ऐसे बनी कश्मीर पर पाक हमले की ‘गुप्त योजना’

punjabkesari.in Thursday, Oct 22, 2020 - 03:41 AM (IST)

पाकिस्तान के पूर्व मेजर जनरल अकबर खां को सितम्बर 1947 के आरंभ में ही कश्मीर को हथियाने की गुप्त योजना बनाने का आदेश दिया गया था। यह वही अकबर खां था जिसको संयुक्त भारत के बंटवारे से पहले बनी सशस्त्र सेनाओं की आर्म्ड फोर्सेज पार्टीशन सब कमेटी बुखारा उप समिति में एक सदस्य के रूप में लिया गया था। इस हैसियत से उसे  जो सरकारी गुप्त रिकार्ड उपलब्ध हुआ उसमें बताया गया था कि महाराजा हरि सिंह के पास सेना और पुलिस को मिलाकर केवल 9 हजार जवान ही थे। 

इस जानकारी से ही अकबर खां को कश्मीर पर बिजली की गति से आक्रमण करने की गुप्त योजना बनाने में बहुत सहायता मिली। अकबर खां को महाराजा हरि सिंह की सेना के पास जितने और जितनी भी किस्म के हथियार थे इसका भी पूरा विवरण उसके पास था। गुप्त योजना को क्रियान्वित करने से पहले मेजर जनरल अकबर खां ने हथियार गुपचुप तरीके से कश्मीर के कुछ भाग में मुसलमानों में बांट दिए। अकबर खां ने कश्मीर की सैन्य कार्रवाई के बारे में एक पुस्तक ‘कश्मीर के छापामार’ लिखी जिसे जुलाई 1970 को पहली बार कराची में छापा गया। उस पुस्तक में पाकिस्तान की सेना द्वारा हमला करके कश्मीर पर कब्जा करने की सारी योजना छापी गई। 

इस पुस्तक के अनुसार अकबर खां को सितम्बर 1947 के बाद रक्षा विभाग ने लाहौर बुलाया। तब वहां उच्च स्तरीय बैठक में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खां भी मौजूद थे। कुछ चर्चा के बाद अकबर की गुप्त योजना (कश्मीर पर हमला करके कब्जा करने की योजना) को अंतिम रूप दे दिया गया। उस बैठक में तत्कालीन वित्त मंत्री गुलाम मोहम्मद भी शामिल थे, जिन्हें बाद में गवर्नर जनरल बना दिया गया था। इसके अतिरिक्त मियां इफ्तिखारुद्दीन, जमाकियानी खुर्शीद अनवर, सरदार शौकत हयात खां भी थे। इस बैठक में खुर्शीद अनवर को उत्तरी सैक्टर का कमांडर, जमाकियानी को दक्षिण क्षेत्र का और स. शौकत हयात खां को ओवरऑल कमांडर नियुक्त कर दिया गया। कुछ दिन के बाद ही अकबर खां को वजीर-ए-आजम लियाकत अली खां का सैन्य सलाहकार नियुक्त कर दिया गया ताकि उसकी ड्यूटी से गैर-हाजिरी को इस प्रकार छिपाया जा सके। 

क्रियात्मक रूप से वह हमले की कार्रवाई को अंजाम देने और इसके संचालन के लिए कश्मीर में गया हुआ था। इस प्रकार पाकिस्तानी सेना ने 22 अक्तूबर 1947 को कश्मीर की सीमा का उल्लंघन किया और 24 अक्तूबर को मुजफ्फराबाद और डोमेल पर हमला कर दिया। तत्पश्चात 26 अक्तूबर को आक्रमणकारी सेना ने बारामूला पर धावा बोल दिया। पाकिस्तानी सेना और कबायलियों  ने अपनी भारी गिनती के चलते बारामूला पर कब्जा कर लिया। फिर वहां लूटमार, हत्या और महिलाओं से बलात्कार के जघन्य अपराधों को हमलावर सेना ने अंजाम दिया। 29 अक्तूबर के बाद केवल 5 दिनों में ही इस सेना ने 115 मील का रास्ता तय कर लिया और श्रीनगर वहां से केवल 4 मील ही दूर रह गया था। 
तभी महाराजा हरि सिंह ने भारत सरकार से मदद की गुहार लगाई और जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करने की घोषणा कर दी। भारत सरकार ने तुरन्त अपनी सेना को कश्मीर भेजना शुरू किया ताकि आक्रमणकारियों को कश्मीर से बाहर खदेड़ दिया जाए और मुकाबला करने वाले सैनिकों का सफाया कर दिया जाए। 

ज्यों ही भारतीय सेनाएं कश्मीर में दाखिल हुईं तो पाकिस्तानी हुक्मरानों के जैसे होश उड़ गए। सैन्य रणनीति में परिवर्तन करने के लिए फिर मेजर जनरल अकबर खां को वापस रावलपिंडी बुलाया गया। इस बैठक में अकबर खां ने जम्मू पर फौजी हमले करने की योजना तैयार की ताकि जम्मू से कश्मीर जाने वाली एक ही सड़क को रोक दिया जाए और सड़क मार्ग से कश्मीर को भेजी जाने वाली सारी सहायता और सेना की पेशकदमी को रोका जा सके। अकबर खां मानता है कि जम्मू पर हमले की कार्रवाई पाकिस्तान के लिए कितनी महत्वपूर्ण थी कि स्वयं मोहम्मद अली जिन्ना ने जम्मू पर सैन्य हमला करने का आदेश दिया था। 

जिन्ना ने जम्मू पर जब हमले का यह हुक्म दिया तब इस आदेश को लागू करने का फरमान पाकिस्तान के उस समय के कमांडर इन चीफ जनरल ग्रेसी को थमा दिया गया परन्तु जनरल ग्रेसी ने इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया और इसके लिए तर्क यह दिया कि वह दिल्ली में मौजूद सुप्रीम कमांडर लार्ड माऊंटबेटन की अनुमति के बिना ऐसा नहीं कर सकता था। 28 अक्तूबर को अकबर खां रावलपिंडी से बारामूला  वापस आ गया और सैन्य कार्रवाई जो अब तक जितनी हुई उसकी निगरानी की। पाकिस्तानी सेना श्रीनगर से केवल 4 मील की दूर रह गई थी। रात भर वहीं रह कर अकबर खां ने सारे क्षेत्र में अपनी सेना और डोगरा फौजों की स्थिति का जायजा लिया। 

अकबर खां फौरन रावलपिंडी पहुंचा और कर्नल मसूद से मिला। उसने अपने यूनिट से बख्तरबंद गाडिय़ों की एक टुकड़ी कश्मीर भेजना स्वीकार कर लिया।  कर्नल मसूद की यह बख्तरबंद टुकड़ी बिना औपचारिक स्वीकृति के सफेद कपड़ों में और जोखिम पर भेज दी गई। लेकिन तब तक भारतीय सेना का चौतरफा दबाव बन चुका था और पाकिस्तानी सेना मजबूरन पीछे हटनी शुरू हो गई थी। श्रीनगर से स्थानीय लोगों ने भी भारतीय सेना का साथ देना शुरू कर दिया। पाकिस्तानी फौज पीछे हटते-हटते आखिर उड़ी तक वापस आ गई जहां से चली थी।(क्रमश:)-ओम प्रकाश खेमकरणी


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