भारतीय इतिहास लेखन के फिर आंकलन की जरूरत

punjabkesari.in Wednesday, May 25, 2022 - 04:53 AM (IST)

कुछ दिन पूर्व, ए.आई.एम.आई.एम. के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी ने औरंगाबाद शहर के खुल्दाबाद में मुगल सम्राट औरंगजेब की कब्र पर जाकर पूजा-अर्चना की। ओवैसी का  सम्मान दिखाने के लिए मुगल आक्रांता औरंगजेब के सामने झुकना हिन्दुओं के साथ विश्वासघात और अपमान का कार्य तो है ही साथ ही यह राष्ट्रविरोधी कृत्य भी है। आखिर हम मध्यकालीन इतिहास को कैसे भूल सकते हैं? 

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ओवैसी औरंगजेब की कब्र पर गए और उस आक्रांता के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की। ये रजाकार हैं। ज्ञात हो कि हैदराबाद के निजाम द्वारा 1947-48 के दौरान रियासत के भारत के साथ एकीकरण का विरोध करने के लिए तैनात अद्र्धसैनिक स्वयंसेवी बल रजाकार कहलाते थे। निजाम, रजाकार और पहले के इस्लामी राजवंशों की सोच समान है। उसी विचारधारा से प्रेरित होकर ओवैसी ने औरंगजेब के मकबरे का दौरा किया। लेकिन जो मुसलमान देश की भलाई के बारे में सोचते हैं उन्हें ए.आई.एम. आई.एम. और ओवैसी की सोच का मूल्यांकन करना चाहिए। 

दूसरी ओर, महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार पर भी प्रश्नचिन्ह उठता है कि उन्होंने ओवैसी के खिलाफ उसके इस जघन्य कृत्य पर कोई कार्रवाई आखिर क्यों  नहीं की? महाराष्ट्र की उद्धव सरकार एक ऐसी सरकार है जिसे हनुमान चालीसा और जय श्रीराम पसंद नहीं है। यह सरकार जय श्रीराम का जाप करने और हनुमान चालीसा का पाठ करने वालों पर देशद्रोह का मुकद्दमा तो दर्ज कर सकती है लेकिन अकबरुद्दीन के खिलाफ मामला दर्ज करने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाई। बाला साहेब ठाकरे का कोई भी कट्टर समर्थक इसके लिए कभी राजी नहीं होगा। गत नवम्बर माह में, सिखों के 9वें गुरु, गुरु तेगबहादुर जी की चौथी प्रकाश शताब्दी पूरे देश में मनाई गई।

गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी की मिसाल इतिहास की वह घटना थी जिस पर हाहाकार भी हुआ और जय-जयकार भी हुई। अगर इसके कारणों पर दृष्टिपात किया जाए तो इसके मूल में जबरन किए जा रहे धार्मिक उथल-पुथल की तस्वीर सामने आती है क्योंकि औरंगजेब हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाना चाहता था। एक ओर जबर-जुल्म था और दूसरी तरफ अन्याय का शिकार हुए लोग व उनका रखवाला था। प्रभु खुद श्री गुरु तेग बहादुर जी के रूप में भारतीय लोगों के धर्म, संस्कृति की रक्षा कर रहे थे। इसलिए श्री गुरु महाराज जी को ‘तिलक जंझू का राखा’ कहकर भी नवाजा जाता है। मुगल आक्रांता औरंगजेब अपने निरंकुश शासन और गैर-मुसलमानों के खिलाफ कट्टर नीतियां अपनाने के लिए विख्यात था। उसने अपने शासन के दौरान कई हिन्दू पूजा स्थलों को ध्वस्त कर दिया। 

