राज्यपाल पद की गरिमा बहाल करने की आवश्यकता

punjabkesari.in Wednesday, Jan 05, 2022 - 05:52 AM (IST)

सार्वजनिक पदों का आम धारणा से सरोकार होता है और इस पद को धारण करने वाले लोगों के कार्य चर्चा का विषय बन जाते हैं। पिछले सप्ताह एक संवैधानिक हमले में मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने अकल्पनीय कार्य किया। 

उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की यह कहकर आलोचना की कि ‘‘वे बड़े घमंड में थे’’ और कहा कि उन्होंने विवादास्पद कृषि कानूनों को लेकर प्रधानमंत्री के साथ लड़ाई की। इसके बाद उन्होंने कहा कि ‘‘गृह मंत्री शाह ने उनसे कहा कि प्रधानमंत्री का दिमाग फिर गया है।’’ बाद में वह अपनी बात से मुकर गए और कहा कि शाह ने उनसे कहा कि मेरी ङ्क्षचताओं का ध्यान रखा जाए। अनेक राज्योंं के राज्यपालों पर पक्षपात का आरोप लगाया जाता है और कहा जाता है कि वे सरकार की कठपुतली हैं। मलिक को आप एक अलग तरह का राज्यपाल कह सकते हैं, जो हमेशा विवादों में रहते हैं।  इससे भाजपा के नेता और पार्टी को हमेशा परेशानियां झेलनी पड़ी हैं और विपक्ष को उस पर निशाना साधने के लिए मौका मिला। 

पिछले चार वर्षों में चार राज्यों के राज्यपाल रहते हुए उन्होंने हमेशा विवाद पैदा किया है। पहले उन्होंने कहा कि अंबानी और आर.एस.एस. से जुड़े लोगों की फाइल स्वीकृत करने के लिए उन्हें 300 करोड़ रुपए की घूस की पेशकश की गई, जम्मू के राज्यपाल कार्य नहीं करते केवल श्रीनगर में गोल्फ खेलते और शराब पीते हैं। इसके बाद उन्होंने गोवा भाजपा सरकार में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और पटना में एक ही दिन में अनेक हत्याओं की बात कही। 

इससे पूर्व भाजपा के मेघालय के राज्यपाल तथागत राय पश्चिम बंगाल में अपनी पार्टी के विरुद्ध विवादास्पद बयानों के लिए कुख्यात रहे। पश्चिम बंगाल में भाजपा की हार के बाद उन्होंने कहा, ‘‘कूड़ा आया और अब कूड़ा जा रहा है।’’ उनका तात्पर्य तृणमूल कांग्रेस से दल-बदल कर आए नेताओं से था। किंतु मुद्दा मलिक या राय का नहीं है अपितु इससे राज्यपाल की भूमिका पर प्रश्न उठता है कि क्या वह केन्द्र के अधीनस्थ है या राज्यों के संवैधानिक प्रमुख के रूप में लोगों के विश्वास के संरक्षक हैं। क्या संवैधानिक मामलों के लिए विचारधारा कसौटी है? क्या इससे देश का संघीय ढांचा कमजोर नहीं होगा? क्या राज्यपाल के कार्यों में संतुलन, सामंजस्य और एकरूपता लाने के लिए कोई नियम हैं? क्या राज्यपाल के कार्यों के बारे में कोई दिशा-निर्देश हैं? 

दुखद तथ्य यह है कि आज हम ऐसे वातावरण में रह रहे हैं जहां पर लेन-देन का व्यवहार होता है। राज्यपाल का पद इस आधार पर निर्धारित नहीं किया जाता कि क्या कोई व्यक्ति अपनी सत्यनिष्ठा या निष्पक्षता के लिए प्रसिद्ध है, अपितु यह पद राजनीतिक दृष्टि से अलग हुए लोगों के लिए लॉलीपॉप है। आज्ञाकारी नौकरशाहों के लिए विदायगी उपहार है तथा असुविधाजनक प्रतिद्वंद्वियों के लिए एक सुविधाजनक पद। 

ऐसे राज्यपालों की संख्या आज 60 प्रतिशत से अधिक है। उसकी नियुक्ति का मानदंड यह है कि क्या वह एक चमचा बन सकता है? इस क्रम में राज्यपाल, विशेषकर विपक्ष शासित राज्यों में केन्द्र का एक सुविधाजनक औजार बन गया है, जहां पर वह परोक्ष रूप से प्रशासन चलाता है और ऐसे राज्यपाल तुच्छ राजनीति करते हैं, केन्द्र की शह पर राज्य प्रशासन में हस्तक्षेप और पक्षपात करते हैं, फाइलें मंगवाते हैं, मंत्रियों और नौकरशाहों को बुलाते हैं, राज्य सरकार के विरुद्ध बातों को बढ़ावा देते हैं और कुल मिला कर प्रत्येक कदम पर मुख्यमंत्री के लिए परेशानियां पैदा करते हैं। 

भाजपा नीत सरकार के संबंध में यह कहा जा सकता है कि वह कांग्रेस, यूनाइटिड फ्रंट और यू.पी.ए. द्वारा स्थापित परंपरा को आगे बढ़ा रही है, जहां पर राज्यपाल केन्द्र के एजैंट के रूप में कार्य करता था, जो राज्य सरकार को अस्थिर करने के लिए हमेशा तैयार रहता था या राज्यपाल अपना पद छोड़कर पुन: सक्रिय राजनीति में आ जाता था और इस तरह ‘एक बार राज्यपाल, हमेशा राज्यपाल’ की परंपरा को पलट देता था। 

