पराली जलाने की समस्या, किसानों के ‘अर्थशास्त्र’ पर ध्यान देना होगा

punjabkesari.in Thursday, Oct 17, 2019 - 01:51 AM (IST)

अक्तूबर के महीने में पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में धान की कुछ शुरूआती किस्मों की कटाई के बाद उसकी पराली को जलाने के कारण प्रदूषण संबंधी समाचार सामने आने लगे हैं। गेहूं की बिजाई की समय सीमा हासिल करने के प्रयास में नवम्बर में यह समस्या और भी गम्भीर हो जाती है। 

धान की कटाई तथा गेहूं की बिजाई के बीच का बहुत कम समय इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के साथ-साथ राष्ट्रीय राजधानी में रहने वाले लोगों के लिए एक दु:स्वप्न बन गया है जहां पहले से ही मौजूद प्रदूषण की गम्भीर समस्या हजारों की संख्या में जलते खेतों के धुएं से और भी बढ़ जाती है। जब तक सर्दी की बारिशें इसे नीचे लाने के लिए नहीं आतीं, स्मॉग हवा में मंडराता रहता है। 

पर्यावरणविद् इस गम्भीर मुद्दे को लेकर जागे हैं और खतरे को सामने लाने के लिए सैमीनारों, कांफ्रैंसों व कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है, जिनमें स्वास्थ्य संबंधी जानकारी के साथ-साथ किसानों को शिक्षित भी किया जा रहा है। राज्य सरकारें भी तकनीक तथा मशीनरी द्वारा इस मसले से निपटने के बड़े वायदों के साथ आगे आई हैं, जिसके साथ किसानों को अपने कटाई वाले खेतों में आग लगाने से रोकने के लिए प्रतिरोधी उपाय किए जा रहे हैं। 

एन.जी.टी. ने लिया संज्ञान
इस बार राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एन.जी.टी.) ने भी खतरे का संज्ञान लेते हुए राज्य सरकारों से उपयुक्त कदम उठाने को कहा है। इस वर्ष प्राधिकरण ने ऐसे खेतों में आग लगाने के सामान्य समय से पूर्व चेतावनी दी थी। इसने पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिवों को अगले एक महीने के लिए रोजमर्रा के आधार पर वायु प्रदूषण के स्तर की समीक्षा करने हेतु विशेष प्रकोष्ठ गठित करने के निर्देश दिए हैं। अपने सामने रखे आंकड़ों का हवाला देते हुए आयोग ने यह पाया कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 25-30 प्रतिशत वायु प्रदूषण प्रत्येक वर्ष अक्तूबर तथा नवम्बर में दिल्ली तथा आसपास फसलों के अवशेष जलाने के कारण होता है।

प्राधिकरण द्वारा बुलाई गई एक बैठक में सुझाव दिया गया कि समझाने तथा कड़ाई बरतने की नीति अपनाई जाए। इस नीति के अंतर्गत जो लोग पराली को न जलाकर पर्यावरण में मदद देंगे, उन्हें प्रोत्साहन देकर पुरस्कृत किया जाना चाहिए तथा इसी तरह जो ऐसा नहीं करेंगे, उनको दी गई सुविधाएं तथा प्रोत्साहन वापस ले लिए जाएं। बैठक में एक प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि किसानों को फसल प्रबंधन की आधुनिक मशीनें उपलब्ध करवाई जाएं तथा फसलों  के अवशेष को जैविक खाद में बदलने के लिए विकेन्द्रीकृत कम्पोस्टिंग को प्रोत्साहित किया जाए। 

जहां प्रदूषण फैलने से पूर्व यह मुद्दा उठाने के लिए प्राधिकरण प्रशंसा का पात्र है, वहीं संबंधित राज्य सरकारें प्रभावी कदम उठाने में अपेक्षाकृत धीमी हैं। उदाहरण के लिए पंजाब में 2017 में पराली जलाने के 43,660 मामले रिपोर्ट किए गए लेकिन 2018 में यह संख्या बढ़ कर 45,397 हो गई। हरियाणा में बेहतरी के लिए बहुत मामूली बदलाव था, जहां 2017 में आधिकारिक तौर पर 16,032 मामले रिपोर्ट किए गए, जो 2018 में कम होकर 13,371 रह गए। विडम्बना यह है कि पंजाब दावा करता है कि राज्य में हवा की गुणवत्ता दिल्ली के मुकाबले कहीं बेहतर है और इसलिए दिल्ली में प्रदूषण को ही दोष दिया जाना चाहिए। 

