अध्यक्ष पद को राजनीति से दूर रखने की आवश्यकता

punjabkesari.in Wednesday, Aug 17, 2022 - 04:35 AM (IST)

यह विधायकों की परेड लगाने और दूसरे दलों के विधायकों को अपने दल में शामिल करने का मौसम है विशेषकर बिहार में जहां पर आज राजनीतिक क्षेत्र स्पैनिश बुल रिंग की तरह दिखाई दे रहा है। राज्य में भाजपा-जद (यू) गठबंधन सरकार के स्थान पर जद (यू)-राजद-कांग्रेस-हम आदि की महागठबंधन सरकार बन गई है और नीतीश कुमार 8वीं बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। राज्य की नई सरकार 24-25 अगस्त को बुलाए गए विधान सभा के विशेष सत्र में अपना बहुमत साबित करेगी साथ ही विधान सभा अध्यक्ष विजय सिन्हा के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव भी लाया जाएगा। 

विजय सिन्हा भाजपा के विधायक हैं और उन्होंने सरकार बदलने के साथ त्यागपत्र देने की परिपाटी का अनुसरण नहीं किया। जद (यू) की प्रवक्ता का कहना है, ‘‘अध्यक्ष को विधान सभा में बहुमत से पारित एक संकल्प द्वारा हटाया जा सकता है। भाजपा के 77 विधायक के मुकाबले हमारे पास 164 विधायक हैं अत: परिणाम स्पष्ट है।’’ मुद्दा यह नहीं है कि क्या अध्यक्ष त्यागपत्र देते हैं या उन्हें हटाया जाता है, न ही यह है कि राजनीतिक दलों ने इस पद का उपयोग किसी पार्टी कार्यकत्र्ता को पुरस्कृत करने के लिए एक लॉलीपॉप के रूप में किया है। न ही यह एक संवैधानिक पद के लिए खतरे की घंटी है। 

किंतु वह संवैधानिक व्यवस्था में इतना महत्वपूर्ण पद क्यों है? इसका मुख्य कारण यह है कि अध्यक्ष सदन, उसकी गरिमा और उसकी स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता है। अर्सकाइन मे के अनुसार, ‘‘अध्यक्ष के बिना सदन का कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं है।’’ उसे यह सुनिश्चित करना है कि विपक्ष अपनी बात कह सके और सरकार अपने निर्णय ले सके। इसलिए विनिर्णय और निर्णय सत्तारूढ़ पार्टी को बना या बिगाड़ सकते हैं। उनका निर्णायक मत किसी भी पक्ष में संतुलन को झुका सकता है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह दलीय राजनीति से ऊपर रहे और सत्तारूढ़ दल का प्रतिनिधि न बने। 

इस संबंध में चन्द्रशेखर द्वारा पार्टी में विभाजन उल्लेखनीय है जिसके चलते वी.पी. सिंह की सरकार गिरी थी। इसके अलावा उसके पास दल-बदल रोधी अधिनियम का प्रयोग करने, दुरुपयोग करने और कुप्रयोग करने की शक्तियां हैं  जिसके अंतर्गत उसे इस बात का निर्णय करने की शक्ति प्राप्त है कि क्या कोई प्रतिनिधि अयोग्य हो गया है। सदस्यों द्वारा दल बदल करने के बाद अध्यक्ष को अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करने का अवसर मिलता है और वह इस अधिनियम की भावना को नजरअंदाज कर राजनीतिक पक्षपात कर सकता है। 

महाराष्ट्र में हालिया विवाद ने जहां पर शिंदे गुट के 15 विधायकों को विधानसभा के उपाध्यक्ष द्वारा अयोग्य घोषित किया गया था किंतु शिंदे सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष ने ठाकरे गुट के विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया। मध्य प्रदेश में 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में 22 बागी विधायकों ने अपना त्यागपत्र विधानसभा अध्यक्ष को भेजा और इस संबंध में उच्चतम न्यायालय द्वारा सदन के पटल पर बहुमत साबित करने के आदेश देने के ठीक एक दिन पूर्व उनके त्यागपत्र को स्वीकार किया और जिसके चलते कमलनाथ सरकार गिर गई। 

