तरक्की की उम्मीद सरकार से नहीं, खुद से होनी चाहिए

punjabkesari.in Saturday, Mar 20, 2021 - 04:28 AM (IST)

आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, अपनी सहायता स्वयं करना जैसे शब्द आज से नहीं, सैंकड़ों वर्षों में जनमानस के कानों में पड़ते रहे हैं। नेताआें का तो यह एक तरह से तकिया कलाम ही है जिसका इस्तेमाल वे अक्सर करते हैं, विशेषकर तब, जब उन्हें किसी की मदद करने से बचना होता है। परिवार हो या समाज जब सब आेर से निराशा होने लगती है तब एक ही वाक्य काम आता है कि ‘खुद ही कुछ करना होगा क्योंकि अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं पहुंचा जा सकता’। 

बहकावे का खेल : स्पष्ट नीतियों और दृढ़ तथा सुनिश्चित  विचारधारा के अभाव और योजनाआें पर अमल करने की अयोग्यता के कारण जब किसी सरकार के काम की आलोचना होती है तो उसका नतीजा एक से एक शानदार बहाने बना कर लोगों को भरमाए रखने के अंतहीन सिलसिले के रूप में शुरू हो जाता है। लोगों के मन में यह बात भी भरी जाती है कि  पिछली सरकारों के निकम्मे होने के कारण अब हमें ही सब कुछ शुरू से करना पड़ रहा है, इसलिए वक्त तो लगेगा ही। विपक्ष भी यह दोहराता रहता है कि यह सरकार तो बस दो चार पूंजीपतियों को ही मालामाल करने में लगी है और हमारे हाथ में सत्ता आते ही सारी परेशानियां चुटकी भर में दूर हो जाएंगी। 

इस तरह के छलावे करना राजनीतिज्ञों  के लिए तो सही हो सकता है लेकिन जब यही नजरिया समाज और परिवार में अपनी जड़ें जमाने लगता है तो खुद पर से विश्वास उठने लगता है, व्यक्ति असहाय महसूस करते हुए अपनी सोच को कुंद कर लेता है अपने पौरुष पर शंका करने लगता है और हालात से समझौता करने के अलावा उसे कोई रास्ता नहीं सूझता। 

खुद पर विश्वास कैसे हो : इसे समझने के लिए एक घटना का जिक्र करता हूं। बहुत साल पहले ‘चलो गांव की आेर’ कार्यक्रम का आकाशवाणी से प्रसारण होता था। एक तेलुगु महिला का पत्र आया कि वह अपने चार बच्चों के साथ आत्महत्या करने जा रही थी और एक दुकान के पास कुछ देर आराम करने के लिए रुक गई। दुकान में रेडियो से यह प्रोग्राम सुनने लगी जिसका असर यह हुआ कि सोचने लगी कि मैं आत्महत्या क्यों कर रही हूं? 

इस कार्यक्रम में मुख्य भूमिका में नट और नटी अपने अभिनय से औरतों द्वारा अपनी मदद खुद करने की बात कहते हुए गांव के सरपंच या ब्लॉक डिवैल्पमैंट अधिकारी के पास जाने को कह रहे थे। इस महिला ने पत्र में इसका जिक्र करते हुए लिखा कि वह पंचायत में गई जिसकी सरपंच महिला थी और अपनी आपबीती सुनाई तो सरपंच ने डांट कर कहा कि मरने से तुझे और तेरे बच्चों को क्या मिलेगा? उसके बाद उसे गांव में सरपंच के बनाए महिला स्वयं सहायता समूह से बिना ब्याज कुछ रुपए मिले, जिससे भूख मिटी और जो काम उसे आता था उसे करने के साधन मिले, जिससे वह आज अपने पैरों पर खड़ी है। 

