‘पुस्तकालयों’ को बचाइए

punjabkesari.in Wednesday, Aug 12, 2020 - 03:01 AM (IST)

आज ‘पुस्तकालय दिवस’ है। इसमें कोई शक नहीं है कि पुस्तकालय हमारे जीवन-निर्माण तथा व्यक्तित्व विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। हाल ही में नैशनल बुक ट्रस्ट ने कुछ जगहों पर कोविड अस्पतालों में पुस्तकालय बनाए, जिनका सकारात्मक असर देखने को मिला। दरअसल पुस्तकें हमारी निराशा को दूर करती हैं। इस लिहाज से पुस्तकालय हमारे जीवन को एक नई दिशा देने का काम भी करते हैं। 

नैशनल बुक ट्रस्ट द्वारा कुछ जगहों पर कोविड अस्पतालों में बनाए गए पुस्तकालयों से रोगियों के अंदर पनपी निराशा की भावना कम हुई। एेसे प्रयोग दूसरी जगहों पर भी किए जाने चाहिएं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस दौर में देश के सार्वजनिक पुस्तकालयों की हालत बदतर है। 

हिन्दी भाषी समाज में पढऩे की प्रवृत्ति विकसित करने में भी पुस्तकालय अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। पुस्तकालयों के तत्वावधान में कविता-कहानी प्रतियोगिताएं या क्विज प्रतियोगिताएं आयोजित की जा सकती हैं। इसी तरह पुस्तकालयों के तत्वावधान में ही नई प्रकाशित पुस्तकों पर परिचर्चाएं भी आयोजित की जा सकती हैं। इस तरह की परिचर्चाआें में लिखने-पढऩेे वाले जागरूक लोगों के साथ-साथ आम जनता को भी आमंत्रित किया जाना चाहिए। 

इस प्रक्रिया के माध्यम से जहां एक आेर जनता को पुस्तकालयों द्वारा संचालित सृजनात्मक गतिविधियों की जानकारी मिलेगी, वहीं दूसरी आेर उसे नई प्रकाशित पुस्तकों की जानकारी भी मिल सकेगी। इस तरह आम जनता भी पुस्तकालयों के प्रति आकर्षित होकर इनसे जुड़ सकेगी। इन सब गतिविधियों के माध्यम से आम जनता में भी धीरे-धीरे पढऩे की प्रवृत्ति विकसित होगी। आज हालात ये हैं कि लगभग सभी जिलों में राजकीय जिला पुस्तकालय स्थापित हैं लेकिन चंद लोगों को छोड़कर आम जनता को इन पुस्तकालयों की जानकारी ही नहीं है। चंद जागरूक लोग इस तरह के पुस्तकालयों में जाते भी हैं तो पुस्तकालयाध्यक्ष के उदासीन रवैये के कारण वे पुस्तकालयों से सक्रिय रूप से नहीं जुड़ पाते हैं। 

आज स्वयं पुस्तकालयाध्यक्षों को इस बात पर विचार करना होगा कि वे किस प्रकार ज्यादा से ज्यादा लोगों को पुस्तकालयों से जोड़ सकते हैं। अक्सर यह देखा गया है कि राजकीय जिला पुस्तकालयों में कौन-कौन-सी पुस्तकें आनी हैं, यह सब प्रशासनिक स्तर पर तय होता है। इस प्रक्रिया से अनेक अनुपयोगी पुस्तकें पुस्तकालयों पर थोप दी जाती हैं और स्थानीय पाठकों की पसंद की अनेक पुस्तकें पुस्तकालयों में आ ही नहीं पाती हैं। इसलिए पुस्तकालयों में नई पुस्तकें मंगाने की प्रक्रिया में स्थानीय पाठकों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

