‘किसान के साथ इन्साफ करे फिल्म उद्योग’

punjabkesari.in Friday, Dec 11, 2020 - 03:25 AM (IST)

सिने उद्योग भ्रष्ट अधिकारियों, पुलिस, सेना और तस्करों पर तो खूब फिल्में बनाता रहा है परन्तु इस देश के अन्नदाता किसान पर बॉलीवुड की नजर कुछ कम हो गई है। गांव के किसान को अगर महाभारत के संजय बन कर किसी साहित्यकार ने उकेरा है तो वह थे मुंशी प्रेम चंद। उन्हीं के उपन्यास ‘गोदान’ पर फिल्मकार त्रिलोक जेतली ने 1963 में राजकुमार और कामिनी कौशल को लेकर फिल्म ‘गोदान’ बनाई थी। फिल्म में महमूद, शोभा खोटे और शशिकला जैसे बाकी कलाकारों ने ग्रामीण जीवन को अपने अभिनय से जीवंत कर दिया था। 

साहूकार का ऋण तो उपन्यास का हीरो ‘होरी’ चुका नहीं पाता अलबत्ता मृत्यु शैया पर पड़े नायक से सामंतशाही वृत्ति के लोग ‘गोदान’ करवाने का आग्रह करते हैं। फिल्म में राज कुमार और कामिनी कौशल ने अपने सुंदर अभिनय से मुंशी प्रेम चंद के अंतर्मन में छुपे किसानी दर्द को खूब उभारा था। मैं राजकपूर की फिल्म ‘जागते रहो’ में भी एक ग्रामीण किसान की वेदना को गंभीरता से अनुभव करता हूं जो गांव से शहर में एक ‘बेहतर-जीवन’ जीने की चाह लेकर आता है परन्तु अपनी प्यास बुझाने के लिए एक अपार्टमैंट में मजबूरीवश घुस जाता है और शहरी लोग उसे चोर समझ लेते हैं। बेचारा अपने आपको बचाने के लिए एक फ्लैट से दूसरे फ्लैट मारा-मारा फिरता है। तब उसका आत्मविश्वास डेजी ईरानी बढ़ाती है। 

बेचारा किसान सारी रात प्यास बुझाने की आस में चोर-चोर ही कहलाया जाता है। अंतत: भोर की बेला में एक रूप-लावण्य से भरपूर महिला श्वेत साड़ी पहने कुएं से पानी खींचती दिखती है। वह औरत कोई और नहीं सुप्रसिद्ध अभिनेत्री नर्गिस थी। पानी पीकर किसान की जान में जान आती है। 1956 में आई फिल्म ‘जागते रहो’ में राजकपूर का अभिनय देखते ही बनता था। 

सदियों से खेती एक घाटे का सौदा रही है। आज भी इक्कीसवीं सदी में ऋण के बोझ से किसान आत्महत्या कर रहा है। फिल्म-उद्योग क्या जानेगा कि 1997 से 2006 के बीच के काल में 1,66304 किसानों ने ऋण न चुका पाने के कारण आत्महत्याएं कर ली हैं। सरकारी कर्मचारी तो मूल्य-सूचकांक बढऩे से अपनी तनख्वाह बढ़ा लेगा परन्तु किसान तो 1947 में जहां खड़ा था आज भी वहीं भुखमरी के कगार पर खड़ा है। आज का व्यस्ततम  एक्टर अक्षय कुमार किसान की इस वेदनापूर्ण स्थिति को फिल्मों द्वारा उजागर करे। किसान आंदोलन का चित्रण करें। फिर भी मैं उन फिल्मी हस्तियों का ऋणी हूं जिन्होंने फिल्मी माध्यम से किसानों की वेदनाओं को दर्शकों के सामने रखा। 

1953 में बिमल रॉय ने अपनी फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ में किसान के वास्तविक दर्द को उकेरा। किसान के लिए उसकी जमीन महत्वपूर्ण है। वह उसे मां समझता है। ‘दो बीघा जमीन’ एक बेदखल किसान का जीवंत चित्रण है। फिल्म में एक शोषित किसान की वेदना का चित्रण है जिसने साहूकार से मात्र 65 रुपए उधार ले रखे हैं। उसका यह ऋण बढ़कर 253 रुपए हो गया है जिसे चुकाने के लिए अपने बच्चों को लेकर कलकत्ता में मजदूरी करनी पड़ती है। ऋण फिर भी नहीं चुका पाता। उसकी पुरखों की ‘दो  बीघा जमीन’ साहूकार हड़प लेता है। ‘दो बीघा जमीन’ के लिए वह दाने-दाने को तरस गया। समाज किसान की पत्नी का आर्तनाद नहीं सुन पाता। ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म में एक शोषित किसान की भूमिका को बलराज साहनी ने अमर कर दिया। उसके बूढ़े बेबस बाप की एक्टिंग करके नाना पलसीकर ने दर्शकों को रुला दिया था। 

