ऐसे फैसले किसी वज्रपात से कम नहीं

punjabkesari.in Friday, Apr 09, 2021 - 04:32 AM (IST)

अभी कुछ दिन पहले सरकार ने बचत योजनाओं पर ब्याज दर कम करने का एक ऐसा फैसला लिया था जिसे चौबीस घंटों से भी कम समय में ही वापस लेने की घोषणा वित्तमंत्री को करनी पड़ी। कहा जा सकता है कि यह देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ा ऐसा फैसला था जो शायद राजनीतिक कारणों से वापस ले लिया गया। किंतु यहां यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है कि इस फैसले को वापस क्यों लिया गया, अपितु यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि इस फैसले को लाने का औचित्य क्या था। 

वर्तमान परिस्थितियों में भले ही कोविड काल से उपजी स्थिति को इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाए लेकिन फिर भी इस घटना ने भारतीय कर प्रणाली पर एक नए विमर्श की आवश्यकता को जरूर महसूस करा दिया है। इस विमर्श में जाने से पूर्व कर संबंधी कुछ बुनियादी तथ्यों पर विचार करना आवश्यक है। 

आधुनिक भारत में आयकर प्रणाली 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार पर आए वित्तीय संकट के कारण 1860 में अंग्रेजों द्वारा लाई गई थी। मजेदार बात यह है कि भारत के तत्कालीन ब्रिटिश वित्तमंत्री जेम्स विल्सन ने भी आयकर की शुरूआत करते हुए मनु को उद्धृत किया था। 1886 में भारत में इंकम टैक्स एक्ट पास हुआ था, तब से उसमें कई बार बदलाव किए गए। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात पहले 1918 में, फिर 1922 में नया एक्ट लाया गया। स्वतंत्र भारत में वर्तमान में जो आयकर कानून चल रहा है वह 1 अप्रैल, 1962 को लागू किया गया था। भारत में दो प्रकार के कर लिए जाते हैं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर। 2017 में जी.एस.टी. लागू कर के अप्रत्यक्ष करों में क्रांतिकारी बदलाव लाकर सुधारों की तरफ एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया था। प्रत्यक्ष करों में भी सरकार हर बजट में कुछ बदलाव करती रहती है। 

लेकिन इसके बावजूद जब विश्व के देशों की टैक्स कंपैटेटिव इंडैक्स 2020 की रिपोर्ट आती है तो 36 देशों की इस सूची में न्यूजीलैंड, अमरीका, ब्रिटेन, जापान, फ्रांस, जर्मनी, पुर्तगाल जैसे देशों के नाम हैं लेकिन भारत का कोई स्थान नहीं है। जब व्यक्तिगत आयकर वसूलने वाले देशों से तुलना की जाती है तो वल्र्ड बैंक की रिपोर्ट के अनुसार अमरीका में यह 37 प्रतिशत, न्यूजीलैंड में 39 प्रतिशत और भारत में 35.88 प्रतिशत है। जी.एस.टी. की बात की जाए तो भारत में 28 प्रतिशत के साथ यह 140 देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है। 27 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर अर्जेंटीना है जबकि यू.के. और फ्रांस में यह 20 प्रतिशत तो सिंगापुर में 7 प्रतिशत है। 

इन आंकड़ों से यह तो स्पष्ट है कि कर वसूली के मामले में भारत कहीं विकसित देशों के समक्ष तो कहीं उनसे आगे है लेकिन जब नागरिक सुविधाओं की बात आती है तो भारत अंतिम पायदानों पर है क्योंकि अमरीका,जापान, न्यूजीलैंड और यूरोपीय देश जैसे अन्य देश अपने नागरिकों से ऊंची दरों पर कर अवश्य लेते हैं लेकिन उसी अनुपात में सुविधाएं भी देते हैं। जबकि भारत अपने नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं देने के मामले में 195 देशों की सूची में 154 वें पायदान पर आता है।
हालात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हम बंगलादेश, नेपाल, घाना और लाइबेरिया जैसे देशों से भी पीछे हैं। 

यह स्थिति तब है जब भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में आयुष्मान योजना लागू की गई है। जहां इसराईल, जापान से लेकर लगभग सम्पूर्ण यूरोपीय उपमहाद्वीप के देशों में हैल्थकेयर की सुविधाएं या तो मुफ्त हैं या फिर नागरिक पूरी तरह से इंश्योर्ड हैं। वहीं भारत में जिस वर्ग से टैक्स वसूला जाता है, उस वर्ग के लिए आय पर कर, संपत्ति पर कर, नगर निगम के विभिन्न कर, कैपीटल गेन्स पर कर, टोल टैक्स, रोड टैक्स जैसे करों की भरमार है। 

इससे भी चिंताजनक बात यह है कि भारत की जनसंख्या के लगभग एक फीसदी लोग ही आयकर देते हैं लेकिन अप्रत्यक्ष करों के रूप में माचिस जैसी छोटी सी वस्तु से लेकर वाशिंग मशीन या गाडिय़ों जैसी लग्जरी वस्तुओं की खरीद पर देश का हर नागरिक अपना योगदान देता है। पैट्रोल, शराब, गुटका जैसी वस्तुएं तो सरकार की आय का मुख्य स्रोत हैं ही। 

इन परिस्थितियों में जब बचत खातों पर मिलने वाली ब्याज दर कम करने का फैसला सरकार की ओर से लिया जाता है, जो वर्तमान में भले ही वापस ले लिया गया हो लेकिन कुछ समय बाद इसे फिर से लागू करने का प्रयास किया जाए, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे फैसले लेते समय सरकार को ध्यान रखना चाहिए कि इन बचत खातों में अधिकतर मध्यम वर्ग ही निवेश करता है। यही बचत उसके बुढ़ापे या बुरे समय की पूंजी होती है अपनी ही बचत से वह अपना और अपने परिवार का भविष्य सुरक्षित करता है। 

उन्हीं बचत योजनाओं पर सरकार के ऐसे फैसले खासतौर पर कोरोना काल में उन परिवारों और बुजुर्गों के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं हैं जिनकी आय का एकमात्र साधन यही योजनाएं हैं। इन हालातों में ऐसे फैसले लेने के बजाय सरकार इस दिशा में सोचे कि भारत की कर व्यवस्था, जो आजादी से पहले अंग्रेजों द्वारा लागू की गई थी, उसमें हमारे देश की वर्तमान जरूरतों को ध्यान में रखकर मूलभूत बदलाव किए जाएं। आज जब हम आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर देश भर में अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो हमारे पास स्वयं की एक न्यायोचित एवं सर्वकल्याणकारी कर नीति होनी चाहिए।-डा. नीलम महेंद्र
 


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