भारत में ‘सुपर रिच’ को परेशान करना बंद होना चाहिए

punjabkesari.in Sunday, Aug 25, 2019 - 02:05 AM (IST)

एक गरीब देश को अपने अमीर लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? लगभग तीन दशक पूर्व नीतियों के असफल होने के कारण देश के दिवालियापन के करीब पहुंचने के उपरांत भारत ने मुक्त बाजार आर्थिक सुधारों पर काम शुरू किया। ऐसा दिखाई देता था जैसे देश ने इस मुद्दे का समाधान कर लिया है। लगता था कि विश्व की दूसरी सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश, जैसा कि पहले डेंग शिआओपिंग के चीन ने किया था, निजी व्यवसाय के प्रति अपने संदेह को त्याग देगा। भारत में भी अमीर होना गर्व की बात होगी। 

आज चीजें कम सुनिश्चित दिखाई देती हैं। गरीबों के लिए सामाजिक कार्यक्रमों की बढ़ती जा रही सूची के लिए धन उपलब्ध करवाने हेतु स्रोतों की जरूरत के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने अमीरों के शोषण को दोगुना कर दिया है। गत माह के बजट में प्रस्तावित, जिसे मीडिया ने ‘सुपर रिच टैक्स’ का नाम दिया है, व्यवस्था के अनुसार 2 करोड़ रुपए से अधिक आय पर कर के ऊपर 25 प्रतिशत अधिभार तथा 5 करोड़ रुपए से अधिक की आय पर कर के ऊपर 37 प्रतिशत अधिभार लगाया गया है। इससे प्रभावी कर दरें 39 प्रतिशत तथा 42.7 प्रतिशत तक पहुंच जाती हैं (वर्तमान में 5 करोड़ की आय पर 15 प्रतिशत अधिभार लगता है)। 

मोदी प्रशासन ने अपने पूर्ववर्तियों द्वारा प्रतिपादित इस विचार को और भी धार दी कि बड़ी कम्पनियों को अपने लाभों का 2 प्रतिशत ‘कार्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी’ के तौर पर विभिन्न परियोजनाओं पर आवश्यक रूप से खर्च करना होगा। इसमें प्रस्ताव दिया गया है कि उन कार्यकारी अधिकारियों को तीन वर्ष जेल होगी जिनके आवश्यक सी.एस.आर. खर्चे सरकारी जांच पर खरे नहीं उतरते। शोर-शराबे के बाद सरकार को अपने इस निर्णय को अंजाम तक नहीं पहुंचाने का वायदा करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

‘कर आतंकवाद’
इस ‘कर आतंकवाद’ में और इजाफा करते हुए, अधिकारियों द्वारा परेशान करने की भारतीय परिभाषा तथा एशिया में कुछ सर्वोच्च कार्पोरेट दरों (बड़ी फर्मों पर 30 प्रतिशत) को देखते हुए आपको लालची सरकार द्वारा निचोड़े जा रहे व्यवसायियों की एक तस्वीर मिल जाएगी। गत माह लोकप्रिय भारतीय कॉफी शृंखला, कॉफी डे इंटरप्राइजिज के संस्थापक ने यह कहते हुए कथित रूप से आत्महत्या कर ली कि उन पर ऋणदाताओं की ओर से दबाव डाला जा रहा है तथा कर अधिकारियों द्वारा परेशान किया जा रहा है। 

कंफैडरेशन आफ इंडियन इंडस्ट्री (सी.आई.आई.) के एक पूर्व अध्यक्ष नौशाद फोब्र्स का कहना है कि भारत में अमीर लोगों के खिलाफ होना गरीब समॢथत होने से संबंधित है। उन्होंने कहा कि यह इंदिरा गांधी के लोकवाद का पुनरावर्तन है। भारत उसके कहीं नजदीक भी नहीं है जो इंदिरा गांधी के अंतर्गत 1970 तथा 1980 के  दशक में था-जब एक समय सीमांत आयकर दरें 97.5 प्रतिशत तक पहुंच गई थीं। गत माह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह कहते हुए उच्च करों के बारे में ङ्क्षचताओं को दूर करने का प्रयास किया कि भारत में ऐसे लोग 5 हजार से अधिक नहीं हैं, जिन्हें ‘सुपर रिच’ की श्रेणी में रखा जा सके। मगर निश्चित तौर पर यही समस्या है। 1.3 अरब लोगों से अधिक जनसंख्या वाले एक देश में कुछ हजार अमीर नागरिक पहले ही करों के असंगत हिस्से का बोझ अपने कंधों पर ढो रहे हैं। 

