विपक्षी एकता अब दूर की कौड़ी

punjabkesari.in Wednesday, Apr 12, 2023 - 04:07 AM (IST)

क्या प्रधानमंत्री मोदी को परास्त किया जा सकता है? उन्हें परास्त करने के लिए क्या करना होगा? क्या उनका कोई विकल्प है? क्या कोई ऐसा नेता है जो उनकी बराबरी कर सकता है? क्या विपक्ष में एकजुटता हो सकती है? क्या विपक्षी दल ऐसा करने के लिए तैयार हैं? ऐसे अनेक प्रश्न हैं। 

राकांपा नेता शरद पवार ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को हिंडनबर्ग-अडानी मुद्दे पर संयुक्त संसदीय समिति (जे.पी.सी.) के गठन की मांग पर कहा है कि उन्हें जे.पी.सी. के गठन में कोई तर्कसंगतता नहीं दिखाई दे रही है और अडानी को निशाना बनाया जा रहा है और इस प्रकार उन्होंने विपक्षी दलों में एकता की मृग मरीचिका को भी भेद दिया है। उन्होंने कहा कि मेरे विचार से बेरोजगारी, महंगाई, किसानों के मुद्दे जैसे रोजी-रोटी से जुड़े हुए मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण हैं। 

उन्होंने ऐसे समय पर कुछ अन्य दलों की भावनाओं को व्यक्त किया जब कांग्रेस नेतृत्व विपक्षी एकता के लिए उनकी मेजबानी करने की तैयारी कर रहा है और यह बताता है कि अडानी मुद्दे पर विपक्षी दलों में भी मतभेद हैं। 

इस मामले में पवार और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी के विचार एक समान लगते हैं और उन्होंने जे.पी.सी. के गठन के लिए कांगे्रस के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन से दूरी बना ली थी। मोदी द्वारा प्रत्येक दिन भ्रष्टाचार पर हमला करने को विपक्ष अडानी मुद्दे और अपने विरुद्ध चलाए जा रहे अभियान को निष्फल करने के रूप में देखता है और नेतृत्व, विकास, हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के साथ-साथ एक चौथा मुद्दा भी उठाया जा रहा है। विशेषकर उच्चतम न्यायालय द्वारा विपक्षी नेताओं के विरुद्ध सी.बी.आई. और प्रवर्तन निदेशालय के दुरुपयोग के विरुद्ध विपक्ष की याचिका को सुनने से इंकार करने के बाद एेसा देखने को मिल रहा है। इसके अलावा भाजपा ने इसमें हिन्दुत्व की विचारधारा को समाहित कर राजनीतिक माहौल को बदला है। 

विपक्षी दल इस मोर्चे पर इसका विरोध करने के लिए सांझा वैचारिक आधार या नरम हिन्दुत्व अपनाने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं। मोदी को अपने व्यक्तित्व और विपक्षी दलों में मतभेद का लाभ मिल रहा है। हालांकि इसके परिणाम गिलास आधा भरा या आधा खाली हो सकता है। कांग्रेसी नेता भी सशंकित हैं कि क्या अडानी मुद्दे से लोगों में राजनीतिक और चुनावी जागृति पैदा हो रही है या इसका भी वही हश्र होगा जो 2019 के चुनावों से पूर्व राहुल द्वारा बनाए गए राफेल मुद्दे का हुआ था क्योंकि उस समय भी राफेल मुद्दा मतदाताओं को नहीं लुभा पाया था और भाजपा को प्रशासन की अनेक खामियों और कमियों से मतदाताआें का ध्यान हटाने में मदद मिली। 

न जाने क्यों राहुल को अपनी बात से मुकरने की आदत पड़ गई है। वे बार-बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक सावरकर के विरुद्ध टिप्पणियां करते हैं जिससे महाराष्ट्र में उनके सहयोगी उद्धव ठाकरे की पार्टी नाराज हो गई है जो उन्हें महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मानती है। क्या ये सभी 16 विपक्षी दल जिन्होंने अडानी मुद्दे पर कांगे्रस के साथ संसद में विरोध प्रदर्शन किया, क्या वे एकजुट रह पाएंगे, इस बारे में अनेक आशंकाएं हैं। 

