भारत के लिए कोई अच्छी स्थिति नहीं

punjabkesari.in Sunday, Apr 11, 2021 - 03:12 AM (IST)

एशियाई तथा वैश्विक संदर्भ के बीच चीन के साथ जारी गतिरोध से भारत को फिर से अपने संबंधों के बारे में सोचना चाहिए। वर्तमान में भारत को भू-रणनीतिक तौर पर कैसे रखा गया है? उत्तरी सीमाओं पर यह आक्रामक चीन का सामना करता है। पश्चिमी सीमाओं पर यह वर्तमान में पिघल रहे पाकिस्तान के साथ उलझा हुआ है।

पाकिस्तान पिघल कर फिर से गहरी स्थिति में वापस जा सकता है। पूर्व में 2015 में शुरू हुई नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी अभी भी जारी है। भूटान भारत और चीन की दरार में फंसा हुआ है। बंगलादेश हालांकि भारत की केंद्रीयता की पुष्टि करता है। म्यांमार सैन्य तख्तापलट के बाद हिंसक वारदातों में लिप्त है।

दक्षिण में श्रीलंका में राजपक्षे प्रशासन अभी भी चीन की तरफ झुकाव रख रहा है। सितम्बर 2018 में इब्राहीम मोहम्मद सालेह के कार्यालय संभालने के बाद से मालदीव के साथ संबंधों में निश्चित तौर पर सुधार हुआ है। उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की विदेश नीति स्पष्ट रूप से वर्तमान मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद के द्वारा अभिव्यक्त हुई थी। राष्ट्रपति यामीन ने यह गलती की कि वह भारत को चीन और चीन को भारत के खिलाफ खेलता देख रहे थे। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के साथ निपटने का यह एक बचकाना तरीका था। ऐसी बातें आपको ही प्रभावित करती हैं। हालांकि मालदीव का चीन को देने वाला ऋण 1 से 3 बिलियन अमरीकी डालर पहुंच चुका है। भारत को मालदीव के लिए ङ्क्षचतित भी होना चाहिए। 2021 में मालदीव की जी.डी.पी. मात्र 5.46 बिलियन अमरीकी डालर है।

संतुलन की बात करें तो भारत के लिए यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। हालांकि अफगानिस्तान का खेल एक बार फिर इस क्षेत्र के भविष्य पर अपना प्रभाव डाल सकता है क्योंकि अमरीकी बड़ी बेकरारी से 2 दशकों पुराने अफगानिस्तान के उथल-पुथल के माहौल को ठीक करने के प्रयास में हैं। पाकिस्तान, ईरान, तुर्की, चीन और रूस अपने स्वयं के रणनीतिक उद्देश्यों से इस सारे घटनाक्रम को देखते हैं। भारत को भी चाहिए कि पूरी स्थिति का गंभीरता से मूल्यांकन करें और यह तय करे कि अफगानिस्तान में सामरिक रणनीतिक हित क्या होंगे? उसके अनुसार ही उसे आगे बढऩा होगा। इसके अलावा पश्चिम में सऊदी अरब-यू.ए.ई.-इसराईल जैसे त्रिकोण के लिए मध्य एशिया तथा खाड़ी के क्षेत्र में स्वतंत्र हाथ नहीं है। जैसा कि ट्रम्प प्रशासन के अंतर्गत था।

अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा बंद की गई संयुक्त कार्य योजना (जे.सी.पी.ओ.ए.) के धागे को आगे खींचने की कोशिश में हैं। जे.सी.पी.ओ.ए.को 14 जुलाई 2015 में हस्ताक्षरित किया गया था जिस पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के कौंसिल रैजोल्यूशन 2231 द्वारा मोहर लगाई गई थी और इसे 20 जुलाई 2015 को अपनाया गया। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस व्यवस्था से एकतरफा तौर पर 8 मई 2018 को बाहर हो गए तथा उन्होंने ईरान पर पाबंदियां थोप दीं। विडम्बना यह है कि द्वितीय न्यूक्लियर ऐज पावर्ज में से कोई भी वर्तमान में पार्टी नहीं है।

चीन-ईरान कूटनीतिक सहयोग समझौता जिस पर 27 मार्च 2021 को हस्ताक्षर हुए थे, से ईरान को लेकर भारत की स्थिति और भी गंभीर हो गई है। चीन ईरान में तेल से लेकर कृषि तक निवेश का दायरा बढ़ा रहा है। दिलचस्प है कि ईरान ने भारत को चाबहार-जाहेदान रेलवे लिंक से जुलाई 2020 से भारत द्वारा कोई रुचि न दिखाए जाने का हवाला देकर उसे बाहर निकाल दिया है। यदि ईरान परमाणु समझौते को फिर से लागू किया जाता है तो ईरान का मध्य पूर्व में प्रभाव और विस्तारित होगा। भारत के बड़े ऊर्जा संबंध भी स्थिर हैं। इस वचनबद्धता का यह मतलब नहीं कि भारत को नाटो सहायक बनना चाहिए या अमरीका द्वारा नामित एक गैर-नाटो सहयोगी बन जाए। इसका मतलब यह होगा कि भारत 30 विषम यूरोपियाई देशों के साथ राजनीतिक और सेना से सेना तक का संबंध रखने की पहुंच बनाने के काबिल हो जाए। यूरोप एक उपेक्षित खाका बना हुआ है जो भारत द्वारा अपने हितों के लिए अभी भी आगे बढ़ाया जा सकता है।

पिछले 7 दशकों से ज्यादा समय के दौरान नाटो गठबंधन का अनुभव और विकास नई दिल्ली को दिलचस्प संस्थागत संकेत प्रदान कर सकता है, यदि भविष्य में कुछ बिंदुओं पर अमरीका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के बीच बने क्वाड को व्यापक एशियाई नाटो के लिचपिन में बदलने की संभावना पर विचार हो। सिवाय इसके भारत का नाटो के साथ जुड़ाव भी रूस को एक हितकर संदेश भेजेगा। चूंकि भारत भूतपूर्व संबंधों को महत्व देता है इसलिए वैकल्पिक रास्ते की खोज करना प्रतिकूल नहीं होगा। यदि रूस के चीन या पाक के साथ संबंध और बेहतर हो जाते हैं।-मनीष तिवारी


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