देशद्रोह को लेकर कुछ ज्यादा ही ‘मुखर’ थे राष्ट्रपिता

punjabkesari.in Sunday, Oct 13, 2019 - 12:56 AM (IST)

यह स्पष्ट है कि भारत महात्मा गांधी के बारे में क्या सोचता है। आधिकारिक तौर पर हम उनका सम्मान करते हैं। यह अलग बात है कि हम उनके उद्देश्यों की पालना से ज्यादा उनकी उल्लंघना करते हैं। मगर गांधी ने हमें क्या बनाया, यह कोई समझने की कोशिश ही नहीं करता जबकि हम उनकी 150वीं जयंती मना रहे हैं। मगर मैं इस बात से हैरान नहीं हूंगा कि हमने राष्ट्रपिता गांधी को समय-समय पर शर्मसार ही किया है।
 
देशद्रोह को लेकर गांधी कुछ ज्यादा ही मुखर थे
जिस तरह हम देशद्रोह कानून (आई.पी.सी. की धारा 124-ए) का इस्तेमाल करते हैं वह एक ठीक चित्रण है। 18 मार्च, 1922 की ओर मुड़ कर देखें तो गांधी ने यंग इंडिया में लिखा कि धारा 124-ए इंडियन पीनल कोड की धाराएं राजनीतिक धाराओं के बीच एक प्रिंस है, जिसे कि नागरिकों की आजादी को दबाने के लिए ही डिजाइन किया गया है। अब 124-ए का संबंध सरकार के प्रति असंतोष को व्याप्त करने की कोशिश है। इसको लेकर गांधी कुछ ज्यादा ही मुखर थे। उनका कहना था कि  सरकार के प्रति असंतोष होना एक सद्गुण है। असंतोष जताने के लिए प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है। 

देशद्रोह की व्याख्या करने में 40 वर्ष लगे
वहीं हमारी सुप्रीम कोर्ट को देशद्रोह के कानून की व्याख्या करने में 40 वर्ष लग गए। 1962 में दिए गए केदारनाथ सिंह मामले के फैसले के अनुसार कोर्ट ने हिंसा भड़काने वाले भाषण या कार्यों पर अपनी प्रतिक्रिया को सीमित कर दिया। यहां यह भी बताना जरूरी होगा कि कोर्ट ने इसे,‘बेहद तीखा भाषण’ अथवा ‘जोरदार शब्दों’ जोकि सरकार की आलोचना करने वाले हों, से इसे अलग माना।

इस तरह कोर्ट ने दोहराते हुए इस व्याख्या की पालना की। 1995 में बलवंत सिंह के केस में यह व्यवस्था दी गई थी कि ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ देशद्रोह नहीं है। यह मात्र नारेबाजी है, जोकि लोगों को भड़काने वाला नहीं है और यह देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आता। सितम्बर, 2016 में कोर्ट ने अपना पक्ष फिर पक्का किया जब उसने केदारनाथ बनाम स्टेट ऑफ बिहार मामले में कहा कि ‘‘हमारा यह मत है कि इंडियन पीनल कोड की धारा 124-ए के अंतर्गत अपराधों से डील करने के दौरान अधिकारी नियमों को निर्देशित करें जोकि संवैधानिक बैंच द्वारा नियत किए गए हैं।’’

हमारी पुलिस जानबूझ कर देशद्रोह कानून का गलत इस्तेमाल करती है
दुर्भाग्यवश जब हम गांधी को नजरअंदाज करते हैं तब हम सुप्रीम कोर्ट की उपेक्षा भी करते हैं। हाल ही में मुजफ्फरपुर में चीफ ज्यूडीशियल मैजिस्ट्रेट ने बिहार पुलिस को आदेश दिया कि उन 49 लोगों पर मामला दर्ज करो जिन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर देशद्रोह के साथ-साथ मॉब लिंचिंग के बारे में अपनी चिंता प्रकट की। वहीं पूर्व मुख्य न्यायाधीश अजीत शाह ने कहा कि देशद्रोह को अकेला छोड़ दीजिए, कोई भी आपराधिक अपमान नहीं बनता। इस तरह चीफ मैजिस्ट्रेट तथा पुलिस दोनों ने गलत कार्य किया। गांधी शायद पहले व्यक्ति होते जो इनकी आलोचना करते। आज शासक चुप्पी साधे हुए हैं।

चाहे इसके बाद बिहार पुलिस ने यह आरोप हटा दिए। सच्चाई यह है कि हमारी पुलिस दोहराव के साथ-साथ जानबूझ कर देशद्रोह कानून का गलत इस्तेमाल करती है और सरकार उन्हें ऐसा करने के लिए खुला छोड़ देती है। यह कार्टूनिस्ट, छात्रों, इतिहासकारों, लेखकों, अभिनेताओं और निर्देशकों के खिलाफ गलत तरीके से इस्तेमाल किया गया, मगर इसमें कभी भी सरकार के किसी सदस्य को नहीं फंसाया गया। ऐसे कुछ ही मौके होंगे जबकि सूझवान तथा जटिल राजनीतिज्ञ इसमें फंसे हों। लंदन में 2017 के भाषण में दिवंगत अरुण जेतली ने कहा, ‘‘स्वतंत्र भाषण आपको देश की सम्प्रभुता पर चोट मारने की आज्ञा नहीं देता’’, जेतली गलत थे। वहीं यकीनन सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में व्यवस्था दी कि ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ बोलना देशद्रोह की गिनती में नहीं आता।

आज सरकार की आलोचना करना लोकतंत्र में नागरिकों का अधिकार है पर उनको देशद्रोह सहित इंडियन पीनल कोड की विभिन्न धाराओं के अंतर्गतदंडित किया जाता है। इसका यह मतलब नहीं कि हम गांधी के मूल्यवान शब्दों को भूल गए, जिन्होंने कहा था कि सरकार के प्रति असंतोष को एक सद्गुण मानता हूं।

1962 में अपने पहले राज्यसभा भाषण में अन्नादुरई ने कहा कि द्रविड़ आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत के लिए हम पृथक देश की मांग करते हैं। नेहरू बेशक धुंधले पड़ गए हों मगर उन्होंने अन्नादुरई के स्वतंत्र भाषण के अधिकार को स्वीकार किया। वह एक सच्चे गांधी भक्त थे। क्या नरेन्द्र मोदी और अमित शाह 2019 में इसी तरह की प्रतिक्रिया देंगे।

गांधी ने मतभेद तथा आलोचना के अधिकारों का समर्थन किया। यकीनन यह एक ऐसा नियम है जो तय करता है कि देश लोकतांत्रिक है या फिर नहीं। मगर आज आलोचकों तथा असंतुष्टों को पाकिस्तान जाने को कहा जाता है। कुछ भी हो गांधी ने शायद इसका स्वागत किया हो, पर उन्होंने हमारे पड़ोसी को नापसंद करने के प्रचलन को कभी भी सांझा नहीं किया।        करण थापर  shangarasinghbhullar@gmail.com


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