आग की लपटों ने बचाई थी हमारी जान

punjabkesari.in Thursday, Aug 18, 2022 - 05:46 AM (IST)

मेरा गांव ढुडियाला मंदरा भौन रेलवे लाइन पर स्थित था और जेहलम जिले का एक प्रसिद्ध सिखों का गांव था। हमारे गांव में एक खालसा हाई स्कूल, लड़कियों का मिडल स्कूल और 4 गुरुद्वारे थे। सिख कारोबारी लोग थे और ज्यादातर इनके परिवार ईरान में रहते थे। भाईचारा बहुत ही अमीर था तथा 3 मंजिला मकान आम ही देखे जा सकते थे। डाक्टर मथरा सिंह कोहली हमारे गांव का बड़ा गदरी स्वतंत्रता सेनानी था जिनको 1917 में दूसरे लाहौर साजिश केस में फांसी दी गई थी। स. साहिब सिंह ईरान में बड़े कारोबारी थे जिन्होंने 1945 में हिंद-ईरान बैंक की स्थापना की। सिख ज्यादातर फौज में थे या फिर खेती करते थे। 

हमारे स्कूल के मुस्लिम विद्यार्थी अलग तौर पर सुबह की प्रार्थना करते थे। गांव में आधुनिक सहूलियतें जैसे बिजली, पानी, घरों में शौचालय और मनोरंजन बिल्कुल ही नहीं थे। कबड्डी और वॉलीबाल का खेल ही मुख्य मनोरंजन के साधन थे। ज्यादातर लोगों ने घोडिय़ां या फिर खच्चर रखे हुए थे जो दूसरे गांव में जाने का साधन थे। मार्च 1947 के पहले सप्ताह आजाद पाकिस्तान की मांग के ऊपर जोर देने के लिए मुस्लिम लीग ने ‘सीधी कार्रवाई’ का नारा बुलंद किया। भारत को साम्प्रदायिक लकीरों पर बांटने के लिए अंग्रेज हुकूमत पर दबाव बनाने के लिए यह बड़ी सोची-समझी चाल चली गई थी। सीधी कार्रवाई के बुलावे पर बहुगिनती क्षेत्रों के मुसलमान ज्यादा हौंसले में आ गए। रावलपिंडी डिविजन और सरहदी सूबे में हिंदू-सिखों की आबादी 10 प्रतिशत से कम थी। 

सीधी कार्रवाई के निमंत्रण के कारण जहां मुसलमान बहुसंख्या में थे, वहीं जलसे, जुलूस निकलने पर हिंदू-सिखों को धमकाने का काम जोर-शोर से आरंभ कर दिया गया था। 7 मार्च को लाहौर में विभिन्न स्थानों पर हिंदू-सिखों के ऊपर छुरेबाजी की घटनाएं होने के कारण सारा काम खराब होना शुरू हो गया। निश्चित तौर पर यह एक चेतावनी थी और आने वाले खतरों की एक झांकी भी थी। मुस्लिम समूहों की ओर से रावलपिंडी तथा अन्य स्थानों पर हमले भी शुरू हो गए थे। जब हमारे भाईचारे के नेताओं को हमलों की खबर हुई तो उन्होंने बाहरी लोगों के दाखिले को रोकने के लिए एक रक्षा योजना बनाई। घर की छतों के ऊपर लकड़ी की शहतीरियों को रख कर एक घर को दूसरे घर से जोड़ा गया। हरेक घर की छत पर पत्थरों का ढेर, मिर्चों की बोरी तथा खौलते हुए तेल के कड़ाहे तैयार रखने को कहा गया। 

11 मार्च को मुसलमानों की भीड़ ने गांव में घुसने की कोशिश की मगर उन्हें मार-भगा दिया गया। यह भीड़ अगले दिन फिर से गांव में दाखिल होने के लिए आई। अब उनकी गिनती पहले से भी ज्यादा थी और उनके पास हथियार भी कुछ ज्यादा थे। अगर गिनती की बात की जाए तो हमारा उनके साथ कोई मुकाबला नहीं था। परन्तु गिनती की कमी हम बहादुरी के साथ पूरी कर रहे थे। हमारे एक ग्रुप का प्रमुख मेरा चाचा भगत सिंह कोहली था जो वेटलिफ्टर भी था और शॉटपुटर भी था। 

