‘राजवंश कांग्रेस के पतन का मुख्य कारण’

punjabkesari.in Tuesday, Dec 29, 2020 - 03:33 AM (IST)

कांग्रेस राष्ट्र को जीवन देने वाली विचारधारा का सेवा केंद्र है। गांधी जी चाहते थे कि 1939 में बी.पी. सीतारमैया कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बनें। गांधी ने सुभाषचंद्र बोस पर उन्हें तरजीह दी थी। गांधी जी के समर्थन के बावजूद सीतारमैया चुनाव हार गए लेकिन उनके भविष्यसूचक शब्द आज भी मेरे कानों में उस समय गूंजते हैं जब कांग्रेस अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। पिछले सप्ताह एक मैराथन बैठक में कांग्रेस ने अपनी बीमारियों का उपचार खोजने की कोशिश की। 

ऐसा लगता है कि राहुल गांधी ने अंतिम तौर पर दबाव छोड़ दिया और जल्द ही वह एक बार फिर पार्टी अध्यक्ष बनेंगे। मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि सीतारमैया ने जो 71 वर्ष पहले कहा था, आज फिर से दिखाई दे रहा है कि कांग्रेस पार्टी राष्ट्र को जीवन देने वाली विचारधारा का सेवा केंद्र बन चुकी है। यह सवाल ऐसे समय में पूछा जाना चाहिए जब रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकार पार्टी में से गांधियों के गायब होने की वकालत कर रहे हैं ताकि कांग्रेस का पुनरुद्धार हो सके। उनकी राय में कांग्रेस को नेहरू-गांधी परिवार से परे नए नेताओं की जरूरत है।

गुहा भाजपा का उदाहरण देते हुए लिखते हैं कि कैसे साधारण पृष्ठभूमि के पुरुषों ने अपनी प्रतिभा से पार्टी को एक शक्तिशाली मशीन में बदल डाला। गुहा इस बात की वकालत करने वाले अकेले नहीं हैं। नेहरू-गांधी परिवार की वंशवाद नीतियों पर हमला करने वालों में भाजपा, आर.एस.एस. तथा कुछ अन्य बुद्धिजीवियों सहित अनेकों लोग शामिल हैं। 

इस तथ्य से कोई इंकार नहीं है कि वंशवाद ने भारतीय राजनीतिक दलों को प्राइवेट लिमिटेड कम्पनियों में बदल डाला है। यह शाही होने का नया स्वरूप है। देश में नेहरू-गांधी परिवार सबसे बड़ा राजवंश है और अन्य पाॢटयों के लिए मशाल वाहक है लेकिन यह कल्पना करना कि राजवंश कांग्रेस के पतन का मुख्य कारण है, एक गहरे संकट की सुस्त जोड़बंदी है। इसके साथ-साथ एक जटिल समस्या की देखरेख और बड़े मुद्दे पर प्रकाश डालने का प्रयास है। 

भारत आज कुछ दशकों पहले जैसा नहीं है। ये मान्यताओं से परे बदल दिया गया है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में बदल चुकी है। पहचान की राजनीति एक प्रभावशाली थीम बन चुकी है। जाति और धर्म पर आधारित रेखाएं चौड़ी हो चुकी हैं। मैक्रो और माइक्रो दोनों प्रकार की पहचान बहुत मुखर हो गई हैं और काम कर रही हैं। पुराना राजनीतिक संतुलन टूट गया है तथा सामाजिक गंभीरता का केंद्र बिंदू स्थानांतरित हो चुका है। 

1991 तक यानी पूर्व आर्थिक सुधार युग में भारत की स्थिति यही थी। यह एक धर्मनिरपेक्ष आधुनिक, लोकतांत्रिक समाज था जिसमें समाजवाद का तड़का लगा हुआ था। आज के भारत में यह माना जा सकता है कि देश के प्रधानमंत्री 1991 में पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहे अनुसार कुछ कहेंगे। नेहरू ने कहा था कि, ‘‘अगर कोई भी व्यक्ति धर्म के नाम पर दूसरे के खिलाफ आवाज उठाता है तो मैं उससे अपने जीवन की अंतिम सांस तक लड़ूंगा, फिर चाहे वह सरकार के भीतर से हो या बाहर।’’ 