अक्सर यह देखा जाता है कि ज्यादातर पुस्तकालयों में पुस्तकालयाध्यक्ष बहुत सक्रिय और जागरूक नहीं होते हैं। इसका खामियाजा पाठकों को उठाना पड़ता है। पुस्तकालयाध्यक्ष के पद पर बहुत ही जागरूक एवं बौद्धिक लोगों को नियुक्त किया जाना चाहिए। पहले पुस्तकालयाध्यक्ष को मात्र एक क्लर्क के रूप में ही मान्यता प्राप्त थी लेकिन आज पुस्तकालयाध्यक्ष का पद एक सम्मानित पद माना जाता है। 

सूचना विस्फोट के इस युग में पुस्तकालयाध्यक्षों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे पुराने ढर्रे पर चल रही कार्यप्रणाली को बदलें। पुस्तकालयाध्यक्ष का पद मात्र एक पद भर नहीं है बल्कि यह समाज सेवा का एक एेसा मंच भी है जहां बैठकर आप समाज में ज्ञान का प्रकाश फैलाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। बच्चे किसी भी समाज का भविष्य होते हैं। अत: हमें कुछ एेसे प्रयास करने होंगे जिससे कि बच्चों में बचपन से ही पढऩे की प्रवृत्ति विकसित हो सके। यदि हम आज बच्चों में पढऩे की प्रवृत्ति विकसित कर सके तो कल पुस्तकों पर छाया संकट अपने आप ही दूर हो जाएगा।

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज बच्चों को पुस्तकों से जोडऩे की कोई कोशिश नहीं हो रही है। दरअसल पढ़ाई के दबाव के कारण बच्चे कोर्स की किताबें तो पढ़ते हैं। साथ ही उलटे-सीधे कॉमिक्स पढऩे में रुचि लेते हैं। लेकिन अच्छा बाल साहित्य पढऩे में उनकी रुचि नहीं होती है (माता-पिता भी बच्चों को अच्छा बाल साहित्य पढ़ाने की कोई कोशिश नहीं करते हैं)। स्कूल की पढ़ाई से समय मिलने पर बच्चे टी.वी. से चिपक जाते हैं। टी.वी. के विभिन्न चैनल आजकल बच्चों को जो कुछ सिखा रहे  हैं वह किसी से छिपा नहीं है। फलस्वरूप बच्चों में पढऩे की प्रवृत्ति तो विकसित हो ही नहीं पाती है, साथ ही उनमें नए संस्कार पनप जाते हैं जो उन्हें अपनी जमीन से जुडऩे नहीं देते हैं। 

अब समय आ गया है कि सरकार प्राथमिक स्कूलों में भी पुस्तकालयों की स्थापना करे। साथ ही बच्चों को इन पुस्तकालयों से सक्रिय रूप से जोडऩे की कोशिश भी की जानी चाहिए ताकि उनमें प्रारंभ से ही पढऩे की प्रवृत्ति विकसित हो सके। 

देश के पुस्तकालयों की दयनीय स्थिति को सुधारने में ‘पुस्तकालय अधिनियम’ अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। अभी तक ‘पुस्तकालय अधिनियम’ देश के कुछ राज्यों में ही पारित हुआ है। आज पुस्तकालयों में प्राण फूंकने के लिए नए पुस्तकालय-आंदोलन की आवश्यकता है। भले ही हिन्दी प्रेमी एवं विभिन्न बुद्धिजीवी हिन्दी पुस्तकों के संकट पर कितनी ही चर्चा क्यों न कर लें लेकिन हिन्दी पुस्तकों पर छाया संकट तब तक दूर होने वाला नहीं है जब तक कि हिन्दी भाषी समाज में पढऩे की प्रवृत्ति विकसित नहीं होगी। नि:संदेह पुस्तकालय इस कार्य को बखूबी अंजाम दे सकते हैं बशर्ते इनकी स्थिति में कोई गुणात्मक परिवर्तन हो। 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सरकार कभी-कभी पुस्तकालयों के विकास की बात कहती तो जरूर है लेकिन उसकी नीतियों में ‘पुस्तकालयों का विकास’ है ही नहीं। इसलिए अब समय आ गया है कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग पुस्तकालयों की दयनीय स्थिति को सुधारने के लिए सरकार पर दबाव डाले।-रोहित कौशिक
 


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