अगर इस घटना को बड़ा कर के देखा जाए तो यह देश के हरेक उस नागरिक का भला कर सकती है जो भूख, गरीबी, बेरोजगारी से जूझ रहा है। इसका मतलब यह है कि अगर सामान्य नागरिक के मन में अपने सहयोगी, कर्मचारी, सेवक या फिर पड़ोसी के किसी दु:ख का पता चलने पर उसकी दिक्कत दूर करने का भाव पैदा हो जाए और वह अपनी हैसियत के अनुसार मदद कर दे तो यह किसी क्रांति से कम नहीं होगा। एेसी ही एक और घटना है जो बाल मजदूरों और बेसहारा भीख मांगते बच्चों और मजबूरी में किसी के आगे हाथ फैलाते लोगों से जुड़ी है। आमतौर पर सरकार का व्यवहार इन्हें पकड़कर किसी आश्रम या अनाथालय या जेल जैसे सुधार घर में डाल दिए जाने का होता है। 

कुछेक संवेदनशील लोगों, जैसे कि बचपन बचाआे आंदोलन के प्रवत्र्तक कहे जाने वाले कैलाश सत्यार्थी ने बाल मजदूरों और भीख मांगते बच्चों को बिना किसी सरकारी सहायता या हस्तक्षेप के उनकी प्रतिभा के अनुसार उन्हें शिक्षित करने और उनके हुनर को पहचान कर प्रशिक्षित करने का इंतजाम किया तो अनेक परिवारों की पीढिय़ों तक का भला हो गया। इसी तरह दुनिया की सबसे धनी महिलाआें में से एक मेङ्क्षलडा गेट्स ने भारत में उन दूर-दराज के इलाकों की महिलाआें को आत्मनिर्भर बनाने का काम शुरू किया जिन तक पहुंचना किसी भी सरकार की प्राथमिकता नहीं थी। हमारे देश में ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो बिना किसी उम्मीद के आसपास रहने वालों की यथासंभव मदद करते रहते हैं जिसे न वे याद रखते हैं और न ही उस व्यक्ति को जताते हैं जिसके लिए उन्होंने कुछ किया था। 

आदत-सी बन जाए : असल में यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जो जीना सिखाती है और अगर धार्मिक अंदाज में कहें तो इसे पुण्य कमाना या अपना परलोक सुधारना कह सकते हैं। बिना किसी प्रकार की अपेक्षा रखते हुए अपनी संतान और पूरे परिवार के लिए यदि कोई व्यक्ति कुछ करता है तो यह एक प्रकार का सुखद अहसास होने जैसा होता है। व्यापार की दुनिया, विशेषकर विज्ञापन के व्यवसाय में यदि आप अपने क्लाइंट अर्थात उपभोक्ता की भलाई को सबसे प्रमुख रखकर काम करेंगे तो आपका अपना भला स्वयं हो जाएगा। सोच यह बनेगी कि मैंने अपनी आेर से ईमानदारी से पूरी कोशिश की लेकिन अगर परिणाम अपने मन के मुताबिक नहीं निकले तो इसका मतलब यह है कि कहीं कुछ कमी थी जिसे दूर कर फिर से कोशिश की जाए तो कामयाबी मिलना कोई बड़ी बात नहीं है। 

अगर यह सोच बन जाए तो व्यक्ति बहुत से एेसे काम करने से बच सकता है जो समाज के लिए नुक्सानदायक हैं, जैसे कि कम तोलना, खाने-पीने की चीजों में मिलावट करना या किसी दूसरे के घायल होने पर  सहायता करने की बजाय बच कर निकल जाना अथवा किसी को दुखी देखकर उसमें अपने लिए खुशी ढूंढना। इस सब का निष्कर्ष यही है कि जब तक व्यक्ति को अपनी मदद स्वयं करना नहीं आएगा, तब तक वह दूसरों का मुंह ताकता रहेगा और आत्मनिर्भर बनना तो दूर, अपना आत्मविश्वास भी खो बैठेगा।-पूरन चंद सरीन
 


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