जुलाई 2019 में कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष ने कांग्रेस के 11 विधायकों और जद (एस) के 3 विधायकों को अयोग्य घोषित किया जिसके चलते कुमारस्वामी सरकार गिर गई थी। वर्ष 2015 में अरुणाचल प्रदेश में भाजपा के केवल 11 विधायक थे और उन्हें दो निर्दलीय विधायकों का समर्थन प्राप्त था किंतु 60 सदस्यीय सदन में कांगे्रस के 47 विधायकों में से 21 विधायकों ने दल-बदल किया। अध्यक्ष ने 14 विधायकों को अयोग्य घोषित किया। इसके साथ ही भाजपा ने एक असाधारण सत्र बुलाया जिसमें कांग्रेस और भाजपा के विधायकों ने विधान सभा अध्यक्ष को हटा दिया। गोहाटी उच्च न्यायालय ने इन विधायकों को अयोग्य ठहराया किंतु उच्चतम न्यायालय को इस  बारे में अभी अपना निर्णय देना है। किंतु 2016 में उसने कांग्रेस सरकार को बहाल किया। 

संसद और विधानसभाओं में विधायी कार्य करने के मानकों में गिरावट आ रही है और इस प्रक्रिया के नियमों को स्पष्टत: परिभाषित करने की आवश्यकता है। नि:संदेह अध्यक्ष का पद विरोधाभासपूर्ण है। वह संसद या विधानसभाआें का चुनाव किसी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ता है और फिर भी उससे अपेक्षा की जाती है कि वह निष्पक्ष ढंग से कार्य करे और अगला चुनाव लडऩे के लिए उसे पुन: पार्टी की ओर देखना पड़ता है। एक पूर्व लोक सभा अध्यक्ष के शब्दों में, ‘‘हम पार्टी के पैसे से पार्टी के टिकट पर चुने जाते हैं। हम स्वतंत्रता का दावा कैसे कर सकते हैं। यही नहीं यदि हम अध्यक्ष बनने पर त्यागपत्र दे दें तो हमें अगले चुनाव में टिकट के लिए पार्टी के पास जाना पड़ेगा।’’ 

फिर इस समस्या का समाधान क्या है? अध्यक्ष की शक्तियों पर पुनर्विचार किए जाने की आवश्यकता है। उसके पद को राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए और उसे तटस्थता से कार्य करना चाहिए। वेस्टमिंस्टर मॉडल के अनुसार सदन के लिए निर्वाचित होने के बाद अध्यक्ष को अपनी पार्टी से त्यागपत्र दे देना चाहिए और हाऊस ऑफ कॉमन्स के बाद के चुनाव में उसे निर्विरोध चुना जाता है। लोकसभा और विधानसभाओं के अध्यक्षों की निष्पक्षता और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उसे हाऊस ऑफ कामन्स के अध्यक्ष से अधिक शक्तियां प्राप्त हैं। कुल मिलाकर अध्यक्ष सदन का, सदन द्वारा और सदन के लिए है। उसे स्वयं को एक निर्णायक और न्यायाधीश की स्थिति में रखना चाहिए। उसे पक्षपात नहीं करना चाहिए। 

उसका किसी विशेष विचार के प्रति या विरुद्ध झुकाव नहीं होना चाहिए ताकि सदन के सभी सदस्यों का उनकी सत्यनिष्ठा और निष्पक्षता में विश्वास बना रहे। माकपा के सांसद स्व. सोमनाथ चटर्जी इस संबंध में प्रेरणास्रोत हैं। वामपंथी दलों द्वारा संप्रग-1 सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने से इंकार कर दिया था। अध्यक्ष पद एक उच्च संवैधानिक पद है और यह राजनीति से ऊपर हैं। इसके संबंध में इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि एक बार अध्यक्ष, हमेशा अध्यक्ष।-पूनम आई.कौशिश  
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News