नागरिकता संशोधन विधेयक में ‘विवाद’ जैसा कुछ भी नहीं

punjabkesari.in Saturday, Dec 14, 2019 - 01:17 AM (IST)

राज्यसभा से नागरिकता संशोधन विधेयक (सी.ए.बी.) पास होने के बाद से ही लगातार असम में इसका विरोध हो रहा है। इस बिल में यह प्रावधान किया गया है कि अब पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान में रहने वाले ‘अल्पसंख्यक समुदाय’ जैसे हिन्दू, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई अगर भारत में शरण लेते हैं तो उनके लिए भारत की नागरिकता हासिल करना आसान हो गया है। यह विधेयक उन पर लागू होगा जिन्हें इन 3 देशों में धार्मिक आधार पर प्रताडि़त किए जाने के कारण भारत में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन इनर लाइन परमिट वाले राज्य (यानी यहां प्रवेश से पहले बाहरी व्यक्तियों को अनुमति हासिल करनी पड़ती है) और छठी अनुसूची के क्षेत्रों को नागरिकता संशोधन कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। 

इसका मतलब उत्तरपूर्व के अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा और असम के कुछ इलाकों में यह लागू नहीं होगा। इसलिए देखा जाए तो इस बिल में ‘विवाद’ अथवा ‘विरोध’ जैसा कुछ नहीं था लेकिन फिर भी जिस प्रकार से विपक्ष ने संसद के दोनों सदनों में सैक्युलरिज्म और संविधान के नाम पर इस बिल का विरोध किया और देश की जनता को भ्रमित करने की कोशिश की, उनका यह आचरण अपने आप में विपक्ष की भूमिका पर ही कई सवाल खड़े कर गया। संविधान के नाम पर धार्मिक आधार पर अत्याचार की हद तक प्रताडि़त होकर भारत आने वाले गैर-मुस्लिम शरणाॢथयों के प्रति विपक्षी दलों की इस संवेदनहीनता ने उनकी स्वार्थ की राजनीति को देश के सामने रख दिया। लेकिन इससे इतर जिन मुद्दों पर विपक्ष ने इस बिल का विरोध किया उससे तर्कों की कमी को लेकर उनकी बेबसी भी सामने आई। 

विपक्ष को अब यह समझना चाहिए कि उनके द्वारा सरकार पर बार-बार ‘संविधान के साथ खिलवाड़’ और ‘लोकतंत्र की हत्या’ जैसे रटे-रटाए आरोपों से जनता अब ऊब चुकी है। वह विरोध के लिए कुछ ठोस और न्यायसंगत तर्कों की अपेक्षा करती है। दरअसल आज जब समूचा विपक्ष संविधान का सहारा लेकर इस बिल का विरोध करते हुए धार्मिक आधार पर होने वाले भेदभाव से पीड़ित इन देशों के अल्पसंख्यकों से अधिक चिंता अपने देश के अल्पसंख्यकों या फिर अपने वोटबैंक की कर रहा था तो न सिर्फ  उनके सैक्युलरिज्म की हकीकत बल्कि उनका दोहरा राजनीतिक चरित्र भी दृष्टिगोचर हुआ। 

क्योंकि जब बात 3 ऐसे देशों की हो रही हो जहां का राज धर्म ही इस्लाम हो, जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हों और जिन देशों में गैर-मुस्लिम परिवारों पर होने वाले अत्याचार दुनिया के सामने आ गए हों,जब आंकड़े बताते हों कि इन सालों में पाकिस्तान में हिन्दुओं की संख्या 23 प्रतिशत से घट कर 1.5 प्रतिशत, बंगलादेश में 20 प्रतिशत से घट कर 2 प्रतिशत और अफगानिस्तान में 18 प्रतिशत से घट कर  1 प्रतिशत रह गई हो, तब सैक्युलरिज्म के नाम पर विपक्ष का इस बिल के लिए विरोध समझ से परे हो जाता है। 

यह वाकई में खेद का विषय है कि अपनी वोटबैंक की राजनीति के आगे विपक्ष को देश के प्रति अपने दायित्वों का भी बोध नहीं रहता। इसे क्या कहा जाए कि जब बिल में पूर्वोत्तर के राज्यों को शामिल नहीं किया गया है, फिर भी पूर्वोत्तर के राज्यों में इस विधेयक को लेकर लोग आक्रोशित ही नहीं बल्कि ङ्क्षहसक होने की हद तक भ्रमित हैं। दुष्प्रचार और अफवाहों की भीड़ में सच कैसे कहीं खो जाता है, असम इसका जीता-जागता उदाहरण है। और जब अपने राजनीतिक स्वार्थों की खातिर भोले-भाले छात्रों को आंदोलन की आग में झुलसने के लिए छोड़ दिया जाता है तो राजनीति का कुत्सित चेहरा सामने आ जाता है। दरअसल असम में घुसपैठियों की समस्या बहुत पुरानी है। 1985 में राजीव गांधी सरकार ने भी घुसपैठ की समस्या खत्म करने के लिए वहां के संगठनों से असम समझौता किया था लेकिन समझौते के बावजूद सरकार द्वारा इतने साल इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। 

मौजूदा सरकार ने अब वहां इसी समस्या को खत्म करने के लिए एन.आर.सी. लागू किया था ताकि वहां के मूल निवासियों और घुसपैठियों की पहचान की जा सके। एन.आर.सी. के बनते ही असम में लगभग 19 लाख लोगों पर नागरिकता का संकट आ गया। यहां यह समझना आवश्यक है कि एन.आर.सी. में जो लोग छूट गए हैं उन्होंने आवेदन तो किया होगा लेकिन कागजातों के अभाव में उनका नाम लिस्ट में नहीं आया। इस आवेदन में उन्होंने यह घोषणा की होगी कि वे भारत के ही नागरिक हैं और इसके लिए जरूरी दस्तावेज भी उपलब्ध कराए होंगे जिसके आधार पर वे अपना नाम एन.आर.सी. में जुड़वाना चाहते होंगे जबकि सी.ए.बी. के तहत नागरिकता हासिल करने के लिए आवेदक को यह कहना होगा कि वह बंगलादेश, अफगानिस्तान या फिर पाकिस्तान का नागरिक है। इसलिए दोनों मुद्दों को मिलाने की कोशिश करना संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। इसके बावजूद असम में इस बिल का हिंसक विरोध निराशाजनक है।-डा. नीलम महेंद्र
 


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