इसी परिप्रेक्ष्य में ज्वलंत मुद्दा ज्ञानवापी मंदिर का लें तो असदुद्दीन ओवैसी समेत तमाम मुस्लिम बुद्धिजीवी जिस ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर हंगामा खड़ा कर रहे हैं, आखिर वे एक आक्रांता के विध्वंस को जायज क्यों ठहराने पर तुले हैं। इतिहासकार इस बात की पुष्टि करते हैं कि इस्लामी शासक औरंगजेब ने 9 अप्रैल 1669 को एक आदेश जारी किया था, जिसमें उसने वाराणसी स्थित भगवान आदि विश्वेश्वर के मंदिर को ध्वस्त करने का निर्देश दिया था। सारे साक्ष्य से यह बात उभर कर सामने आई है कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई। 

ज्ञानवापी परिसर को लेकर सबसे पहला मुकद्दमा 1936 में दीन मोहम्मद बनाम राज्य सचिव का था। तब दीन मोहम्मद ने निचली अदालत में याचिका दायर कर ज्ञानवापी मस्जिद और उसकी आसपास की जमीनों पर अपना हक बताया था। अदालत ने इसे मस्जिद की जमीन मानने से इन्कार कर दिया था। इसके बाद दीन मोहम्मद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की। 1937 में हाईकोर्ट ने मस्जिद के ढांचे को छोड़कर बाकी सभी जमीनों पर वाराणसी के व्यास परिवार का हक जताया और उनके पक्ष में फैसला दिया। बनारस के तत्कालीन कलैक्टर का नक्शा भी इस फैसले का हिस्सा बना, जिसमें ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने का मालिकाना हक व्यास परिवार को दिया गया। इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद स्पष्ट हो जाता है कि पूरा ज्ञानवापी परिसर वक्फ की सम्पत्ति नहीं है। 

90 के दशक में राम मंदिर आंदोलन चरम पर था। अयोध्या में राम मंदिर की मांग के साथ-साथ दूसरी और मस्जिदों में मंदिर निर्माण की मांग उठने लगी थी। इसी दौर में ‘अयोध्या तो बस झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है’ जैसे नारे भी गूंजने लगे थे। ऐसे ही मंदिर-मस्जिद के विवादों पर विराम लगाने  के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव एक कानून लेकर आए। इस कानून का नाम था प्लेसेस ऑफ वॢशप एक्ट यानी पूजा स्थल अधिनियम। यह कानून कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले जो धार्मिक स्थल जिस रूप में था, वो उसी रूप में रहेगा। उसके साथ कोई छेड़छाड़ या बदलाव नहीं किया जा सकता। लेकिन ज्ञानवापी मामले में यह कानून लागू नहीं होता, क्योंकि मस्जिद को मंदिर के अवशेषों पर बनाया गया था, जिसके हिस्से आज भी मौजूद हैं। 

ज्ञानवापी विवादित ढांचे पर पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 लागू इसलिए भी नहीं होता, क्योंकि वहां की संरचना के धार्मिक चरित्र को बदलने को लेकर कोई सवाल ही नहीं है। वहां अभी भी भगवान की पूजा होती है और श्रद्धालुओं द्वारा पंचकोसी की परिक्रमा की जाती है। इसके अतिरिक्त, यदि कोई स्मारक प्राचीन स्मारक अधिनियम 1951 और 1958 के तहत सूचीबद्ध है, तो पूजा स्थल अधिनियम की धारा 3 और 4 लागू नहीं होती है। कुरान में स्पष्ट लिखा है कि विवादित स्थल या जहां मूॢत पूजा हो, वहां नमाज नहीं पढऩी चाहिए। इन सब बातों का ध्यान रखते हुए देश के तमाम मुस्लिम बुद्धिजीवियों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि ज्ञानवापी मस्जिद की जिद कर क्या वे औरंगजेब जैसे आक्रांता के प्रति श्रद्धा और सम्मान दिखाना चाहते हैं? अब भारतीय इतिहास लेखन के फिर आंकलन की जरूरत है।-सरदार आर.पी. सिंह (भाजपा नेता)


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