देश की न्यायिक प्रणाली अपने आप में एक दंड

punjabkesari.in Sunday, Jul 24, 2022 - 04:39 AM (IST)

भारतीय प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना ने कहा था कि ‘हमारी आपराधिक न्यायप्रणाली में प्रक्रिया एक दंड है। जल्दबाजी में, भेदभावपूर्ण गिरफ्तारियों से लेकर जमानत हासिल करने के दौरान विचाराधीन कैदियों पर चलने वाले लम्बे मुकद्दमे पर तुरन्त ध्यान देने की जरूरत है... यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है कि देशभर में 6,10,000 कैदियों में से 80 प्रतिशत विचाराधीन हैं... समय आ गया है कि उन प्रक्रियाओं पर प्रश्र उठाया जाए जिनके परिणामस्वरूप बिना मुकद्दमा चलाए उनको लम्बे समय तक कैद में रखा जाता है।’ 

ये समझदारीपूर्ण शब्द निश्चित तौर पर हालिया समय के दौरान देश के सर्वोच्च न्यायाधीश द्वारा नहीं कहे गए। जस्ट्सि रमन्ना ने 17 वर्षों के लिए कानून की प्रैक्टिस की तथा 22 वर्षों से जज हैं। ‘आपराधिक न्याय देने’ के नाम पर अदालतों में क्या चल रहा है वह उससे अनजान नहीं हैं। उन्होंने अवश्य आरोपियों, वकीलों, सिविल सोसाइटी कार्यकत्र्ताओं, पत्रकारों तथा संबंधित नागरिकों से बातचीत की और सैंकड़ों की संख्या में दुखद कहानियां सुनी होंगी। इस लेख का उद्देश्य आपके साथ कुछ कहानियां सांझी करना है। 

बिना मुकद्दमे के जेल में
वर्तमान समय में कोई भी कहानी 16 आरोपियों की कहानी से अधिक  दुखद नहीं है जिसे भीमा कोरेगांव मामले के तौर पर जाना जाता है। 1 जनवरी 2018 को, जैसा कि इस दिन हर वर्ष होता है, भीमा कोरेगांव के युद्ध की 200वीं बरसी मनाने के लिए भीमा कोरेगांव में लोग (दलित संगठनों से संबंधित) एकत्र हुए थे। एक भीड़ द्वारा एकत्र पर पत्थरबाजी तथा ङ्क्षहसा की गई जिसकी शुरूआत कथित तौर पर दक्षिण पंथी समूह द्वारा की गई थी। एक व्यक्ति मारा गया तथा 5 घायल हुए। राज्य सरकार (भाजपा) द्वारा की गई जांच ने एक अजीब मोड़ ले लिया।  6 जून 2018 को 5 व्यक्ति, जो सभी दलित तथा वामपंथी मामलों से सहानुभूति रखते थे, को राज्य पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। अगले महीनों में और गिरफ्तारियां की गईं। 

जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया उनमें एक वकील, एक कवि, एक पादरी, लेखक, प्रोफैसर तथा मानवाधिकार कार्यकत्र्ता शामिल थे। 2019 में चुनावों के बाद एक गठबंधन सरकार (गैर-भाजपा) ने पदभार संभाला। पक्षपातपूर्ण जांच के आरोपों पर प्रतिक्रिया देते हुए राज्य सरकार ने मामले की फिर से जांच करने के लिए एक एस.आई.टी. गठित करने का फैसला किया। 2 दिनों के भीतर केंद्र सरकार (भाजपा) ने दखल दिया  और मामला एन.आई.ए. को हस्तांतरित कर दिया। कई याचिकाओं के बावजूद आरोपियों को जमानत देने से इंकार कर दिया गया। 84 वर्षीय पादरी स्टैन स्वामी की 5 जुलाई 2021 को जेल में मौत हो गई। केवल 82 वर्षीय जाने-माने कवि वरवरा राव 22 सितम्बर 2021 से अंतरिम चिकित्सीय जमानत पर बाहर हैं। 

