‘अर्थव्यवस्था’ पर मोदी सरकार का ध्यान चाहता है देश

punjabkesari.in Monday, Feb 03, 2020 - 03:14 AM (IST)

गुजरात मॉडल एक विशेष नरेटिव पर आधारित था। इसके अनुसार  नरेन्द्र मोदी के राज में सरकार पारम्परिक तरीकों को छोड़ कर अलग तरीके से चलती थी। उनके राज में सरकार अधिक दक्ष और कम भ्रष्ट होती थी। इसके अलावा यह माना जाता था कि मोदी के नेतृत्व में नौकरशाही की क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल करते हुए बेहतर परिणाम सामने लाए जाने थे, जो पिछली सरकारों में नेतृत्व की असफलता के कारण नहीं मिल सके थे। 

ये परिणाम अन्य सभी चीजों के अलावा सबसे अधिक आर्थिक विकास में दिखेंगे, ऐसा माना जाता था। इन सब बातों के कारण दुनिया के मीडिया (और राष्ट्रीय मीडिया भी) का ध्यान मोदी की तरफ आकर्षित हुआ। इस बात पर लोगों में मतभेद हैं कि भाजपा के शासनकाल से पहले की अवधि के दौरान (90 के दशक से अब तक) गुजरात की विकास दर क्या थी और खासकर मोदी के अधीन। हालांकि इस बात पर कोई विवाद नहीं था कि आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति झलकती थी। 

जब मैं इस अवधि के दौरान मोदी से मिला तब वह गुजरात की जी.डी.पी. को 15 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ते हुए देखना चाहते थे ताकि भारत 10 प्रतिशत की विकास दर से आगे बढ़ सके। जब उन्होंने यह बात कही तो वह उसको लेकर गंभीर थे। इस बात में भी कोई संदेह नहीं कि उस दौरान सरकार अपनी जनता और न्यायिक प्रणाली को जिस तरह से चला रही थी वह एक अलग तरीका था। मोदी भारत के इतिहास में एकमात्र ऐसे नेता हैं जो एक मुख्य दंगे के दौरान सत्ता में थे तथा उसके बाद भी सत्ता में रहे लेकिन इस सब के दौरान उनका कहना यही था कि वह ‘सभी 5 करोड़ गुजरातियों’ के लिए मजबूत आर्थिक विकास चाहते थे। 

अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का एजैंडा गायब 
मुझे ऐसा लगता है कि अब अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का विचार मोदी के दृष्टिकोण से गायब हो चुका है। मैं उम्मीद करता हूं कि मेरा अनुमान गलत हो लेकिन इस मामले को किसी दूसरे तरीके से देखना या समझना मुश्किल है। हाल ही में सरकार का जोर एक ऐेसे मुद्दे पर रहा है जिसकी न तो किसी ने मांग की थी और न ही उससे देश को किसी तरह की सहायता मिलेगी। मेरा अभिप्राय तीन कानूनों और कार्यों से है जिन पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन जोर दे रहा है। ये हैं- नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तथा राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर। 

यूरोप में सी.ए.ए. की आलोचना
हाल ही में यूरोपियन संसद में सी.ए.ए. की आलोचना करते हुए एक प्रस्ताव सदन के पटल पर रखा गया जिसे भारत के विदेश मंत्रालय ने हल्के में लिया। हमें यह बताया गया कि यह प्रस्ताव भारत पर बाध्य नहीं है और यह बात सच है लेकिन फिर भी सरकार ने इसे कम से कम इतनी गंभीरता से जरूर लिया कि इस प्रस्ताव पर मतदान को 6 सप्ताह तक टालना सुनिश्चित किया। इसमें एक बात बिना कहे रह गई और वह यह थी कि यह पहला मौका था जब भारत की आंतरिक नीतियों का मूल्यांकन और निंदा किसी महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय निकाय ने की। 

भारत की ओर से इस निंदा को टालने के अलावा कुछ नहीं किया गया। हालांकि भारत पर ये आरोप लगे कि दुनिया उसके द्वारा अपनाए गए रास्ते से चिंतित है लेकिन देश को इस आरोप से बचाने के लिए कुछ नहीं किया गया। यह वास्तव में चिंता का विषय है क्योंकि भारत कई मामलों में दुनिया पर निर्भर है। कोई भी अर्थव्यवस्था ऐसे हालात में तरक्की नहीं कर सकती जब उसका अपना शासन तंत्र अपने ही कई नागरिकों के साथ विरोध की स्थिति में हो और लाखों लोग उसे संदेह की नजरों से देखते हों। 

शनिवार को पेश किए गए बजट में इस बात की झलक नहीं दिखी कि अर्थव्यवस्था संकट में है। बजट से वे लोग खुश नहीं थे जो कुछ पहलकदमी की उम्मीद लगाए बैठे थे। बजट में यह बात तभी आ सकती थी जब संबंधित लोग इस बात को स्वीकार करते कि अर्थव्यवस्था में कुछ गड़बड़ है और फिर इसे ठीक करने का प्रयास करते। भारत पिछले एक दशक में सबसे कम गति से काम कर रहा है। यदि इसी प्रकार चलता रहा तो नौकरियां और खुशहाली दूर ही रहेगी हालांकि सरकार इन्हीं वायदों के आधार पर सत्ता में आई थी। 

वैचारिक एजैंडे को आगे बढ़ाने पर जोर
अब यह स्पष्ट हो चुका है कि मोदी भाजपा की विचारधारा के पहलू को आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक हैं और इसमें उन्होंने काफी सफलता हासिल कर ली है। तीन बड़े मुद्दे जिन पर भाजपा गठित हुई थी, अयोध्या, कश्मीर और सिविल कोड थे। मंदिर का तोहफा सुप्रीम कोर्ट ने दे दिया है, कश्मीर का मसला भी सुलझ गया है। तीन तलाक का अपराधीकरण हो चुका है और इसका अर्थ यह है कि अब केवल बहुविवाह को खत्म किया जाना बाकी है ताकि भाजपा सम्पूर्ण विजय की घोषणा कर सके। 

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए मोदी को बहुसंख्यकवादी रुख अख्तियार करने की क्या जरूरत है? सी.ए.ए.-एन.आर.सी. के नए रास्ते पर चलने की क्या जरूरत है जब आप वह सब पहले ही कर चुके हैं जिसका वायदा आप पिछले तीन दशक से अपने चुनाव घोषणापत्र में करते रहे हैं। मोदी के गुजरात के इतिहास तथा भारत के बारे में उनके लक्ष्य को देखते हुए यह काफी असमंजस भरा लगता है। आज देश मोदी और उनकी सरकार से इस संकेत का इंतजार कर रहा है कि उनका ध्यान वैचारिक एजैंडे से अर्थव्यवस्था की ओर आकॢषत हो जाए। शनिवार को प्रस्तुत किए गए बजट में यह संदेश नजर नहीं आया। -आकार पटेल


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