देश भर में राज्य पुलिस बलों को कमजोर किया जा रहा है

punjabkesari.in Friday, Aug 19, 2022 - 05:08 AM (IST)

सेवा में मेरे सम्मानित पूर्व सहयोगी डी. शिवनंदन, जो किसी समय मुम्बई के पुलिस आयुक्त और फिर महाराष्ट्र के डी.जी.पी. थे, ने हाल ही में एक प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्र में एक लेख लिखा। उनके विचार में दिल्ली में मोदी/शाह सरकार की नीति सभी महत्वपूर्ण आपराधिक जांचों को ई.डी., सी.बी.आई. तथा एन.आई.ए. जैसी केंद्रीय एजैंसियों के हाथों में सौंपने की है। नैशनल ड्रग्स कंट्रोल ब्यूरो को भी नहीं भूलें जिस कारण देश भर में राज्यों के पुलिस बल कमजोर हुए हैं। 

उन्होंने सही कहा है कि प्रत्येक राज्य अपनी निष्ठावान अपराध जांच इकाई पर गर्व तथा कठिन अथवा सनसनीपूर्ण मामले सफलतापूर्वक निपटाने पर काफी संतुष्टि महसूस करता है। मैं मुम्बई की सिटी पुलिस में अपने अनुभव से इस बात की निजी तौर पर पुष्टि कर सकता हूं कि जब ऐसे मामलों को सुलझा लिया जाता है, जिन पर जनता का ध्यान होता है तो पूरे पुलिस बल का मनोबल बढ़ जाता है। मनोबल बढ़ाने वाली इस प्रक्रिया को दिल्ली में बैठी शासक जोड़ी द्वारा धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है। 

मोदी तथा शाह को राज्य पुलिस बलों के स्वास्थ्य को लेकर जरा-भी चिंता नहीं है। वे एक ‘संयुक्त’ भारत बनाने के लिए दृढ़संकल्प हैं, ‘एक भारत’ जो एक ही पार्टी के अधीन हो, जो सब कुछ नियंत्रित करती है यहां तक कि नागरिकों के आंतरिक विचारों तथा भावनाओं को भी। पी.एम.ओ. द्वारा लिए जाने वाले प्रत्येक निर्णय ‘एक लोग, एक राष्ट्र’ के हितार्थ लिए जाने चाहिएं क्योंकि केवल वही जानते हैं कि देश तथा इसके लोगों के लिए क्या अच्छा है। 

2019 के लोकसभा चुनावों में मतदान करने वाले आधे से अधिक मतदाताओं ने मोदी तथा भाजपा के लिए वोट नहीं दिया। उनके नारे ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ को वास्तव में अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा गंभीरतापूर्वक नहीं लिया गया जो भारत की कुल जनसंख्या का करीब 14 प्रतिशत है। बहुसंख्यक समुदाय में भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो यह नहीं मानते कि भाजपा वास्तव में प्रत्येक भारतीय का भला चाहती है। उदाहरण के लिए दलित जानते हैं कि उन्हें देश के अधिकतर भागों में बराबर के तौर पर स्वीकार्य नहीं किया जाता। 

गुजरात, जो मोदी तथा शाह की पसंदीदा शिकारगाह है, में यहां तक कि ओ.बी.सी. बच्चे भी कथित रूप से ‘मुफ्त मिड-डे मील’ योजना के तहत स्कूलों में दलितों द्वारा पकाए गए भोजन को खाने से इंकार करते हैं! दलित दूल्हों की लगभग अनियमित रूप से पिटाई की जाती है यदि वे  अपनी बारात में घोड़े पर सवार होने की हिम्मत कर लें। युवा दलित लड़के राजपूतों तथा अन्य उच्च जातियों के साथ घुलने-मिलने का प्रयास करते हैं लेकिन बदले में उनकी पिटाई की जाती है। प्रबुद्ध गुजरात में यह एक असामान्य घटनाक्रम नहीं है। कोई पड़ोसी पिछड़े राज्यों में क्या आशा कर सकता है जो हिंदी पट्टी बनाते हैं, जहां भाजपा का प्रभुत्व है। 

अल्पसंख्यकों तथा बहुसंख्यकों के बीच उपेक्षित लोगों में असल भावना यह है कि मोदी तथा शाह की सरकार भारत के पुराने गौरव को पुन: स्थापित करने के लिए ब्राह्मणवादी चतुर्वन्य पदानुक्रम स्थापित करना चाहती है। यह पूरी तरह से सच नहीं भी हो सकता लेकिन व्यापक धारणाएं प्रासंगिक हैं। मेरे बहुत से हिंदू मित्रों, जो अधिकतर उच्च जातियों से आते हैं, में विजय की एक ऐसी हल्की-सी भावना है कि नए भारत में पुरानी सामाजिक व्यवस्था बहाल होने वाली है। ऐसा दिखाई देता है कि वे अल्पसंख्यक समुदायों पर होने वाले अत्याचारों के परिणामों के साथ सहज महसूस करते हैं जिन्हें मोदी/शाह के शासन के गत 8 वर्षों में लागू किया गया। 