पूर्व दिवंगत प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने बिना शोर-शराबे के अपने पहले बजट में समाजवाद की बेडिय़ों को तोड़ डाला। मंडल कमिशन एक धमाके के साथ लागू किया गया और बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया। ऐसी  घटनाओं ने न केवल देश की राजनीति को नया आकार दिया बल्कि सदियों पुराने सामाजिक ढांचे को भी नष्ट कर दिया। यद्यपि बाजारी ताकतों ने ‘न्यू इंडियन मैन’ को प्रतियोगी, आत्मविश्वासी और जुझारू बना दिया और आर्थिक गतिशीलता द्वारा अस्थिर सामाजिक ताकतों ने उन्हें और अधिक अनिश्चित और असुरक्षित बना दिया। 

1990 के बाद भाजपा की वृद्धि अभूतपूर्व हुई तो जाति आधारित पार्टियां और मजबूत हो गईं। कांग्रेस के साथ समस्या यह थी कि आर्थिक सुधारों की जनक होने के बावजूद यह बदलाव के साथ गति पकड़ नहीं पा सकी। यह ऐसा समय था जब कांग्रेस में पार्टी का विघटन देखा गया। नरसिम्हा राव तथा सीताराम केसरी 1991 से 1998 तक कांग्रेस में मामलों की जानकारी रखते थे। वे दोनों नेहरू-गांधी परिवार से संबंध नहीं रखते थे। उन्होंने पार्टी को ढालना चाहा लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उस समय सोनिया को छड़ी सौंपी गई। जाति और धार्मिक ताकतों ने अपने लाभ को और मजबूत किया। पार्टी सरकार में नहीं थी। 

आजादी से लेकर सामाजिक गठबंधन को कांग्रेस ने खड़ा किया था। उत्तर भारत विशेष कर यू.पी. तथा बिहार में जहां किसी समय पार्टी का मजबूत किला था वहां पर कांग्रेस ने अपने आपको यतीम बना डाला। सोनिया गांधी ने भाजपा से मार्च छीनने की कोशिश की मगर अब बहुत देर हो चुकी थी। अर्जुन सिंह तथा दिग्विजय सिंह जैसे नेता भी पूर्व में प्रभावशाली थे। उनके अधिक स्पष्ट अल्पसंख्यकवाद ने पार्टी को बहुत नुक्सान पहुंचाया जिससे भाजपा को फायदा हुआ। एक बुद्धिजीवियों का वर्ग है जिन्हें राहुल में गंभीर समस्या नजर आती है। 

राहुल पर नर्म हिन्दुत्व का पीछा करने का आरोप लगाया जाता है। दुख की बात है कि यह वही कांग्रेस पार्टी है जिसे तीन दशकों तक गांधी जी ने उठा कर रखा। उन्होंने कभी भी अपनी हिन्दू होने की पहचान को नहीं छुपाया। हिन्दुत्व की बढ़ती राजनीति का मुकाबला करने के लिए गांधीवादी धर्मनिरपेक्षता को फिर से पुनर्जीवित करने की जरूरत है। अन्य कई राजनेताओं की तरह राहुल गांधी में भी कमजोरियां होंगी मगर इस मामले में उनका पूर्वानुमान सही है। 

गुजरात विधानसभा चुनावों के बाद से राहुल ने अपनी हिन्दू साख पर पानी फेरना शुरू कर दिया। हिन्दू वोटरों को लुभाने के लिए मुस्लिम के रूप में कांग्रेस को चित्रित करना भाजपा के लिए मुश्किल लगता है। तब से कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी सरकार बनाई तथा महाराष्ट्र में शिवसेना तथा अन्य पार्टियों के सहयोग से सरकार का गठन किया। बिहार में कांग्रेस चूक गई और हरियाणा में अपेक्षाकृत उसने अच्छा किया। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने राहुल गांधी की पॉलिसी को अपनाते हुए हनुमान जी को गले लगाया और भाजपा ने दिल्ली को खो दिया। कांग्रेस के साथ समस्या यह है कि पार्टी में अभी भी पुराने रक्षक हैं जो अभी भी 1991 के पूर्व युग में रह रहे हैं। गुहा तथा अन्यों की तरह वे गांधी के हिन्दू तथा आर.एस.एस. के हिन्दू में फर्क नहीं समझते।-आशुतोष 
 


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