शंभू किसान का कैरेक्टर आज तक दर्शक नहीं भुला पाए। फिर आई 1957  में महबूब खान की किसानी जीवन पर आधारित कालजयी फिल्म ‘मदर इंडिया’। यह  कहानी थी साहूकार का ऋण चुकाने के संघर्ष में लगी औरत राधा की जिसे अपने दो-दो बेटों को पालना है जिसका पति खेत जोतते-जोतते एक पत्थर के नीचे अपने दोनों हाथ गंवा देता है। साहूकार जिसकी इज्जत लूटना चाहता है जिसका पति अपाहिज होने के कारण, अपनी शर्म में ही अपना परिवार छोड़ कर कहीं चला जाता है। साहूकार के पास कंगन गिरवी रखे हुए हैं। राधा का उद्दंड बेटा अपनी मां के कंगन वापस लेने की जिद में डाकू बन जाता है। 

खेतों में आई बाढ़ में अपने बच्चों को बचाती मां का कारुणिक दृश्य दर्शकों के आंसू बहा देता है ऊपर से राधा की भूमिका में नॢगस का सर्वश्रेष्ठ अभिनय दर्शकों को रुला देता है। कितना मार्मिक दृश्य था जिसमें नॢगस अपने ही बेटे को गोली मार देती है। बिरजू के रूप में सुनील दत्त का अभिनय दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ गया था। साहूकार की भूमिका में कन्हैया लाल का अभिनय ‘मदर इंडिया’ की जान था। 1961-62 में किसान और साहूकार के टकराव की दिव्य गाथा दिलीप कुमार की फिल्म ‘गंगा-जमुना’ में दोहराई गई थी। फिर आई 2001 में आमिर खान की फिल्म ‘लगान’। यह फिल्म महारानी विक्टोरिया के राज के ङ्क्षहदुस्तानी गांव चम्पानेर की है। ब्रिटिश राज में सूखे की लपेट में यह गांव भी आ जाता है। 

गांव के लोग अपने राजा पूरन सिंह के पास जाते हैं कि लगान माफ कर दिया जाए। ब्रिटिश अधिकारी दोगुना लगान मांगने लगते हैं। ब्रिटिश अफसर क्रिकेट के मैच में हार-जीत का प्रस्ताव रखते हैं जिसे गांव का एक हौसलेमंद नौजवान भुवन स्वीकार कर लेता है। सारा गांव अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्र मान ब्रिटिश क्रिकेट टीम से मैच जीत लेता है। शर्त अनुसार सारे गांव का लगान अंग्रेज हकूमत माफ कर देती है। ‘लगान’ फिल्म से देशभक्ति का एक नया ढंग आमिर खान ने दर्शकों के सामने रखा। किसानी जीवन पर 1967 में मनोज कुमार की फिल्म ‘उपकार’ भी अपना प्रभाव बनाए रखती है। किसान मां अपने एक बेटे को उच्च शिक्षा दिलाने शहर भेजती है और दूसरे को किसानी करने में लगा देती है। 

किसान मां की किस्मत देखिए पढ़ा-लिखा बेटा स्वार्थी बन कर लौटता है। आकर अपने खेतों का बंटवारा करवा देता है। किसान बेटा घर की कलह के कारण फौज में भर्ती हो जाता है। दुश्मन से लड़ते जख्मी हो जाता है। जख्मी हालत में अपने गांव पहुंचता है। यहां उसका इलाज एक डाक्टर कविता करती है जिससे किसान भारत को प्यार हो जाता है। पढ़ा-लिखा बेटा तस्करों से मिल चोरबाजारी में पकड़ा जाता है। यह फिल्म जमीन के उपखंडन और विखंडन पर आधारित थी जिसका नारा था ‘जय जवान, जय किसान’। भारत की भूमिका में मनोज कुमार, मां की भूमिका में कामिनी कौशल, बिगड़ैल बेटे की भूमिका में प्रेम चोपड़ा, डाक्टर की भूमिका में आशा पारिख और गांव के एक फक्कड़ मलंग की भूमिका में प्राण ने अविस्मरणीय अभिनय ‘उपकार’ फिल्म में किया था। आज के भारत की इस बदलती आबोहवा की असली मार तो किसानों पर ही पड़ती है। 

बारिश, बाढ़, सूखे से जूझते एक किसान की दर्द भरी कहानी फिल्म ‘कड़वी हवा’ में खूब कही गई है। 2009 में एक फिल्म ‘किसान’ नाम से भी आई थी। परन्तु आज का किसान आंदोलन देखकर तो सिने उद्योग मुम्बई को कई कहानियां मिल गई होंगी। मैं बॉलीवुड के निर्माता, निर्देशकों, कलाकारों और लेखकों से कहना चाहता हूं कि देश का 80 प्रतिशत ग्रामीण जीवन और उसमें भी 60 प्रतिशत किसान आपकी कहानियों का नायक क्यों नहीं? वास्तविक जीवन में भी कृषि घाटे का सौदा और बॉलीवुड भी किसान से इंसाफ न करे तो सब कहीं घाटा ही हुआ न?  किसानों पर लिखो, किसान को और उभारो। किसान ही हमारा असली हीरो है। सिने उद्योग देश के किसान का दर्द उजागर करे।-मा. मोहन लाल(पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)   


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