‘भ्रष्टाचार’ के तांडव में किसी से पीछे नहीं पुलिस

punjabkesari.in Tuesday, Aug 18, 2020 - 12:16 PM (IST)

अंग्रेजों ने भारत के राजाआें-महाराजाआें को भ्रष्ट बनाकर पहले भारत गुुलाम बनाया तथा फिर योजनाबद्ध तरीके से हर विभाग में भ्रष्टाचार का बीज रोपित किया। भ्रष्टाचार मानव व्यवहार का शायद एक एेसा पैतृक पहलु है जो मानव मनीषा के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आ रहा है। 

भ्रष्टाचार पूरे विश्व का एक अमिट अंग बन कर रह चुका है तथा कुछ लोग ही हैं जो अपने संस्कारों की वजह से इससे अछूते रह पाए हैं तथा जिनके मजबूत कंधों पर मानव सम्यता की सुदृढ़ नींव खड़ी है। भारत की बात करें जो ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल एजैंसी के आकलन के अनुसार, कुल 180 देशों में से भारत 80वें पायदान पर खड़ा है। आज हर विभाग में हर तीसरा व्यक्ति नैतिकता के मूल्यों को तिलांजलि देता हुआ प्रतीत होता है। एेसा हो भी क्यों न जब बॉस ही किसी निषेध फल को खाना शुरू कर दे तब अधीनस्थ तब तक चैन से नहीं बैठते जब तक वे उस पेड़ को जड़ों से उखाड़ कर न ले जाएं। 

इसी की पृष्ठभूमि में पुलिस विभाग जिसका मुख्य कार्य भ्रष्टाचार की रोकथाम करना व कानून-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाना होता है आज भ्रष्टाचार का पर्याय बनता दिखाई दे रहा है। यह सही है कि कई अन्य विभाग पुलिस से भी कहीं अधिक भ्रष्ट हैंं तथा वे एक गहरे समुद्र में उन मगरमच्छों की तरह तैर कर समुद्र के पानी को पी रहे हैं जो पानी को पीते हुए दिखाई नहीं देते। पुलिस तो इन भ्रष्ट लोगों पर शिकंजा कसने वाली संस्था है तथा इसका खुद ही भ्रष्टाचार में संलिप्त रहना किसी को भी गंवारा नहीं हो सकता। 

पुलिस के अधिकारियों व कर्मचारियों को एक उच्चकोटि का प्रशिक्षण देकर तथा एक हीरे की तरह तराश कर समाज की सेवा के लिए उतारा जाता है मगर कुछ ही वर्षों के बाद वे मानवीय मूल्यों को ताक पर रख कर पुलिस की परम्परागत अपसंस्कृति में ढल जाते हैं। पुलिस वाले समझने लग जाते हैं कि उनका अधिकार क्षेत्र बहुत बड़ा है तथा इसका नाजायज प्रयोग करना स्वाभाविक हो जाता है। 

आमतौर पर देखा जाता है कि पुलिस समय पर किसी की एफ.आई.आर. नहीं लिखती तथा यदि लिख भी ले तो तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर (कम या ज्यादा) प्रस्तुत किया जाता है। कई बार संज्ञेय अपराध को केवल निवारक कार्रवाई (धारा 107/50/51सी.आर.पी. सी.) के रूप में तबदील कर दिया जाता है। आत्महत्या वाली घटनाआें को भी कई बार साधारण प्राकृतिक मौत का रूप दे दिया जाता है। पीड़ित व्यक्तियों को अनावश्यक रूप से थाने में बार-बार बुलाया जाता है तथा अपराधियों के साथ समझौता करनेे के लिए भी दबाव डाला जाता है। 

पीड़ित व्यक्तियों से लेखन सामग्री के लिए पैसे लेना तथा फिर घटना स्थल पर जाने के लिए गाड़ी उपलब्ध करवाने की मांग करना, सम्मन वारंट की तामील व चरित्र सत्यापन इत्यादि करने के लिए पैसे की इच्छा रखना तो आम देखने को मिलता है। ट्रैफिक चालानों व बैरियर/नाकों इत्यादि पर पुलिस का नाजायज तौर पर लोगों को तंग करना आम सुनने व देखने को मिलता है। मगर अब प्रश्न उठता है कि पुलिस एेसे कारनामों को करने के लिए क्यों विवश हो जाती है? बहुत से राज्यों में अधीनस्थ कर्मचारी व अधिकारी पुलिस में प्रवेश करनेे के लिए मोटी रकम देकर विभाग में अपना कदम रखते हैं तथा स्वाभाविक है कि इस भरपाई के लिए उन्हें ऐसे अनैतिक कार्य करने पड़ते हैं। 