मेरे मित्र शिवनंदन सही थे जब उन्होंने यह कहा कि राज्य पुलिस बलों में पुराना जोश मर रहा है क्योंकि नई भूमिका केंद्रीय जांच एजैंसियों द्वारा निभाई जा रही है। हालांकि मैं और आगे बढ़कर यह कहूंगा कि यह जानबूझ कर एक योजना के अंतर्गत किया गया है-एक ऐसी योजना जो प्रत्यक्ष रूप से काम कर रही है। सभी शक्तियों को एक सर्वोच्च इकाई यानी पी.एम.ओ.  में केंद्रित करने का प्रयास किया जा रहा है जो नागरिकों के लिए विचार करेगा, उन्हें बताएगा कि किस चीज की इजाजत है और किसकी नहीं। कानून व्यवस्था के प्रबंधन में राज्य सरकार की भूमिका उन नीतियों को लागू करने तक सीमित होगी। उदाहरण के लिए उनके बुल्डोजरों का इस्तेमाल और अधिक निरंतरता से किया जाएगा और केवल उनके खिलाफ जो उनकी नीतियों का विरोध करते हैं। 

कुछ हिंदू कट्टरपंथियों का हमेशा से यह सपना था कि सत्ता का केवल एक केंद्र हो जो सभी निर्णय ले। यह भूमिका थी एक सामांतर इंजन की जिसे प्रत्येक राज्य में स्थापित किया जाना था ताकि निर्देशों का पालन हो सके। इस विचार के साथ धन-बल तथा ई.डी. के छापों के डर ने अल्पसंख्यक भाजपा सरकारों को सत्ताधारियों में बदल दिया जो शक्ति के डबल इंजन पर सवार हैं। चुनाव हारना वास्तव में मायने नहीं रखता। दर्जनों ऐसे बिकाऊ राजनीतिज्ञ हैं जो अपनी गरिमा तथा सम्मान के बदले में धन या सत्ता पाने की प्रतीक्षा में हैं। 

इस शासन जोड़ी की दिल्ली के पी.एम.ओ. में सत्ता का केंद्रीयकरण करने की योजना सफलता की ओर बढ़ रही है। राज्य सरकारों का कानून-व्यवस्था पर नियंत्रण केवल कागजों में है। वास्तविक तथ्य यह है कि शक्तियां धीरे-धीरे चुपचाप पी.एम.ओ. को स्थानांतरित की जा रही हैं। जब कभी भी पश्चिम बंगाल जैसे विपक्ष शासित राज्यों में भाजपा विधायक खतरा महसूस करते हैं, सी.आर.पी.एफ. या सी.आई.एस.एफ. कर्मियों को उनकी सामान्य ड्यूटियों से हटाकर केंद्र की शक्तियों के संकेत के तौर पर विद्रोही राज्यों की ओर भेज दिया जाता है। 

राज्य पुलिस तथा केंद्रीय अद्र्धसैन्य बलों के बीच अंतरकार्मिक संबंध बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। शाह के साऊथ ब्लाक में आने से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। जब कभी भी अद्र्धसैन्य बलों को किसी राज्य में तैनात किया जाता है तो हमेशा राज्य सरकार की सहमति और यहां तक कि उसके आवेदन पर किया जाता था। स्थानीय पुलिस को ही तैनाती के मामले में निर्णय लेने के अधिकार होते हैं। दरअसल यह स्थानीय पुलिस की जिम्मेदारी होती है कि वह मेहमानों के रहन-सहन की व्यवस्था करे और स्थानीय स्थितियों व व्यक्तियों के बारे में जानकारी दे। यह व्यवस्था हमेशा काम आई है। 

मुझे नहीं पता कि वर्तमान टकराव वाली स्थिति में यह व्यवस्था कैसे काम करती है। ‘सिस्टर फोर्सेज’ के बीच किसी भी तरह की अनहोनी अथवा गलतफहमी के लिए केवल केंद्रीय गृह मंत्रालय जिम्मेदार होता है। मैंने सुना है कि महाराष्ट्र में शिवसेना के शिंदे धड़े, जो वर्तमान में सत्ता में है, ने अपने विद्रोही विधायकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सी.आर.पी.एफ. या सी.आई.एस.एफ. की तैनाती का आवेदन किया था। यह तब था जब मुम्बई में नई सरकार का गठन होने से पूर्व विद्रोह अपने चरम पर था। विपक्ष शासित राज्यों में अद्र्धसैनिक बलों की घुसपैठ, जिन्हें केंद्रीय गृहमंत्रालय नियंत्रित करता है, की कानून-व्यवस्था में केंद्र की स्थिति को केवल और मजबूत करेगा।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)


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