शीर्ष एक प्रतिशत करदाताओं का एक-तिहाई योगदान एक बिजनैस समाचारपत्र द्वारा करवाए गए अध्ययन के अनुसार भारत के शीर्ष एक प्रतिशत करदाता आयकरों में एक-तिहाई योगदान डालते हैं। पहली नजर में यह अमरीका की तरह लगता है, जहां शीर्ष एक प्रतिशत 37 प्रतिशत कर चुकाते हैं अथवा ब्रिटेन की तरह, जहां वे लगभग 30 प्रतिशत कर अदा करते हैं। मगर भारत में शीर्ष एक प्रतिशत लोगों की संख्या महज 8,40,000 है अथवा जनसंख्या का 0.06 प्रतिशत। इसकी अमरीका से तुलना करें जहां शीर्ष एक प्रतिशत 14 लाख लोगों से बनता है अथवा जनसंख्या का 0.4 प्रतिशत। समस्या यह नहीं है कि अमीर भारतीय करों के रूप में बहुत कम चुकाते हैं, बल्कि समस्या यह है कि अमीर भारतीयों की संख्या बहुत कम है। 

फिलहाल नए कर, जो विदेशी कम्पनियों पर भी लागू होते हैं, जिन्हें ट्रस्टों के तौर पर स्थापित किया गया है, ने वित्तीय बाजारों को बिगाडऩे में मदद की है। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों द्वारा एक अरब डालर से भी अधिक निकालने के बाद गत माह बैंचमार्क निफ्टी लगभग 6 प्रतिशत गिर गया। मगर बाजार के उतार-चढ़ाव की चिंता करने की बजाय सीतारमण तथा उनके अधिकारी कुछ और करने बारे सोच रहे हैं-कि क्या भारत अपने अमीर लोगों को बाहर निकालना बर्दाश्त कर सकता है? 

व्यावसायिक घरानों के पास विकल्प
बहुत से संभ्रांत व्यावसायिक घरानों के अन्य विकल्प हैं। उनके बच्चे अमरीका अथवा ब्रिटेन में पढ़ते हैं और आमतौर पर न्यूयार्क, टोरंटो अथवा लंदन में भी उतने ही सहज महसूस करते हैं जितनाकि अपने घर पर। और ऐसा भी नहीं है कि बाकी दुनिया के अमीर लोग भारत के लिए रास्ता तलाश रहे हैं ताकि दिल्ली की प्रसिद्ध हवा में सांस ले सकें यामुम्बई के विख्यात ट्रैफिक का अनुभव कर सकें। गत वर्ष मोर्गन स्टैनलेे की रिपोर्ट के अनुसार 2014 से कई करोड़पति भारत छोड़ चुके हैं। उनमें से बहुत सेदुबई तथा सिंगापुर जैसे बेहतर स्थानों पर जा बसे हैं। 15 अगस्त को अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में मोदी ने इस समस्या को समझने के संकेत दर्शाए। उन्होंने घोषित किया कि सम्पत्ति निर्माण एक बड़ी राष्ट्रीय सेवा है। हमें सम्पत्ति बनाने वालों को कभी भी संदेह से नहीं देखना चाहिए। यह एक स्वागतयोग्य वाक्चातुर्य है लेकिन इसे नौकरशाही के चंगुल से निकालना होगा। 

यह दिखाने के लिए कि वह वास्तव में सम्पत्ति बनाने वालों की कीमत जानते हैं, मोदी क्या कर सकते थे? शुरूआत करने वालों के लिए सरकार 2015 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेतली द्वारा कार्पोरेट करों को 25 प्रतिशत कम करने के वायदे को पूरा करके कर सकती है। यह इसके साथ ही अपेक्षाकृत निम्न स्तर के कर अधिकारियों को गिरफ्तार तथा जब्त करने की दी गई क्रूर शक्तियां समाप्त करने के साथ-साथ उनके लिए निर्धारित किए गए लक्ष्यों की प्रथा समाप्त कर सकती है जो केवल शॄमदगी तथा भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा देते हैं। 

प्रदर्शनों को देखते हुए सुपर रिच कर को वापस लेना कमजोरी का संकेत नहीं बल्कि तर्कसंगता होगी। असंगत सी.एस.आर. खर्च की शर्त को समाप्त करना इस बात का संकेत होगा कि भारत पूंजीवाद के मूलभूत सिद्धांत को समझता है-मुनाफा कमाकर कम्पनियां अच्छा करती हैं। मोदी कहते हैं कि वह 2024 तक भारत की अर्थव्यवस्था को दोगुनी करके 5 खरब डालर की बनाना चाहते हैं। ऐसा तब तक नहीं होगा जब तक भारत उन देशों के दर्जे से बाहर नहीं निकल जाता जो अमीरों को प्रताडि़त करते हैं और उनमें शामिल नहीं हो जाता जो उनका स्वागत करते हैं।-एस. धुमे


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