‘कॉनक्लेव’ से नहीं कर्मठ लोगों से हल होगी समस्या

punjabkesari.in Monday, Mar 02, 2020 - 04:20 AM (IST)

अक्सर देश के बड़े मीडिया समूह, दिल्ली में राष्ट्रीय समस्याओं पर सम्मेलनों का आयोजन करते हैं। इनमें देश और दुनिया के तमाम बड़े नेता और मशहूर विचारक भाग लेते हैं। देश की राजधानी में ऐसे सम्मेलन करना अब काफी आम बात होती जा रही है। इन सम्मेलनों में ऐसी सभी समस्याओं पर काफी आंसू बहाए जाते हैं और ऐसी भाव भंगिमा से बात रखी जाती है कि सुनने वाले यही समझें कि अगर इस वक्ता को देश चलाने का मौका मिले तो इन समस्याओं का हल जरूर निकल जाएगा जबकि हकीकत यह है कि इन वक्ताओं में से अनेक को अनेक बार सत्ता में रहने का मौका मिला और ये समस्याएं इनके सामने तब भी वैसे ही खड़ी थीं जैसे आज खड़ी हैं। 

इन नेताओं ने अपने शासनकाल में ऐसे कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठाए जिनसे देशवासियों को लगता कि वे ईमानदारी से इन समस्याओं का हल चाहते हैं। अगर उनके कार्यकाल के निर्णयों को बिना राग-द्वेष के मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिन समस्यों पर ये नेतागण आज घडिय़ाली आंसू बहा रहे हैं, उन समस्याओं की जड़ में इन नेताओं की भी अहम भूमिका रही है। पर इस सच्चाई को बेबाकी से उजागर करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं।

मजे की बात यह कि इन गिने-चुने लोगों की बात को भी जनता के सामने रखने वाले दिलदार मीडिया समूह उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। विरोधाभास यह कि प्रकाशन समूह जिन समस्याओं पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करते हैं और दावा करते हैं कि इन सम्मेलनों में इन समस्याओं के हल खोजे जा रहे हैं वे प्रकाशन समूह भी इन सम्मेलनों में सच्चाई को ज्यों का त्यों रखने वालों को नहीं बुलाते। इसलिए सरकारी सम्मेलनों की तरह यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी एक हाई प्रोफाइल जन सम्पर्क महोत्सव से ज्यादा कुछ नहीं होते। 

जनसम्पर्क की भूमिका में कई मीडिया समूह
यह बड़ी चिंता की बात है कि ज्यादातर राष्ट्रीय माने जाने वाले मीडिया समूह अब जिम्मेदार पत्रकारिता से हटकर जनसम्पर्क की पत्रकारिता करने लगे हैं। इसलिए पत्रकारिता भी अपनी धार खोती जा रही है और समस्याएं घटने की बजाय बढ़ती जा रही है। इसलिए क्षेत्रीय मीडिया समूह का प्रभाव और समाज पर पकड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में देश के सामने जो बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं उनके हल के लिए क्षेत्रीय मीडिया समूहों को एक ठोस पहल करनी चाहिए। अपने संवाददाताओं को एक व्यापक दृष्टि देकर उनसे ऐसी रिपोर्टों की मांग करनी चाहिए जो न सिर्फ समस्याओं का स्वरूप बताती हों बल्कि उनका समाधान भी। चिंता की बात यह कि आज कुछ क्षेत्रीय समाचारपत्र भी बयानों की पत्रकारिता पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। 

ऐसे अखबारों में विकास और समाधान पर खबरें कम या आधी अधूरी होती हैं और छुटभैये नेताओं के बयान ज्यादा होते हैं। इससे उन नेताओं का तो सीना फूल जाता है पर समाज को कुछ नहीं मिलता, न तो मौलिक विचार और न ही उनकी समस्याओं का हल। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब आम आदमी तक हर सूचना पहुंचे और समस्याओं के समाधान तय करने में आम आदमी की भी भावना को तरजीह दी जाए। जो मीडिया समूह इस परिप्रेक्ष्य में पत्रकारिता कर रहे हैं उनके प्रकाशनों में गहराई भी है और वजन भी। पर चिंता की बात यह कि देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसे लोग मीडिया के कारोबार में आ गए हैं जो आज तक तमाम अवैध धंधे और अनैतिक कृत्य करते आए हैं। उनका उद्देश्य मीडिया को ब्लैकमेलिंग का हथियार बनाने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जिनसे समाज के हक में किसी सार्थक पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती। 

मिसाल के तौर पर ऐसे सम्मेलनों में अगर कोई भी मंत्री या सत्तापक्ष का नेता अगर कहता है कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के लिए प्रतिबद्ध है तो क्या वे अपनी इस कथनी को वास्तविकता का रूप दे रहे हैं? ताजा उदाहरण भारत सरकार के एक सार्वजनिक प्रतिष्ठान ‘एन.एच.पी.सी. लिमिटेड’ के एक वरिष्ठ अधिकारी श्री अभय कुमार सिंह से सम्बंधित है।

उनके खिलाफ तमाम पुख्ता सबूत और शिकायतों के बावजूद उन्हें मौजूदा सरकार के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों की वजह से बिना किसी जांच के न सिर्फ दोषमुक्त किया गया बल्कि उन्हें ‘एन.एच.पी.सी. लिमिटेड’ के वरिष्ठ अधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया है। उन पर ‘एन.एच.पी.सी. लिमिटेड’ में कई अनियमितताओं के आरोप हैं जिनके चलते जहां एक ओर एन.एच.पी.सी. लिमिटेड को भारी नुक्सान उठाना पड़ा और वहीं दूसरी ओर श्री सिंह की निजी जायदाद में काफी बढ़ौतरी हुई। सोचने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए बनी सी.बी.आई. और सीवीसी भी आंखें मूंद कर बैठी रही, और बिना किसी ठोस जांच के ऐसे भ्रष्ट अधिकारी को ‘एन.एच.पी.सी. लिमिटेड’ के सर्वोच्च पद पर जाने दिया गया। 

कभी तो नपेंगे भ्रष्ट अधिकारी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब 2014 में सत्ता में आए थे, तो उन्होंने यह साफ कह दिया था कि ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ लेकिन ऐसा लगता है कि सरकारी तंत्र में कुछ भ्रष्ट अधिकारी ऐसे हैं, जो प्रधानमंत्री जी के इस नारे को झूठा साबित करने में तुले हुए हैं और ऐसे भ्रष्टाचारियों के हौसलों को बढ़ावा दे रहे हैं। लेकिन बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी! वह दिन दूर नहीं है कि जब किसी ईमानदार अधिकारी को इन भ्रष्ट अधिकारियों के बारे में पता चलेगा और वे इसे प्रधानमंत्री के संज्ञान में लाएंगे।-विनीत नारायण             


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