मशीनों के लिए सबसिडियां
दोनों सरकारों ने गत वर्ष ऐसी मशीनों को खरीदने के लिए सबसिडी उपलब्ध करवाने हेतु योजनाओं की घोषणा की थी, जो पराली का प्रबंधन करने में मदद करती हैं। इनमें हैप्पी सीडर्स मशीन्स, मल्चर्स, चॉपर्स, सुपर स्ट्रा मैनेजमैंट सिस्टम्स (एस.एम.एस.), मोल्ड बोर्ड प्लोज, रोटरी स्लैशर्ज तथा जीरो टिल ड्रिल्स शामिल हैं। यद्यपि आंकड़े दर्शाते हैं कि इन सबसिडियों का बहुत कम प्रभाव पड़ा है। यहां तक कि बलपूर्वक ऐसा करवाने के उपाय भी काम नहीं आए। पंजाब सरकार ने अपने खेतों में आग लगाने वाले किसानों पर जुर्माना लगाने जैसे कदम उठाए लेकिन किसानों तथा राजनीतिक दलों द्वारा विरोध के बाद उसे अपने कदम वापस खींचने पड़े। हरियाणा भी किसानों की ओर से किए जाने वाले विरोध को लेकर सतर्क है तथा विधानसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर उनके गुस्से को आमंत्रित नहीं करेगा।

ऐसी सबसिडियों की असफलता का मुख्य कारण यह है कि दोनों राज्यों में अधिकतर संख्या में खेत खंडित तथा छोटे हैं। वे किसान, जिन्हें सीमांत किसानों तक सीमित कर दिया गया है, का कहना है कि वे सबसिडियों के बावजूद मशीनें खरीदने में असमर्थ हैं। उनका कहना है कि मशीनों का इस्तेमाल साल में केवल एक बार किया जा सकता है और उनके पास ऐसी मशीनों को खरीदने तथा उनका रखरखाव करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। किसानों, विशेषकर छोटे तथा सीमांत किसानों की अर्थव्यवस्था में लगातार हो रहे क्षरण को देखते हुए ऐसी मशीनों को खरीदने में उनकी अनिच्छा को समझना कठिन नहीं है। विडम्बना है कि उनकी समस्या एक  ऐसी चीज से शुरू होती है जिसे 1990 के दशक के अंत में कम्बाइन हार्वैस्टर लाने के साथ उनकी उत्पादन लागत में कमी की आशा की गई थी। 

जहां हार्वैस्टर की प्रचलित दरें लगभग 1400 रुपए प्रति एकड़ हैं, मैनुअल हार्वैसिं्टग पर प्रति एकड़ लगभग 1700 रुपए लागत आती है। इसके साथ ही मुख्य रूप से मनरेगा जैसी योजनाओं के कारण मजदूरों की कमी उनके बारे में अनिश्चितता में वृद्धि करती है। 

कम्बाइन हार्वैस्टर की समस्या
इसके परिणामस्वरूप किसानों ने कम्बाइन हार्वैस्टर को चुना लेकिन इन मशीनों के साथ एक बड़ी समस्या थी क्योंकि ये फसल को जमीन के करीब से नहीं काटती थीं तथा 2 से 3 इंच की पराली छोड़ देती थीं। किसान हाथों से धान नहीं बीज सकते थे क्योंकि तीखी पराली से उनके हाथ जख्मी हो जाते। इन खूंटों को हटाने के लिए मजदूरों को काम पर लगाने का अर्थ फसल की कटाई की लागत में तीव्र वृद्धि करना है। इसलिए आसान तरीका खेतों में आग लगाकर पराली को जलाना था। आग न केवल प्रदूषण का कारण बनती है बल्कि यह खेतों को उन पोषक तत्वों से वंचित करती है जो पराली के साथ जमीन में वापस मिल जाते हैं। विशेषज्ञ यही किसानों को कह रहे हैं लेकिन पराली की समस्या से निपटने के लिए मशीनों की तैनाती के रास्ते में अर्थशास्त्र आड़े आता है। 

विशेषज्ञों का कहना है कि फसल की कटाई के लिए कम्बाइन हार्वैस्टर को किराए पर देने अथवा अनुबंध लेने के मॉडल को हैप्पी सीडर जैसी मशीनों के लिए भी अपनाया जा सकता है। या तो ऐसी मशीनें प्राप्त करने के लिए सरकार को अति सक्रिय होना पड़ेगा अथवा खेतों में आग लगाने की समस्या को समाप्त करने के लिए निजी उद्यमों को सहयोग देना होगा।-विपिन पब्बी


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