अमरीका में नए राजदूत तरणजीत के समक्ष कई ‘चुनौतियां’

punjabkesari.in Thursday, Jan 30, 2020 - 03:33 AM (IST)

अमरीका में भारत के नए राजदूत तरणजीत सिंह संधू के लिए नया काम किसी चुनौती से कम नहीं। अमरीकी सरकार एक बड़ा उद्यम है जहां पर विभागों के बीच में विभागों की भूल-भुलैयां है। यहां पर एक के ऊपर एक जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। अमरीका में दो समानांतर शाखाएं कार्यकारी तथा विधायी अपना अलग-अलग स्वरूप रखती हैं। अमरीकी कांग्रेस में निहित स्वार्थ तबाही की भूमिका अदा कर सकते हैं।

यहां पर जोड़-तोड़ करने वाले सांसद अपने एजैंडा को निशाने पर रखे गए देशों पर थोपते हैं। वर्तमान में भारत एक निशाना है। यह खून से खेलने वाला खेल है जोकि बहुत ही कम लोग खेल सकते हैं। यदि आपके पास राजनीतिक एंटिना बहुत तेज है तब आपके लिए यह बेहतर जगह है। कुछ लोगों को बैल के सींगोंं को पकड़कर रखना होता है और अपना लक्ष्य साधना होता है। कुछ लोग असम्भव को सम्भव कर देते हैं और कुछ लोग निराशा की कालकोठरी से रिश्तों को खींच कर ले आते हैं। 

तरणजीत सिंह संधू को 1998 याद रहेगा
अमरीका को भारत के 1998 के न्यूक्लियर टैस्ट तथा देवयानी खोबरागड़े मामले (2013-14) पर गुस्सा था। ऐसे दोनों ही समय के दौरान जिस व्यक्ति ने एक अच्छा संतुलन बनाकर रखा वह थे तरणजीत सिंह संधू। तरणजीत सिंह संधू को 1998 याद रहेगा। उस समय क्लिंटन प्रशासन ने भारत पर कड़ी पाबंदियां लगाई थीं। स्टेट डिपार्टमैंट का प्रवक्ता रोजाना इस मामले पर बोलता था। यह वास्तव में भारत के लिए भयावह स्थिति थी। मगर उस समय संधू ने अमरीका में तत्कालीन भारतीय राजदूत  नरेश चंद्रा से आग्रह किया कि वह अमरीकी कांग्रेस में भारत का पक्ष रखें। नरेश चंद्रा प्रसिद्ध नौकरशाह थे जो कई मंत्रालयों में कैबिनेट सचिव तथा सचिव रह चुके थे। उन्होंने इस मामले पर एक जूनियर अधिकारी की बात से सहमति जताई। संधू ने कई सांसदों तथा सीनेटरों से मुलाकात की और उसका अच्छा परिणाम मिला। क्योंकि चंद्रा ने भारतीय रिश्तों को फिर से ट्रैक पर लाने के लिए कड़ी मेहनत की। संधू ने उनका साथ दिया। 

संधू की नियुक्ति घटनाओं पर मिलने वाला आकस्मिक लाभ है और यहां पर उनकी योग्यता खरी उतरेगी। इससे पहले वह श्रीलंका में भारतीय उच्चायुक्त थे। कोलंबो में सभी प्रमुख नीतिकारों को भांपने में वह समर्थ थे। भारत, चीन की आक्रामक कार्रवाइयों के बावजूद तरणजीत भारत का पक्ष यकीनी तौर पर रखने में कामयाब रहे। श्रीलंका के नवनियुक्त राष्ट्रपति गोटावाया राजपक्षे के लिए पहला कदम नई दिल्ली था पेइचिंग नहीं। इससे पहले कि चीन अपनी आंख झपकता तरणजीत ने राजपक्षे की जीत के दो दिन के भीतर ही उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया। 

अमरीका में जटिल हालात उनका इंतजार कर रहे 
संधू अमरीका में सौंपे गए नए काम के लिए तैयार हैं। वहां पर जटिल हालात उनका इंतजार कर रहे हैं। अमरीकी राजनीतिक क्षेत्र अनंत है। यहां पर खिलाड़ी बहुत हैं तथा मुश्किल पैदा करने वालों की कोई कमी नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अमरीका में संधू के कौशल का परीक्षण होगा क्योंकि वर्ष 2020 भारत-अमरीकी रिश्तों के लिए चुनौतियों से भरा पड़ा है।

अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की फरवरी में होने वाली भारत यात्रा सिर पर है। भारत के कश्मीर पर विवादास्पद घरेलू निर्णयों तथा नागरिकता कानून के बाद भारत-अमरीकी व्यापारिक रिश्तों को अंतिम रूप दिया जाना है। अमरीका में राष्ट्रपति चुनावों की मुहिम जोर पकडऩे वाली है। इसी कारण संधू को वहां का अमरीकी मूड समझने तथा चुनावों के नतीजों पर निगाह रखनी होगी और यदि डैमोक्रेट व्हाइट हाऊस पर कब्जा जमाते हैं तब संधू को अपना कौशल दिखाना होगा क्योंकि भारत के डैमोक्रेट्स के साथ रिश्तों में पिछले साल मानवाधिकार मामलों के चलते खटास आई थी। 

भारतीय मूल की अमरीकी राजनीतिज्ञ तथा सीनेटर प्रमिला जयपाल ने भारत सरकार को लिखकर मांग की थी कि कश्मीर में सभी प्रतिबंधों को हटाया जाए और जितनी जल्दी हो सके लोगों की हिरासत खत्म की जाए। प्रमिला को इस मुद्दे पर समर्थन भी मिला था जिसमें 3 रिपब्लिकन भी शामिल थे। वर्तमान हालातों में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर भी भारत पर दबाव बनाया जा रहा है। हालांकि रिपब्लिकन ने जयपाल के प्रस्ताव का बड़ी गिनती में समर्थन नहीं किया मगर वे भारत का सार्वजनिक तौर पर बचाव करने की दुविधा में रहे। 2014 की तुलना में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए लोगों के उत्साह में कमी आई है। उस समय मोदी से उम्मीदें उच्च स्तर पर थीं तथा यह सोचा जा रहा था कि वह भारत की अर्थव्यवस्था तथा विकास को नई बुलंदियों पर ले जाएंगे। 

लिखनी होंगी नई कहानियां
संधू को अब नई कहानियां लिखनी होंगी। मगर वह अमरीका को अच्छी तरह से जानते हैं। वह इसकी तीन यात्राएं कर चुके हैं। दो डी.सी. की तथा एक न्यूयार्क की। इन यात्राओं ने उनको बहुत बड़ा अनुभव प्रदान किया है। यह उनकी चौथी तैनाती होगी। भारतीय विदेश सेवा में यह एक रिकार्ड है। अमरीकी राजनीति के लिए संधू के पास स्वाभाविक अनुभव है और वह इसका आनंद भी लेते हैं। जरूरत पडऩे पर वह पीछे हटते भी हैं। मगर नतीजे पाने के लिए गिव एंड टेक की पालिसी में लिप्त भी होते हैं।

उनको मदद मिलेगी क्योंकि विदेश मंत्री एस. जयशंकर के वह डिप्टी रह चुके हैं जब वह अमरीका में भारत के राजदूत थे। इस जोड़ी ने 2014 में मोदी के लिए विशाल मैडीसन स्क्वायर गार्डन इवैंट को आयोजित किया था जिसमें 40 सांसदों तथा कई सीनेटरों ने भाग लिया था। यह पूर्णत: राजनीतिक थिएटर था। संधू के कार्य में और चार चांद लग गए जब मोदी ने 2016 को अमरीकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र को सम्बोधित किया था। इस दौरान सभी सांसद एक लाइन में खड़े होकर मोदी को हैलो करने के लिए उत्सुक थे। संधू ने मोदी की चार अमरीकी तथा श्रीलंका की दो यात्राओं को सम्भाला था। 

इसी तरह जब भारत की डिप्टी कौंसिल जनरल देवयानी खोबरागड़े पर वीजा फ्राड का आरोप लगा था तथा उसे गिरफ्तार किया गया था तब भी इस बात को लेकर भारत की कड़ी निंदा की गई थी। उस समय भी संधू ने अपनी हिम्मत दिखाई थी। दो तरफा संबंधों के बिगडऩे के बाद खोबरागड़े के लिए संधू ने रास्ता निकाला था। अब भारत की छवि खराब हो रही है। मोदी के प्रशंसकों में निरंतर कमी आ रही है। रिपब्लिकन तथा डैमोक्रेट सवाल उठा रहे हैं कि आखिर भारत में क्या हो रहा है। यदि ट्रम्प ने भारत के साथ ट्रेड डील नहीं बढ़ाई तब भारत के लिए चीजें और कठिन हो जाएंगी। अच्छी बात यह है कि संधू चुनौतियों से घबराते नहीं, वह जानते हैं कि अप्रत्याशित मौकों से कैसे निपटा जाता है।-सीमा सिरोही


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