इसी ग्रुप ने मुसलमानों का सबसे ज्यादा नुक्सान किया था। गांव में हमलावरों के साथ हाथापाई हुई। यह एक खूनी झड़प थी मगर हमने हौसला न हारा। इस लड़ाई को मैंने दूर से देखा और इस भयानक दृश्य को मैं कभी नहीं भूल सका। हमारे कई लोग मारे गए मगर वे 10-10 मुसलमानों को मार कर ही मरे। 13 मार्च को मुसलमान हमलावरों की एक बड़ी भीड़ आई जिसने घरों को आग लगा दी। आग चारों ओर फैल गई और घर माचिस की डिब्बियों की तरह जल उठे। 

सारा गांव गुरुद्वारा संतपुरा में शरण लेने के लिए मजबूर हो गया और वहीं से रात्रि के समय रेलवे लाइन पार कर सुंदर सिंह कोठी में सभी चले गए। यह एक बड़ी हवेली थी जिसमें सबको शरण मिल गई। वहीं से हम मुसलमान हमलावरों को मशालों को लेकर कोठी की ओर बढ़ते देख रहे थे। हमारे नौजवानों ने कृपाणों और लाठियों को उठाकर एक कवच बना लिया था और वे मरने-मारने के लिए तैयार थे। 

गुरु की कृपा से एक चमत्कार हुआ कि आधी रात्रि को करीब एक अंग्रेज मेजर की अगुवाई में एक सैन्य यूनिट हमारे गांव पहुंच गई। वैसे तो ये लोग कहीं और जा रहे थे मगर जब उन्हें आसमान को छूती हुई आग की लपटें दिखाई पड़ीं तो उन्होंने अपना रास्ता बदल लिया। यदि उस रात सेना वहां न पहुंचती तो हम सब की मौत निश्चित थी। सेना ने कोठी को घेरा डाला और मुस्लिम हमलावरों को वहां से भागने के लिए मजबूर कर दिया। एक सैन्य अधिकारी ने मेरे पिता स. बलवंत सिंह कोहली तथा नत्था सिंह आनंद को लेकर अनाज के गोदामों को ढूंढा ताकि इस विपदा के समय खाने-पीने का प्रबंध हो सके। 

अगले दिन गुरुद्वारे में एक कैंप खोला गया और दूसरे क्षेत्रों से आए सैंकड़ों सिखों को शरण दी गई। कई लोगों ने अपनी बेटियों और बहनों को मार दिया ताकि कोई मुसलमान उन्हें उठाकर न ले जाए। इस समय मास्टर तारा सिंह ने हमारे इलाके के सभी सिखों तथा हिंदुओं को पटियाला तथा अन्य स्थानों पर चले जाने को कहा। पटियाला के महाराजा यादविंद्र सिंह ने सभी को शरण देने की घोषणा की। हमारा 5 लोगों का परिवार जेब में 300 रुपए लेकर रेल के द्वारा राजपुरा पहुंचा। 

वहां से एक टांगे में बैठ कर बहादुरगढ़ गुरुद्वारे में पहुंचे जहां पर सैंकड़ों लोगों ने शरण ली। 1949 में मैंने 10वीं का इम्तिहान पास किया।1955 में पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए. इकॉनोमिक्स की और धीरे-धीरे मेरे पैर जम गए। मुझे पार्लियामैंट का सदस्य और चेयरमैन नैशनल अल्पसंख्यक आयोग बनने का मौका मिला। मैं अपनी पत्नी के साथ अपने जद्दी गांव ढुडियाला गया जो अपनी सारी चमक गंवा बैठा था। सभी शानदार इमारतों का बुरा हाल है। उन भयानक दिनों की याद से अभी भी पूरा शरीर कांप जाता है।-तरलोचन सिंह (पूर्व सांसद)


 


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