कस्बे स्मार्ट होने से बनेंगे स्मार्ट सिटी

punjabkesari.in Friday, Aug 12, 2022 - 04:13 AM (IST)

केंद्र सरकार के शहरी कार्य राज्यमंत्री ने कुछ समय पहले एक सवाल के जवाब में बताया था कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में चर्चित रही 100 शहरों को स्मार्ट बनाने की योजना को तार्किक परिणति तक पहुंचाया जाएगा। दो साल पहले कहा गया था कि अगले 5 सालों में योजना को मूर्त रूप देने का लक्ष्य रखा गया है। उन्होंने बताया कि इस योजना के तहत 100 शहरों का चयन किया गया, जिस पर 7 लाख करोड़ रुपए का खर्च आएगा। लेकिन असली सवाल यह है कि मौजूदा आर्थिक संकट से इतर यह योजना हमारे देश की बढ़ती आबादी की आकांक्षाओं के अनुरूप है? 

पुराने अनुभवों से सिद्ध है कि जब भी किसी शहर का विकास होता है तो आसपास के कस्बों के आॢथक रूप से सक्षम लोग वहां आकर बस जाते हैं। अनियोजित विकास तथा पहले से ही दबाव में आई नागरिक सेवाओं पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है। दरअसल, लोग बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं व रोजगार के नए अवसरों की तलाश में शहरों की ओर चले आते हैं। ऐसे में स्मार्ट सिटी का सम्मोहन उन्हें तेजी से शहरों की ओर उन्मुख करेगा। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जनसंख्या के दबाव में बिगड़ती व्यवस्था के बीच क्या स्मार्ट सिटी का लक्ष्य पूरा हो पाएगा? 

निस्संदेह किसी शहर को स्मार्ट बनाने की प्रक्रिया में लंबा वक्त लगता है। जाहिर है कि यह एक निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है। जब सरकार किसी शहर को स्मार्ट सिटी बनाएगी तो इस काम में लगभग 7 से 10 साल लगेंगे। इसी बीच बढ़ी सुविधाओं के प्रभाव से आसपास के लोग वहां स्थानांतरित हो जाएंगे। इस तरह उस शहर के स्मार्ट सिटी बनने से जिन सुविधाओं का विस्तार हुआ था, उनका संकुचन शुरू हो जाएगा। इसका तात्कालिक प्रभाव यह होगा कि उस शहर की स्मार्टनैस कुछ ही सालों में कांतिहीन हो जाएगी। 

ऐसे में देश के नीति-नियंताओं को इस बात पर विचार करना होगा कि देश के सर्वांगीण व व्यावहारिक विकास का लक्ष्य क्या शहरों के स्मार्ट सिटी बनने से पूरा हो पाएगा? दरअसल, आजादी के बाद से ही देश के सत्ताधीशों को यह बात की समझ में नहीं आई कि शहरों को स्मार्ट बनाने का एक ही मंत्र है गांवों-कस्बों को स्मार्ट बनाया जाए। 

महात्मा गांधी जब कहा करते थे कि देश की आत्मा गांवों में बसती है तो इसके मूल में यही सोच थी। कोरोना संकट में हमारी खेती की समृद्ध परंपरा ने यह करके दिखाया। यही एक क्षेत्र था, जिसमें सकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई। निस्संदेह, जब गांवों-कस्बों में जीवन की मूलभूत सुविधाएं होंगी तो शहरों की तरफ पलायन नहीं होगा। फिर शहर भी स्मार्ट बने रह सकते हैं। यदि हम विकास का स्रोत कस्बों को बनाते हैं तो देश में समृद्धि की बयार आ सकती है। 

दरअसल, स्मार्टनैस का यही फार्मूला यदि हम किसी कस्बे में लागू करते हैं तो आसपास के 10 किलोमीटर की परिधि में आने वाले अंदाजन 30 से 40 गांवों का विकास होगा। वास्तव में आसपास के गांवों के लोगों की जीवनचर्या कस्बे से जुड़ी होती है, क्योंकि गांव के बच्चे पास के कस्बे में पढ़ते हैं। गांव में स्वास्थ्य सेवाएं लगभग न के बराबर होती हैं। बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए ग्रामीण व्यक्ति पास के कस्बे में ही जाता है। किसान को अपनी फसल बेचने के लिए पास की मण्डी में जाना पड़ता है, वह भी कस्बे में होती है। 

