लोहिया का समाजवाद और चेलों का परिवारवाद

punjabkesari.in Sunday, Jan 22, 2023 - 05:08 AM (IST)

बड़े सितारे विस्फोट के साथ फटते नहीं हैं। विलुप्त नहीं होते। सिर्फ अदृश्य होते हैं। हम उन्हें देख नहीं पाते, क्योंकि वे प्रकाश देना बंद कर देते हैं। उनका पूरा आकार अपने ही केंद्र बिंदू पर समा जाता है। वे ब्लैकहोल बन जाते हैं। बिल्कुल ऐसा ही बड़े विचारों के साथ भी होता है। डा. राम मनोहर लोहिया के समाजवाद के साथ भी ठीक ऐसा ही हुआ। क्या उसका कोई भविष्य नजर आ रहा है। लोहिया समाज को परिवार मानते थे मगर उनके शिष्यों ने परिवार को समाज मान लिया। सारा संतुलन टूट गया। समाज में समानता का एक महान विचार अदृश्य है। 

सत्तर के दशक तक देश की राजनीति में समाजवादियों की अपनी एक चमचमाती आकाशगंगा (गैलेक्सी) थी जिसमें जयप्रकाश नारायण, मीनू मसानी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीस जैसे नेता थे, वहीं इसमें मुलायम, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, सिद्धारमैया जैसे नए सितारे भी बन रहे थे। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया तो वे समाजवादी ही थे, जिन्होंने इस अलोकतांत्रिक और अमर्यादित राजनीतिक आचरण के खिलाफ जनता को जगा दिया और दो साल के संघर्ष के बाद देश को पहली गैर-कांग्रेसी सरकार दी। 

मगर उसके बाद समाजवादियों का क्या हुआ यह भी देश ने देखा। अस्सी का दशक बीतते-बीतते देश में जाति और धर्म की राजनीति जोर पकडऩे लगी। समाजवादियों के बीच अलग-अलग केंद्र बने और उन्होंने अलग-अलग दिशा चुनी। कोई जाति की राजनीति में चला गया, तो कोई धर्म की राजनीति का सारथी बना। लोहिया के वैचारिक शिष्यों की यह गति हुई कि कोई यादवों का नेता बनकर रह गया तो कोई कुर्मियों का। 

मंडल आयोग का मोह इस हद तक सिर चढ़ा कि पूरा समाजवादी आंदोलन लोहिया द्वारा माने गए माक्र्स के भौतिक द्वंद्ववाद को भूलकर आपसी द्वंद्व में उलझ गया। एक पार्टी की अनेक पार्टियां बनीं फिर उनमें कोई परिवार ही पार्टी बन गया। मंडल आयोग असल में समाजवादी नेताओं के लिए एक राजयोग की तरह आया। ज्यादातर के लिए अल्पकालिक योग था मगर मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को इसने सबसे ज्यादा मजबूती दी। नि:संदेह इसके पीछे इन नेताओं की अपनी मेहनत थी। अपना आभामंडल था। 

मुलायम सिंह यादव, जिन्हें नेताजी के नाम से भी जाना गया, ने अल्पसंख्यकों और यादवों को साथ लेकर उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक सत्ता चलाई और केंद्र में रक्षामंत्री भी रहे। उन्होंने यादवों के बीच अपने कुनबे को पूरी तरह आगे बढ़ाया और एक समय ऐसा भी आया कि जब उनके मंच पर उनके परिवार के सदस्यों की संख्या अधिक होने लगी। चाचा-भतीजे और परिवार के सदस्यों में ठनने लगी। 

इस तरह जब मुलायम ने पुत्र अखिलेश यादव को यू.पी. के मुख्यमंत्री पद के साथ पार्टी की भी विरासत सौंपी तो कहा नहीं जा सकता कि उसमें कितना समाजवाद बचा था। शिवपाल यादव, आजम खान और अमर सिंह जैसे पार्टी के अन्य नेता भी शायद तब समाजवाद में ही अपने लिए बचे हुए अवसर का आकलन कर रहे थे।मुलायम सिंह की तरह ही लालू प्रसाद यादव ने करीब दो दशक तक बिहार की राजनीति में पूरी तरह से अपना सिक्का चलाया। केंद्र की राजनीति में भी उन्होंने खुद को मजबूती से जमाया। उनके सिक्के को खोटा किया, उनके अपने साथियों ने, जिनकी अनदेखी कर लालू प्रसाद यादव ने पत्नी और बेटों में ही पार्टी का भविष्य देखा। वह भी इस मामले में कभी परिवार से बाहर नहीं सोच सके। उनके परिवार में भी ठना-ठनी लगी रहती है। मगर इस सबके बाद भी यह तो माना ही जाता है कि मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव घूम फिर कर समाजवाद के मूल विचार से ही राजनीतिक खाद पानी लेते थे। अमीर-गरीब के अंतर की बात करते थे। किसान और गरीब के मुद्दों को आवाज देते थे। 

प्लास्टिक के मग के बीच कुल्हड़ की गुंजाइश रखते थे, मगर क्या अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव से हम ऐसी कोई उम्मीद रख सकते हैं। अपने पिता की तरह जमीन पर लोगों के बीच उतर कर संघर्ष की कितनी क्षमता या काबिलियत उनमें है, यह उन्हें अभी साबित करनी है। अब तक किसी परीक्षा में वे अपने दम पर पास नहीं हुए हैं। हम फिर से भौतिकी के उस सिद्धांत पर आते हैं जो समाजवाद जैसे बड़े वैचारिक सिद्धांत पर भी लागू होता है। हर बड़े विचार के भीतर एक विपरीत विचार उसी तरह घूम रहा होता है 

जैसे टॉप क्वार्क के साथ बिल्कुल विपरीत डाऊन क्वार्क। इन दोनों के बीच जब तक संतुलन है, पदार्थ का अस्तित्व कायम है। उसी तरह से ‘समाज ही परिवार’ है के विचार का जब संतुलन टूटा तो विपरीत विचार ‘परिवार ही समाज’ है ने उसकी जगह ले ली। लोहिया का कहना था कि लेनिन और रूसियों ने माक्र्स को बदनाम कर दिया। इसलिए लोहिया माक्र्स के भौतिक द्वंद्ववाद के सिद्धांत को स्वीकार करते थे मगर माक्र्सवादियों की तुलना में लकीर के फकीर होने की जगह मनुष्य और उसकी चेतना को अधिक महत्व देते थे। लोहिया माक्र्स और गांधी को मिलाकर एक अधिक उपयोगी विचार समाज के लिए गढ़ रहे थे। लोहिया के शिष्य पीछे क्या विरासत छोड़कर जा रहे हैं, क्या उसमें लोहिया के विचार की आत्मा मौजूद है, या उसकी तलाश अन्यत्र करनी होगी, क्योंकि देश की राजनीति के लिए यह बेहद जरूरी हो गया है। अमीर और गरीब के बीच की खाई फिर तेजी से बढ़ रही है।-सुधीर राघव


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