ममता ने पहले ही घोषणा कर दी है कि वे 2024 का चुनाव अकेले लड़ेंगी और किसी भी विपक्षी गठबंधन में शामिल नहीं होंगी। उन्होंने यह घोषणा राज्य में उपचुनाव में कांग्रेस-माकपा के संयुक्त उम्मीदवार द्वारा तृणमूल के उम्मीदवार को हराने के बाद की। यही रुख समाजवादी पार्टी के अखिलेश का भी है। साथ ही कांग्रेस में कुछ नेताओं का मानना है कि पार्टी नेतृत्व को मोदी सरकार के विरुद्ध अभियान को व्यापक बनाना चाहिए और उसमें ऐसे आॢथक मुद्दे भी शामिल करने चाहिएं जो आम आदमी को प्रभावित कर रहे हैं। 

महाराष्ट्र में पवार की राकांपा, कर्नाटक में गोंडा की जद (एस), उत्तर प्रदेश में अखिलेश की सपा, मायावती की बसपा तथा वामपंथी दल आदि को मिलाकर लगभग 80 सीटें हैं। वामपंथी दल की अब केरल के अलावा कहीं उपस्थिति नहीं रह गई है किंतु दूसरी आेर आेडिशा में पटनायक की बीजद और आंध्र प्रदेश में जगनरैड्डी की वाई.एस.आर.-सी.पी. को किसी राजनीतिक शिविर में जाने के बजाय अपने-अपने राज्य महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, हिमाचल, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला है जहां से लोकसभा की 90 सीटें हैं। 

कांग्रेस स्वयं को विपक्षी एकता का केंद्र मानती है किंतु वह दो कटु वास्तविकताओं को नजरअंदाज करती है कि पहले वह अपनी पार्टी में व्यवस्था बनाने का संघर्ष कर रही है और विभिन्न राज्य इकाइयों में विद्रोह हो रहा है। दूसरा, उसका चुनावी गणित उसके पक्ष में नहीं है जैसा कि हाल ही में पूर्वोत्तर क्षेत्र में देखने को मिला है और त्रिपुरा विधानसभा चुनावों में माकपा के साथ उसका गठबंधन था पर वह अपने मतों को माकपा को अंतरित नहीं करा पाई और इससे अन्य दल चिंतित हैं। 

विपक्षी दलों में तब भी एकता का अभाव देखने को मिला जब 8 विपक्षी दलों ने आप के मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के विरुद्ध पत्र लिखा। किंतु कांग्रेस सहित 3 विपक्षी दलों ने ऐसा नहीं किया। यही स्थिति तेलंगाना में भी है जहां पर चन्द्रशेखर राव की बी.आर.एस. और कांग्रेस आमने-सामने हैं। इसलिए कांग्रेस विपक्षी एकता का आधार और उसमें अड़चन दोनों हैं। जब तक कांग्रेस अपने अहंकार को नहीं त्याग देती और क्षेत्रीय नेताओं के साथ बातचीत के लिए पहल नहीं करती और अनचाहे ही सही उन्हें राजनीतिक स्थान नहीं देती तब तक विपक्षी एकता की बातें सफल नहीं होंगी। 

भाजपा को हराना और मोदी को हटाने का लक्ष्य स्पष्ट है किंतु जिस तरह से विपक्षी दलों में अहंकार, नकारात्मकता और अपने-अपने स्वार्थ हैं, उससे यह आसान नहीं है। दुर्भाग्यवश विपक्षी या उनके नेताओं ने पिछले 8 वर्षों में मतदातों को समझाने का कोई प्रयास नहीं किया है कि वे भाजपा से बेहतर शासन दे सकते हैं। इस वर्षांत विशेषकर कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव भाजपा और विपक्षी दलों के लिए सैमीफाइनल होगा जहां पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर है।-पूनम आई. कौशिश
 


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