रोजमर्रा की जीवन उपयोगी वस्तुओं के लिए तथा बैंक आदि की सुविधा के लिए उसको कस्बे में ही आना पड़ता है। तहसील, बिजली विभाग व अन्य सरकारी कामों के लिए भी उसको कस्बे का मुंह देखना पड़ता है। चाहे किसान हो या आमजन, उसकी जरूरत का पहला संबंध कस्बे से ही होता है। किसानों को खेती व अन्य पारिवारिक कार्यों के लिए जब कुछ धन उधार लेना पड़ता है तो वह कस्बे की ओर ही जाता है। खेती के लिए बीज, मशीनरी, कीटनाशक आदि की खरीद के लिए भी उसे कई बार उधार लेना पड़ता है। फिर फसल पकने पर वह उस कर्ज को वापस कर देता है। 

जब सरकार कस्बे में उच्च स्तरीय शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, इन्फ्रास्ट्रक्चर, आवासीय सुविधाएं देगी तो कस्बे का व्यक्ति शहर में नहीं जाना चाहेगा, वहीं रहना पसंद करेगा। गांव का जो व्यक्ति आर्थिक रूप से सम्पन्न हो जाता है, वह भी बच्चों की बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य सुविधाओं के लिए शहर मजबूरी में ही जाता है। लेकिन यदि पास लगते कस्बे में उसकी जरूरतें पूरी हो जाएं तो फिर वह शहरों की ओर जाने से परहेज करेगा। 

एक अनुमान के अनुसार देश में 2050 तक 65 फीसदी आबादी शहरों में शिफ्ट हो जाएगी। इस बड़े पलायन से शहरों की बढ़ती आबादी पर इतना दबाव पड़ेगा कि शहरों का सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। अगर हम 500 करोड़ की राशि एक कस्बे पर खर्च करें, यानी हम यह पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, बेहतर सड़कों के निर्माण व इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च करेंगे तो कस्बों में हम मिनी इन्डस्ट्रीयल सैक्टर भी बना सकते हैं, जिनमें कुटीर, एम.एस.एम.ई. उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जा सकता है। इसका प्रभाव यह होगा कि गांव का आदमी शहरों की ओर नहीं जाएगा। उसको गांव के इर्द-गिर्द ही काम मिलेगा। 7 लाख करोड़ खर्च कर जितनी आबादी को लाभ होगा, 5 लाख करोड़ खर्च करके उससे कहीं ज्यादा जनता को लाभ पहुंचेगा, क्योंकि गरीब लोग गांव में ही निवास करते हैं व उनकी गरीबी कम होगी। आमजन के जीवन में सकारात्मक सुधार होगा। 

भारत में ज्यादातर उद्योग शहरी क्षेत्रों में लगे हुए हैं। कस्बे के चारों तरफ छोटे व मझोले उद्योग लग सकते हैं, जो उस क्षेत्र की आवश्यकताएं पूरी करने के साथ-साथ शहर की जरूरतें भी पूरी कर सकते हैं। मैंने यह सब भी देखा है कि कुछ लोग जो मैट्रो सिटी में नौकरी करते थे व उनका मूल स्थान कोई कस्बा या गांव था, वे रिटायर होकर अपने मूल स्थान पर आ गए क्योंकि शहरों में पर्यावरण की समस्याओं के साथ-साथ महंगे जीवन की भी दिक्कतें थीं। हमने अपने शहरों व मैट्रो सिटीज पर जनसंख्या के दबाव को रोकना है तो हमें कस्बों का विकास करना पड़ेगा। यह सिर्फ बेहतर सुविधाओं से ही हो सकता है।-अनिल गुप्ता ‘तरावड़ी’
 


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