समाज के ठाठ-बाट व लोगों का बढ़ता हुआ जीवन स्तर भी पुलिसमैन को अपना स्टैंडर्ड ऊंचा करने के लिए आकर्षित करता है। रात-दिन के लम्बे समय की ड्यूटी व मजदूर जितनी मासिक आय भी उन्हें दूसरे नम्बर की कमाई करने के लिए बाध्य करती है। इसके अतिरिक्त पुलिस वालों को कई विभागों जैसे अभियोजन पक्ष/कार्यकारिणी मैजिस्ट्रेट व न्यायालय इत्यादि से वास्ता पड़ता ही रहता है तथा परम्परागत रिवाजों को निभाने के लिए कहीं न कहीं उन्हें इनकी भी किसी न किसी प्रकार की बेगार करनी पड़ती है।

इसी तरह अपने वरिष्ठ अधिकारियों की भी कोई न कोई बेगार जैसा कि उनके मेहमानों को होटलों में ठहराना या फिर सस्ते दामों पर गाड़ी उपलब्ध करवाना इत्यादि ये सब कार्य करने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त अपने राजनीतिक आकाआें के अनुचित आदेशों की पालना करना तो इनकी मजबूरी भी व पसंद भी बन जाती है। पुलिस का नेतृत्व भी इसके लिए काफी सीमा तक जिम्मेदार है। हर विभाग की तरह पुलिस का नेतृत्व भी तीन प्रकार का है। पहले स्थान पर वे अधिकारी हैं जो स्वयं पूर्णतया ईमानदार हैं मगर उनकी पकड़ ढीली होने के कारण उनके अधीनस्थ कर्मचारी बेलगाम घोड़ों की तरह फुदकते रहते हैं।

दूसरे स्थान पर वे अधिकारी हैं जो मौके के अनुसार अपने आप को ढाल कर रखते हैं। वे बाहरी तौर पर ईमानदार दिखते हैं मगर उनका संबंध कुछ एेसे रसूखदार व पैसे वाले लोगों से होता है जो उनका हर अच्छा या बुरा कार्य करते रहते हैं तथा उसके बदले में वे छोटे कर्मचारियों पर रौब जमाकर अपना काला धंधा करते रहते हैं। तीसरी श्रेणी में वे अधिकारी हैं जिनकी संख्या केवल 5 प्रतिशत होती है तथा वे पूर्णतया भ्रष्ट होते हैं। वे हमेशा भ्रष्ट कर्मचारियों के साथ अपनी सांठ-गांठ बना कर रखते हैं। 

वैसे तो भ्रष्टाचार के हमाम में समाज के अधिकतर लोग नंगे हैं तथा पुलिस के लोग भी इंसान होने के नाते इन लोगों के प्रलोभन में फंस ही जाते हैं, क्योंकि यदि समुद्र ही गंदा हो तो स्वच्छ टापू की तलाश करना नामुमकिन ही होगा। उन्हें इस बात को कभी भी भूलना नहीं चाहिए कि वे अपने पद से सुशोभित नहीं बल्कि उनका यह पद उनके व्यक्तित्व, सद्गुण की जमीर की तरंगों से सुशोभित होता है। खरीददार तो एेसे लोगों को खरीदने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं, मगर पुलिस जवानों को एक सिंह की तरह अपना सिर ऊंचा उठा कर रखना चाहिए जिन्हें खरीदने की किसी की हिम्मत ही न हो सके। 

पुलिस के लिए 3 मुख्य घटक धन, शराब, और पराई औरत एक दुश्मन की तरह काम करते हैं तथा उन्हें अपना चाल, चरित्र व चेहरा साफ रखने के लिए इन सभी से बच कर रहना चाहिए। उन्हें कोई भी एेसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे उनकी वर्दी दागदार हो जाए जिसे पहनकर वे एक पुलिसमैन की अहमियत रखते हैं। पुलिसवालों को याद रखना चाहिए कि उनका एक एेसा बड़ा अवगुण उनके बाकी अनेक गुणों पर भारी पड़ कर उनकी छवि को धूमिल कर देता है। 

पूरे देश के राज्यों की पुलिस के भ्रष्टाचार स्तर की यदि विवेचना की जाए तो ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल के अनुसार राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, तेलंगाना, पंजाब, कर्नाटक व तमिलनाडु क्रमश: भ्रष्ट पुलिस की संज्ञा में आते हैं तथा केरल और उसके बाद हिमाचल पुलिस सबसे कम भ्रष्ट पुलिस मानी जाती है। हिमाचल पुलिस का नेतृत्व हमेशा स्वच्छ, ईमानदार व उत्कृष्ट श्रेणी का रहा है मगर फिर भी काफी सुधार लाने की गुंजाइश है तथा नेतृत्व के हर स्तर पर पारदर्शिता लाने की आवश्यकता है। मकसदे जिंदगी न खो यूं ही उम्र कर गुजार। अक्ल कर, होश को जगा, बनाकर जमीर को अपना हथियार॥-राजेन्द्र मोहन शर्मा डी.आई.जी. (रिटायर्ड)


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