आपको स्मरण होगा कि कांग्रेस के शिंदे ने 2004 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दिया और उन्हें उसी दिन आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया। दो वर्ष बाद वह पुन: सक्रिय राजनीति में आए और कांग्रेस नीत यू.पी.ए. में पहले विद्युत मंत्री बने और बाद में 2012 में गृह मंत्री बने। यही स्थिति मिजोरम में भाजपा के राज्यपाल राजशेखरन की है, जिन्होंने 2019 में त्यागपत्र दिया और अपने गृह राज्य केरल से लोकसभा का चुनाव लड़ा जहां पर भाजपा अपनी पैठ बनाना चाहती है। 

इस राजनीतिक खेल में राष्ट्रपति ने कोश्यारी, बंडारू दत्तात्रेय, तिमिलिसाई सौंदरराजन और आरिफ मोहम्मद खान को क्रमश: महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना और केरल का राज्यपाल नियुक्त किया। इनमें से 3 भाजपा के नेता हैं और खान पूर्व कांग्रेसी मंत्री हैं, जिन्होंने राजीव गांधी की सरकार से इसलिए त्यागपत्र दे दिया था कि वह शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश को पलटने के लिए कानून लाए थे और वह अच्छे मुस्लिम के भगवा मानदंड के अंतर्गत उपयुक्त लगते हैं। 

वस्तुत: राज्यपाल पदों पर अनेक नियुक्तियां इस तरह से हुईं कि उच्चतम न्यायालय को 1979 में आदेश देना पड़ा कि ‘‘राज्यपाल का पद भारत सरकार के अधीनस्थ या आज्ञाकारी पद नहीं है। वह भारत सरकार के निर्देशों को मानने के लिए बाध्य नहीं है। न ही अपने कत्र्तव्यों के निर्वहन में वह उसके प्रति उत्तरदायी है। यह एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है, जो भारत सरकार के नियंत्रणाधीन नहीं है।’’ 

इस क्रम में लगता है सभी भूल गए हैं कि राज्यपाल का असली कार्य न केवल राज्याध्यक्ष के रूप में केन्द्र का प्रतिनिधित्व करना है, अपितु राज्य की जनता की सेवा करना और केन्द्र के साथ उनके हितों के लिए संघर्ष करना है, न कि इसके उलट। उसे राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखना होता है न कि दलगत हितों को। वह राज्य की जनता के अनुरूप कदम उठाए न कि केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी की इच्छानुसार। 

संविधान में राज्यपाल को शक्ति दी गई है कि वह राज्य की निर्वाचित सरकार के निर्णयों को प्रभावित कर सकता है और इसके लिए उसे उससे परामर्श करने, चेतावनी देने और प्रोत्साहन देने का अधिकार दिया गया है। उसकी भूमिका एक मित्र, दार्शनिक और मार्ग-निर्देशक की है, जिसे असीमित विवेकाधिकार शक्तियां प्राप्त हैं। कुछ मामलों में उसे राष्ट्रपति से भी अधिक शक्तियां प्राप्त हैं। 

सरकारिया आयोग ने न केवल उच्चतम न्यायालय के आदेश का समर्थन किया, अपितु 2 महत्वपूर्ण सिफारिशें भी कीं। पहली, राज्यपाल की नियुक्ति राज्य के मुख्यमंत्री के साथ परामर्श कर की जानी चाहिए और दूसरी, आपवादिक स्थितियों और विशेष कारणों को छोड़ कर उसके 5 साल के कार्यकाल को बाधित नहीं किया जाना चाहिए। राज्यपाल एक संवैधानिक प्रहरी तथा केन्द्र और राज्य के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क होता है, न कि वह संघ सरकार का अधीनस्थ या आज्ञाकारी एजैंट। 

किंतु समय के साथ राज्यपाल की भूमिका में विकृति आती गई, जिसके चलते प्रत्येक केन्द्र सरकार ने इस पद का उपयोग, दुरुपयोग और कुरुपयोग किया है और राज्यपाल की स्थिति केन्द्र की कठपुतली की बना दी है, जिसके अंतर्गत वह हमेशा राज्य सरकार को अस्थिर करने के लिए तैयार रहते हैं और कई बार ऐसा करते समय वे संविधान की भावना को भी नजरंदाज कर देते हैं। राज्यपाल के पद को सुदृढ़ किए जाने की आवश्यकता है। वह संविधान के नीति-निर्माताओं के अनुसार अपनी भूमिका नहीं निभा रहा। राज्यपाल पद की गरिमा को बहाल किया जाना चाहिए। देश की एकता, अखंडता और राज्य की जनता के कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए राज्यपाल को विशेष भूमिका दी गई है। 

स्पष्ट है कि हमें राज्यपाल की नियुक्ति के लिए एक नई विधि खोजनी होगी। केवल राज्य सरकार से परामर्श पर्याप्त नहीं है, राज्यसभा को प्रस्तावित उम्मीदवारों की जांच करनी चाहिए और उनसे बातचीत कर उनकी नियुक्ति के संबंध में निर्णय लिया जाना चाहिए और केवल ऐसे व्यक्तियों को राज्यपाल नियुक्त किया जाए जो राजनीतिक दृष्टि से तटस्थ हों। 

क्या भारत ऐसे व्यक्तियों को संवैधानिक पदों पर आसीन कर सकता है जो राजनीतिक पुरस्कार प्राप्त करने के लिए तैयार हों। समय आ गया है कि हम राज्यपाल पद की गरिमा को बहाल करें और इसके लिए निष्पक्षता, तटस्थ्ता और संवैधानिक मूल्यों और परिपाटियों का पालन आवश्यक है। हमारे नेताओं को दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा और उन्हें तटस्थ गैर-राजनीतिक राज्यपालों की नियुक्ति करनी होगी न कि यस मैन की या नेता से राज्यपाल या राज्यपाल से नेता बने लोगों को इस पद पर नियुक्त करना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश


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