‘कृषि कानून की समस्याओं को सरकार भी स्वीकार करने से है डरती’

punjabkesari.in Saturday, Dec 19, 2020 - 05:06 AM (IST)

किसान आंदोलन अब 25वें दिन में प्रवेश कर रहा है। अब समय आ गया है कि हम कुछ मूल सवालों का जवाब पूछें। क्या यह कृषि कानून समस्या को संबोधित करने के उद्देश्य से है जिन्हें सरकार भी स्वीकार करने से डरती है। एन.डी.ए. सरकार को इसके पूर्ववर्ती से एक मजबूत अर्थव्यवस्था विरासत में मिली। इसके विपरीत यू.पी.ए. के शासनकाल 2004 से 2014 के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था 10 लम्बे वर्षों के लिए 7.8 प्रतिशत की दर से बढ़ी। वर्ष 2004-05 जी.डी.पी. बेस वर्ष के तौर पर था।

2011-12 के संशोधित वर्षों में वृद्धि के आंकड़े 8.13 प्रतिशत के थे। आर्थिक मंदी के बावजूद और 2008 के यूरो जोन संकट के बाद भी आॢथक वृद्धि की यह दर न केवल बढ़ी बल्कि अर्थव्यवस्था के आकार ने नौकरियां, रोजगार का सृजन किया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक मजबूत सामाजिक सुरक्षा बनाने में मदद मिली। सूचना के अधिकार, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम (मनरेगा), मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के नाम पर 27.1 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकाले गए। 

एन.डी.ए.-भाजपा सरकार इस विकास दर को बनाए नहीं रख सकी और 8 नवम्बर 2016 को इसने अर्थव्यवस्था के शरीर पर एक बहुत बड़ा आघात लगाया। सरकार ने नोटबंदी कर डाली। 500 और 1000 के नोटों को नष्ट कर दिया गया जिससे नकदी की बेहद कमी हो गई। अर्थव्यवस्था को सुधारने की कोशिश में भारत ने एक मूल गलती कर डाली। 2.6 ट्रिलियन डालर की औपचारिक अर्थव्यवस्था इसी तरह से गैर-औपचारिक अर्थव्यवस्था के समांतर चल रही थी। सारा धन काला धन नहीं था। इसके बाद जी.एस.टी. के माध्यम से सरकार ने एक और गलती कर डाली जिसने अर्थव्यवस्था में से नकदी को सोख डाला। 

यहां तक कि कोविड-19 महामारी से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था ढलान को दस्तक दे रही थी। यह गंभीर संकट में थी। 2019-20 के एच-1 (अप्रैल से सितम्बर) में बैंकों और गैर-बैंकों से धन का कुल प्रवाह जिसमें वाणिज्यिक पत्र (सी.पी.), बाहरी वाणिज्यिक उधार (ई.सी.बी.) और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफ.डी.आई.) शामिल हैं। 87.63 प्रतिशत बढ़ कर 90,995 करोड़ रुपए हो गए। 23 मार्च 2020 को संसद ने 2020-21 के लिए 30.42 लाख करोड़ का केंद्रीय बजट पास किया। संभावित राजस्व प्राप्तियां 22.45 लाख करोड़ की थीं जिसमें 7.96 लाख करोड़ का वित्तीय घाटा पीछे छोड़ दिया गया। अब भारतीय अर्थव्यवस्था वास्तव और आधिकारिक तौर पर मंदी में थी और इसके 10 प्रतिशत से भी ज्यादा सिंकुडऩे की भी आशा थी। सभी बजट की संभावनाएं हवा में दिखाई दीं। 

इस आर्थिक कहर का कृषि कानूनों से क्या लेना-देना है? भारतीय खाद्य निगम (एफ.सी.आई.) सरकारी साधन है जो खाद्यान्न की खरीद और आपूर्ति देखता है। फूड कार्पोरेशन एक्ट के तहत इसका गठन 1965 में किया गया। निगम अधिनियम में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) पर खाद्यान्न की खरीद करना अनिवार्य है। इसके अलावा खाद्यान्न का बफर स्टाक उत्पन्न करना भी इसकी जिम्मेदारी है। खाद्यान्न की खरीद-फरोख्त के लिए केंद्र सरकार एम.एस.पी. का निर्धारण करती है। उनके वितरण मूल्य को इशु प्राइज भी कहा जाता है। यह एक ऐसी दर है जिस पर राज्यों को खाद्यान्न की आपूर्ति की जाती है। इन दोनों में दरों के फर्क पर मुआवजा एफ.सी.आई. को देती है जोकि फूड सबसिडी के रूप में होता है। इस तरह एफ.सी.आई. पूर्ण तौर पर केंद्र सरकार पर निर्भर है और उसके पास राजस्व का कोई दूसरा स्रोत नहीं है। 

2014 से पहले केंद्र सरकार पूरी फूड सबसिडी को फंड देती थी जोकि केंद्रीय बजट में एक लाइन आइटम थी। दूसरे शब्दों में इस प्रक्रिया के लिए धन सीधे तौर पर केंद्रीय बजट से लिया जाता था। उसके बावजूद भी एफ.सी.आई. कुछ धन राशि बैंकों से उधार लेती थी और गारंटी के तौर पर वह केंद्र सरकार पर निर्भर थी। हालांकि यह फिर से की जाने वाली अदायगी प्रबंधन के अधीन थी। जब यू.पी.ए. सत्ता से हटी तो एफ.सी.आई. 91,409 करोड़ की ऋणी थी। 
2016-17 में अर्थव्यवस्था नोटबंदी और कुप्रबंधन के कारण मुश्किल में थी। सरकार ने एफ.सी.आई. को मजबूर किया कि वह नैशनल स्मॉल सेविंग्ज फंड (एन.एस.एस.एफ.) से उधार ले। एन.एस.एस.एफ. का गठन 1999 में किया गया था जिसके तहत सारा पैसा स्मॉल सेविंग स्कीम से एकत्रित किया जाता था। 

एफ.सी.आई. ने एन.एस.एस.एफ. से 3.5 लाख करोड़ का ऋण लिया जिस पर भारत सरकार की स्वायतत: गारंटी थी। मतलब यह कि यदि एफ.सी.आई. से कोई चूक हो जाती है तो सरकार ही जिम्मेदार होगी। यह राशि वर्तमान केंद्रीय बजट का 10 प्रतिशत है। 2020-21 के वित्तीय वर्ष के लिए केंद्रीय बजट में फूड सबसिडी 77,983 करोड़ की थी। एफ.सी.आई. का एन.एस.एस.एफ. से ऋण 1.36 लाख करोड़ आंका गया। एक धराशायी अर्थव्यवस्था तथा चरमराते पब्लिक वित्तीयों के साथ सरकार ने जल्दबाजी वाली स्कीम पर चोट की। एक ऐसा देश जहां कि 65 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है और 36.4 करोड़ लोग गरीब हैं। यह सब आत्महत्या करने से कम नहीं है। सरकार को अर्थव्यवस्था को और समृद्ध करना होगा ताकि इसकी प्रतिबद्धताओं के लिए इसे काफी राजस्व मिल सके। इस कारण तीन कृषि कानूनों को सरकार को रद्द करना चाहिए और इसे गारंटी देनी चाहिए कि सरकार एम.एस.पी. पर पब्लिक वसूली करना जारी रखेगी और एन.एफ.एस.ए. के तहत अपनी जिम्मेदारियां पूर्ण करेगी।-मनीष तिवारी 
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News