निर्वाचन आयोग पर उच्चतम न्यायालय का हल्ला बोल

punjabkesari.in Thursday, Dec 01, 2022 - 04:52 AM (IST)

इस चुनावी मौसम में मोदीलैंड गुजरात में राजनीतिक दलों द्वारा एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोपों के बीच उच्चतम न्यायालय की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने निर्वाचन आयुक्त अरुण गोयल को जल्दबाजी में नियुक्त करने के मुद्दे पर निर्वाचन आयोग पर हल्ला बोल दिया है। न्यायालय ने निर्वाचन आयुक्तों और मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति के लिए एक कॉलेजियम जैसे निकाय के गठन की मांग करने हेतु दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि उनकी फाइल 24 घंटे में बिजली की रफ्तार से आगे बढ़ी। 

न्यायालय ने कहा गोयल ने 18 नवंबर को आवेदन किया। यह उसी दिन अधिकारियों ने आगे बढ़ाई, प्रधानमंत्री ने उसी दिन उनकी नियुक्ति की सिफारिश राष्ट्रपति से की और उसी दिन मंजूरी दी गई और उन्हें उसी दिन नियुक्त कर दिया गया। इस फाइल को 24 घंटे से कम समय में मंजूरी मिली। ऐसी अत्यावश्यकता क्या थी क्योंकि यह रिक्ति मई से पड़ी हुई थी। किस तरह से निर्वाचन आयुक्तों का मूल्यांकन किया जाता है जबकि सरकारी कार्यालयों में फाइलें धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं। 

प्रधानमंत्री नामों पर विचार करने के बाद किसी एक नाम की सिफारिश राष्ट्रपति को करते हैं और इसी तरह यह प्रणाली कार्य करती है। निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति में वरिष्ठता का पालन किया जाता है और निर्वाचन आयुक्तों में वरिष्ठ आयुक्त मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनता है। यह नियुक्ति मनमर्जी से नहीं की जाती है। इससे असंतुष्ट न्यायालय ने कहा कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो चरित्रवान हो और जो पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त शेषन की तरह किसी तरह के दबाव में न आए।

1950 में निर्वाचन आयोग की स्थापना के समय केवल मुख्य निर्वाचन आयुक्त हुआ करता था किंतु अक्तूबर 1989 में नौवें आम चुनाव से पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने दो और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति कर निर्वाचन आयोग को बहुसदस्यीय निकाय बनाया। तत्कालीन कांगे्रस सरकार द्वारा मुख्य निर्वाचन आयुक्त पेरी शास्त्री को प्रभावित करने और आयोग की स्वतंत्रता के साथ समझौता करने के लिए आलोचना की गई। 

जनवरी 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की नैशनल फ्रंट सरकार ने नियमों में संशोधन किया और निर्वाचन आयोग को पुन: एक सदस्यीय निकाय बनाया तथापि जनवरी 1994 में नरसिम्हा राव सरकार ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त सेवा शर्तें संशोधन अधिनियम 1993 पारित किया और दो और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान किया। उस समय से निर्वाचन आयोग 3 सदस्यीय निकाय है और इन तीनों आयुक्तों की निर्णय लेने में समान भूमिका होती है। 

किंतु निर्वाचन आयोग को प्रभावी बनाने के लिए शेषन जैसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है जिन्होंने 1990 में मुख्य निर्वाचन आयुक्त का कार्यभार संभाला जिन्होंने सरकार और नेताओं से सीधा टकराव लेकर निर्वाचन सदन को भारत के चुनावी मानचित्र पर स्थापित किया। उन्होंने सबसे पहले अपने दो आयुक्तों कृष्णामूर्ति और गिल के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की और आरोप लगाया कि इन दो आयुक्तों की नियुक्ति कार्यभार के आधार पर नहीं की गई अपितु आयोग के कार्यकरण में बाधा डालने के लिए की गई। 

उन्होंने कृष्णामूर्ति पर आरोप लगाया कि वे प्रधानमंत्री राव के घनिष्ठ पारिवारिक मित्र हैं और कहा कि संस्थाओं का मजाक नहीं बनाया जाना चाहिए। मई 1993 में शेषन ने चुनावी कार्यों में लगे सरकारी अधिकारियों पर निर्वाचन आयोग की अधिकारिता और निर्वाचन आयोग द्वारा किसी विशेष अधिकारी या कर्मचारियों को चुनावी ड्यूटी के लिए मांगने के अधिकार के मुद्दे पर तब तक लोकसभा और राज्य विधानसभा उपचुनाव तथा पश्चिम बंगाल में राज्य सभा चुनाव कराने के लिए इंकार कर दिया जब तक सरकार इसके लिए सहमत नहीं हुई। 

1994 में उन्होंने सरकार से कहा कि वह अपने दो कैबिनेट मंत्रियों सीताराम केसरी और कल्पनाथ राय को मतदाताओं को कांग्रेस के पक्ष में प्रभावित करने से रोकें। केसरी ने मुसलमानों को आरक्षण देने का वायदा किया और राय ने कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में मुफ्त चीनी उपलब्ध कराने का वायदा किया। शेषन ने कहा कि यह बड़ी विचित्र बात है कि कानून में मंत्रियों के विरुद्ध दंडात्मक  कार्रवाई करने का कोई प्रावधान नहीं है। 

1995 में उन्होंने बिहार विधान सभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान को स्थगित कर दिया क्योंकि मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने के बाद कार्यवाहक मुख्यमंत्री थे और उनका कहना था कि यह अलोकतांत्रिक है। वर्ष 2002 में एक और मुख्य निर्वाचन आयुक्त जे.एम. ङ्क्षलगदोह राजनेताओं के लिए दु:स्वप्न बन गए। जुलाई 2002 में गुजरात के राज्यपाल भंडारी ने गुजरात विधानसभा को उसके कार्यकाल की समाप्ति से 2 माह पूर्व भंग कर दिया। जिसके चलते निर्वाचन आयोग को वहां पर जल्दी चुनाव करवाने पड़े। 

पिछले 7 दशकों में संसद ने इस संबंध में कोई कानून नहीं बनाया है अपितु प्रत्येक सरकार ने आयोग की स्वतंत्रता प्रभावित करने का प्रयास किया है और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की शक्ति अपने पास रखी है। शायद समय आ गया है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति में जो विसंगतियां हैं उन्हें दूर किया जाए क्योंकि संविधान में इस संबंध में स्पष्ट प्रावधान नहीं है।-पूनम आई. कौशिश


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News