नेताओं और पुलिस द्वारा बुना गया अपराध का ‘ताना-बाना’

punjabkesari.in Saturday, Jul 11, 2020 - 02:41 AM (IST)

सामान्य व्यक्ति जो ईमानदारी, मेहनत और अपनी चादर के अनुसार अपने पांव फैलाने के लिए जाना जाता है, उसे यह जानकर, सुनकर या देखकर बहुत ही अजीब लगना स्वाभाविक है कि एक अपराधी द्वारा पुलिस के लोगों की हत्या कर छिपते-छिपाते अनेक राज्यों की कानून व्यवस्था को धत्ता बताते हुए मौका-ए-वारदात से सैंकड़ों किलोमीटर दूर एक मंदिर में दर्शन के बाद बाहर निकलकर घोषणा करना कि मैं ही वो हूं जिसकी तलाश है, आओ मुझे पकड़ लो। उसके बाद नाटकीय घटनाक्रम से उसकी गिरफ्तारी होती है। जिस राज्य में उसने अपराध किया,वहां की पुलिस को सौंप दिया जाता है और इससे पहले कि लोग यह कयास लगाएं कि अब इसका मुकद्दमा बरसों चलेगा, उसका एनकाऊंटर कर दिया जाता है ताकि सनद तो रहे लेकिन वे सब सबूत मिट जाएं जिनकी बिना पर बहुत से सफेदपोश खादी और पुलिसिया खाकी पहने लोगों की सच्चाई उजागर हो सकती है। 

यह घटना भी इसी तरह की पहले की अनेक घटनाओं की भांति कुछ समय के शोर-शराबे के बाद भुला दी जाएगी और अनेक प्रश्न साधारण व्यक्ति के मन में छोड़ जाएगी जिनका संबंध कानून का राज और व्यवस्था की लाज बचाने से है। इसलिए आम आदमी के लिए यह समझना जरूरी हो जाता है कि वास्तविकता क्या है और कानून की खामी और व्यवस्था की मजबूरी को दूर करने में उसका क्या योगदान हो सकता है? 

सिस्टम को बदलने की जरूरत
सबसे पहले यह समझ लीजिए कि हमारा जो कानून है वह अपराधियों द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किए गए अपराधों से निपटने और सजा देने के लिए बना था अर्थात घरेलू किस्म के अपराध, आपसी रंजिश, मारपीट, पुश्तैनी जायदाद या एेसे ही मुकद्दमे जो एक दो साल से लेकर पीढिय़ों तक चलते रहते हैं। इनके कारण समाज पर कोई गंभीर संकट नहीं होता और न ही कोई राजनीतिक या सामाजिक उथल-पुथल होने का अंदेशा रहता है। यदि जरूरत पड़ी  और कोई अलग तरह की वारदात हुई या मुकद्दमा आया तो उसमें थोड़ी बहुत रद्दोबदल की जाती रही ताकि काम चलता रहे। कह सकते हैं कि यह सब स्थानीय किस्म के अपराधों से निपटने के लिए काफी था। जब एेसे अपराध होने लगे जिनकी व्यापकता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की थी तो इन्हीं कानूनों में लीपापोती कर काम चलाने की कोशिश की गई जोकि नाकाफी था।

सख्त नए कानून की जरूरत
जरूरत यह थी कि स्थानीय कानूनों और उनकी सामान्य-सी व्यवस्था के समानांतर ऐसे  कानून बनाए जाते जो इक्का दुक्का अपराधियों के लिए न होकर छोटे-बड़े गिरोह, माफिया या क्राइम सिंडीकेट से निबटने में सक्षम होते।  इस तरह के संगठित अपराधियों के किए सभी जुर्मों के लिए अलग अदालत यानी ज्यूडिशियरी गठित होती और अभी जो इस तरह के अपराधों से निपटने के लिए अलग संगठन प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहे हैं उन सब को एक-सूत्र में बांधकर इस केंद्रीय संगठन को सभी तरह के कानूनी और प्रशासनिक अधिकार दिए जाते। अगर अभी भी इस बारे में गंभीरता से विचार हो तो इस नई व्यवस्था से अपराधियों के नेता बनकर पुलिस और ब्यूरोक्रेसी को अपने इशारों पर नचाने से मुक्ति मिल सकती है और यह भी संभव है कि अभी जो हम विधानसभा से लेकर संसद तक में अपराधियों की घुसपैठ देखते हैं और जो घोषित अपराधी हैं, वे विधायक, सांसद और मंत्री बन जाते हैं, उस परंपरा को नेस्तोनाबूद किया जा सकता है। वर्तमान व्यवस्था में साधारण अपराध हो या जघन्य, सामान्य कैदी हो या राजनीतिक बंदी, सबको एक साथ रखा जाता है और उनके आपस में मिलते रहने से माफिया या सिंडीकेट का जेल से ही विस्तार होता रहता है। 

सिस्टम की उदासीनता
सभी अपराधियों को एक ही लकड़ी से हांकने की परिपाटी के कारण भ्रष्ट नेताओं, रिश्वतखोर पुलिस वालों, बेईमान अधिकारियों से लेकर तस्करी, कालाबाजारी, नशीले पदार्थों की बिक्री करने वाले व्यापारियों का एक मजबूत संगठन बन गया है और जब भी इनमें से किसी एक पर कोई कार्रवाई होती है तो ये सब मिलकर न्याय और व्यवस्था पर एेसा प्रहार करते हैं कि उसे चुप रहने में ही अपनी भलाई दिखाई देती है। जब प्रशासन चुप हो जाए या हकीकत से मुंह मोड़ ले तो चाहे अपराधी कैसा भी हो, उसने आॢथक अपराध किया हो या हत्या, अपहरण, फिरौती से लेकर बम विस्फोट करने में लिप्त पाया जाए, उसकी हिम्मत बढ़ जाती है, कानून का डर नहीं रहता, किसी भी पद पर बैठे व्यक्ति को वह अपना मोहरा बनाने से नहीं चूकता और  बिना किसी रोक-टोक के दूसरे देशों में पहुंचकर वहां से अपनी गतिविधियों को चलाता रहता है। 

अगर सरकार और प्रशासन उदासीन न हो तो अपराधी की हिम्मत शुरू में ही टूटने में देर नहीं लगती,उसकी दबंगई साथ नहीं देती और उसे आत्मसमर्पण कर अपने को कानून के हवाले करना ही पड़ता है। पुलिस हो या प्रशासनिक अधिकारी, वे कुछेक अपवादों को छोड़कर भ्रष्ट नहीं होते लेकिन जब निरंकुश अपराधी नेता बन जाते हैं तो वे उनके लिए एेसा माहौल बना देते हैं कि उन्हें अपने सिद्धांतों का त्याग करने को विवश होना या फिर मृत्यु को गले लगाना ही पड़ता है।-पूरन चंद सरीन
 


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