की भाषण कला तथा फिर अदालतों में याचिकाएं चल रही थीं। 23 फरवरी को एक भाजपा नेता ने दिल्ली पुलिस को चेतावनी दी, जिसमें कहा गया, ‘‘दिल्ली पुलिस को 3 दिन का अल्टीमेटम दिया जाता है कि वह जाफराबाद तथा चांद बाग की गलियों को साफ कर दे। इसके बाद कुछ व्याख्या करने की जरूरत नहीं है और इसके बाद कुछ भी सुना नहीं जाएगा, मात्र 3 दिन।’’ 

क्या यह पूर्व नियोजित था?
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया (इसके 40 प्रतिशत छात्र गैर-मुस्लिम हैं) तथा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवॢसटी के सैंकड़ों छात्रों को बुरी तरह से पीटा गया था, के साक्ष्यों के बारे में एक नया प्रमाण सामने आया। दिल्ली पुलिस तथा उत्तर प्रदेश पुलिस (यू.पी. में ही केवल 23 लोगों की फायरिंग में मौत हुई थी) की ज्यादतियों की तरफ उंगलियां उठाई गई थीं। सैंकड़ों लोग जिनमें ज्यादातर छात्र थे, को गिरफ्तार किया गया। जैसे-जैसे दिन गुजरे, अदालतों ने एफ.आई.आर. तथा पुलिस रिपोर्टों की सच्चाई पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने सार्वजनिक तौर पर मतभेद के बारे में पूछा तथा मतभेद रखने वालों पर राष्ट्र विरोधी का लेबल लगाने के खिलाफ चेतावनी दी। तब सरकार ने नाटक रचा तथा हरकत में आई जैसे कुछ हुआ ही न हो। सरकार की ओर से मात्र एक बयान नागरिकता संशोधन कानून तथा प्रस्तावित नैशनल पापुलेशन रजिस्टर को लेकर आया। यह बयान इसके हक की बजाय धमकियों जैसे प्रतीत हुए। ऐसा शक उजागर हो रहा है कि भाजपा एक योजना के तहत कार्य कर रही है। कइयों को आशंका है कि भाजपा विभिन्न विचारों वाले लोगों को चाहती है, जो उसकी स्थिति को और मजबूत करे तथा उन्हें सड़कों तक पहुंचाए। वह ध्रुवीकरण को सम्पूर्ण करना चाहती है। ऐसा विचार कठोर दिखता है मगर सत्य नहीं। सरकार जिस तरह से प्रदर्शनकारियों (केवल मुस्लिम नहीं) से निपट रही है उससे शक और गहरे हो जाते हैं। 

सी.ए.ए.-एन.पी.आर. का डर फैल रहा
सरकार का कहना है कि एन.पी.आर. एक अच्छी प्रक्रिया है तथा सी.ए.ए. राष्ट्र हित में है और दोनों ही एक-दूसरे से जुड़े हुए नहीं। यह समझ से परे है कि कुछ लोग कैसे इस तर्क को हजम कर पाएंगे। एन.पी.आर. कहीं से भी अच्छा नहीं दिखता। प्रपत्र में अनेकों शरारतपूर्ण सवाल समायोजित किए गए हैं। जहां तक सी.ए.ए. का सवाल है यह पूर्णतया भेदभावपूर्ण है और इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। सी.ए.ए. तथा एन.पी.आर. आपस में सम्मिलित हैं। एन.पी.आर. को पहले मुकम्मल किया जाएगा ताकि आम निवासियों को चिन्हित किया जा सके और जिनकी पहचान सामान्य निवासी के तौर पर नहीं होगी उन्हें ‘संदिग्ध’ के तौर पर देखा जाएगा। सैद्धांतिक रूप से संदिग्ध सभी धर्मों से संबंध रखेंगे। इस पहलू पर सी.ए.ए. आएगा।

सभी संदिग्ध लोग जोकि हिन्दू, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध या फिर पारसी हैं उन्हें नागरिकता के लिए एक साधारण आवेदन करना होगा तथा उन्हें नागरिकता प्रदान कर दी जाएगी। बाकी के रहते हुए संदिग्ध मुसलमान ही होंगे, जिन्हें सी.ए.ए. के अन्तर्गत नहीं लाया जाएगा। ऐसा डर है कि एन.पी.आर. प्रक्रिया की समाप्ति के बाद लाखों की तादाद में मुसलमान असहाय होंगे तथा फंस जाएंगे। क्या किसी ने ऐसी आशा की थी कि हजारों मुस्लिम महिलाएं तथा बच्चे जोकि ज्यादातर अपने घरों के दायरे में रहते हैं वे सड़कों तथा पार्क में उतर आएंगे और कड़ाके की सर्दी, बारिश तथा पुलिस की लाठियों का बहादुरी से मुकाबला करेंगे। उन्हें हजारों गैर-मुसलमान तथा अनेकों राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त समर्थन से उम्मीद तथा हौसला मिल रहा है। 

बेपरवाह तथा अलोकतांत्रिक
लोकसभा में बहुमत होने के चलते भाजपा अपने पक्षपातपूर्ण एजैंडे का हौसला बढ़ा रही है। अभी चुनाव 4 वर्ष की दूरी पर हैं। 2019 में भाजपा ने 6 मुस्लिम उम्मीदवारों (3 पश्चिम बंगाल में, 2 जम्मू-कश्मीर में तथा 1 लक्षद्वीप में) को अनिच्छा से मैदान में उतारा था। बाकी किसी राज्य में मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा नहीं किया और भाजपा ने इस तथ्य को छिपने नहीं दिया कि वह मुस्लिम मतदाताओं के वोटों को पाना ही नहीं चाहती। दूसरे कार्यकाल के लिए सरकार के गठन के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शृंखलाबद्ध कदम उठाए जिसने मुसलमानों में भय का माहौल पैदा किया। मुसलमानों में विश्वव्यापी यह अनुभूति है कि उनके हितों को केन्द्र सरकार सुरक्षित करना नहीं चाहती। यही अनुभूति महत्वपूर्ण है। अनुभूति कार्यों तथा प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करती है। एक लोकतांत्रिक तथा दयालु सरकार लोगों तक अपनी पहुंच बनाती है तथा उनसे विचार-विमर्श तथा संवाद स्थापित करती है। पिछले दो माह में ऐसी कोई चीज नहीं देखी गई। इसका भारत की अर्थव्यवस्था पर असर देखा जाएगा। 

पिछले कुछ महीनों के दौरान भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि को ठेस पहुंची है। हमने यूरोपियन यूनियन, यू.एस. कांग्रेस कमेटियों तथा यू.एन. इकाइयों के बयानों को देखा है। कई देशों ने अपनी चिंताओं को भारत के साथ निजी तौर पर सांझा किया है। विकसित देशों में सांसदों, निवेशकों तथा विचार निर्माताओं ने टाइम, द इकोनॉमिस्ट, द न्यूयार्क टाइम्स तथा वाल स्ट्रीट जर्नल को पढ़ा है और उनकी आलोचनाओं पर अपनी नजर दौड़ाई है। भारत एक अघोषित धर्मतंत्र के जैसा व्यवहार कर रहा है। इसे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के जैसा व्यवहार करना चाहिए। यह कोई भी पहलू अपनाए मगर इसके भारतीय लोगों, विशेष तौर पर देश की अर्थव्यवस्था के लिए गम्भीर परिणाम होंगे।-पी. चिदम्बरम


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