जे.एन.यू. के पी.एच.डी. के विद्यार्थी शॢजल इमाम को उनके दो भाषणों के लिए गिरफ्तार किया गया जो उन्होंने सी.ए.ए. विरोधी आंदोलन के दौरान दिसम्बर 2019 में जामिया मिलिया इस्लामिया तथा ए.एम.यू. में दिए थे। दिल्ली में मामले के अतिरिक्त उनके खिलाफ असम, उत्तर प्रदेश, मणिपुर तथा अरुणाचल प्रदेश में मामले दर्ज हैं। वह 28 जनवरी 2020 से जेल में हैं तथा उन्हें जमानत देने से इंकार किया गया। जे.एन.यू. के पूर्व विद्यार्थी तथा कार्यकत्र्ता उमर खालिद को 14 सितम्बर 2020 को फरवरी 2020 में हुए दंगों के संबंध में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें भी जमानत नहीं दी गई। केरल से एक जाने-माने पत्रकार सिद्दीक कप्पन को उस समय गिरफ्तार किया गया जब वह हाथरस (यू.पी.) दुष्कर्म मामले की जांच कर रिपोर्ट देने के लिए जा रहे थे। वह 5 अक्तूबर 2020 से जेल में हैं और उन्हें जमानत नहीं दी गई। 

कानून क्या है
इस लेख में बिंदू यह नहीं है कि आरोप झूठे हैं या सच्चे। ङ्क्षबदू यह है कि आरोपियों को जमानत क्यों नहीं दी गई? जांच के दौरान आरोपी प्री-अंडरट्रायल हैं, जब अदालत द्वारा दोष लगा दिए गए तो वे अंडरट्रायल यानी विचाराधीन बन गए। प्री-चार्ज सबूत,  आरोप तैयार करना, मुकद्दमा तथा वाद-विवाद में संभवत: कई वर्ष लग जाते हैं। जब तक मुकद्दमा पूरा नहीं होता क्या तब तक आरोपी को जेल में रखा जाना चाहिए? क्या प्री-ट्रायल कैद मुकद्दमे, सबूत, दोष सिद्धि तथा दंड का एक विकल्प है? क्या यह देश का कानून है? यदि यह वास्तव में देश का कानून है तो क्या कानून को पुनर्भाषित अथवा संशोधित नहीं किया जाना चाहिए? 

जस्टिस रमन्ना के गुस्से में दिए गए वक्तव्य के पीछे ये कुछ प्रश्र हैं। इनके उत्तर सुप्रीमकोर्ट द्वारा बनाए गए कानून में पाए जा सकते हैं। 40 से अधिक वर्ष पूर्व गुरबख्श सिंह सिब्बिया के मामले (1980) में सुप्रीमकोर्ट की एक संवैधानिक पीठ ने कानून को स्पष्ट किया : ‘क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में जमानत देना एक नियम है तथा इससे इंकार करना एक अपवाद।’ 2014 में अरनेश कुमार  मामले में अदालत ने व्यवस्था दी कि गिरफ्तार करने की शक्ति को ‘अधिकतर प्रताड़ना, दमन का एक औजार माना जाता है तथा निश्चित तौर पर जनता का एक मित्र नहीं माना जाता।’ 29 जनवरी 2020 को एक अन्य संवैधानिक पीठ ने सुशीला अग्रवाल के मामले में स्पष्ट किया कि  यह मामला भी गुरबख्श सिंह सिब्बिया  तथा अरनेश कुमार जैसा ही है और इस बात की पुष्टि की कि अदालतों की शक्ति तथा कत्र्तव्य स्वतंत्रता के अधिकार को बनाए रखना है। 

एक काला धब्बा
फिर भी गिरफ्तार करने की शक्ति का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा है। इससे ङ्क्षचतित सुप्रीमकोर्ट ने गिरफ्तारी की ताकत पर अंकुश लगाने के लिए कई निर्णय सुनाए, जैसे कि 11 जुलाई 2022 को सतेन्द्र कुमार आंटिल के मामले में तथा 20 जुलाई 2022 को मोहम्मद जुबैर के मामले में सुनाया गया आदेश। आपराधिक न्याय प्रणाली के बारे में यह कहना दुखद है कि इन आदेशों के बावजूद भीमा कोरेगांव मामले में आरोपी, शर्जिल इमाम, उमर खालिद, सिद्दीक कप्पन तथा अन्य हजारों बिना दोष सिद्धि के जेलों में पड़े हैं। मैं समझता हूं कि यही कारण है कि जस्ट्सि रमन्ना को बोलना पड़ा।-पी. चिदम्बरम


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