एक स्वतंत्र जांच एजैंसी की जरूरत

punjabkesari.in Saturday, Apr 23, 2022 - 05:03 AM (IST)

मैं भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना के सुझाव का स्वागत करता हूं जिसमें कहा गया है कि भारत को आज एक स्वतंत्र जांच संस्थान की जरूरत है ताकि विभिन्न जांच एजैंसियों जैसे सी.बी.आई., प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) तथा सीरियस फ्राड इंवैस्टीगेशन ऑफिस (एस.एफ.आई.ओ.) को एक ही छत के नीचे लाया जा सके। यदि केन्द्रीय प्रशासन द्वारा यह अनुमोदित हो गया तो हमारे प्रशासन के स्वेच्छाचारी सिस्टम की पारदर्शिता तथा जवाबदेही को यकीनी बनाने के लिए हम एक कदम आगे बढ़ सकते हैं। 

हालांकि कानून मंत्री किरण रिजिजू ने  हाल  ही में दावा किया था कि सी.बी. आई. अब पिंजरे का तोता नहीं है। हम जानते हैं कि किस तरह से सत्ताधारी पाॢटयों द्वारा अपने विपक्षी प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ इसका इस्तेमाल किया जाता है। मुझे ‘पंचतंत्र’ से एक वाक्य याद आता है जिसमें खुल कर उन राजनीतिक डाकुओं के बारे में बात की गई है जोकि पब्लिक का पैसा चुराते हैं। हम इस बात से भी भली-भांति जागरूक हैं कि किस तरह से सी.बी.आई. भद्र पुरुष डाकुओं का तब तक पीछा करती है जब तक कि गवाही की कमी के चलते केस बंद नहीं हो जाते। 

ऐसे भी तथ्य  सामने आते हैं कि भ्रष्टाचार मामले को लेकर  एक केस  रजिस्टर किसी एक के खिलाफ किया जाता है तो ऐसे 100 अन्य केस भी होते हैं जिन पर ध्यान ही नहीं दिया जाता। भारत के महान उपन्यासकार  खुशवंत सिंह आमतौर पर कहा करते थे, ‘‘आज के राजनेता प्रैस और सी.बी.आई. से डरते हैं।’’ बेशक प्रैस  अपनी भूमिका सचेत होकर निभाती है जबकि सी.बी.आई. सभी निश्चित कठिनाइयों के खिलाफ होते हुए वी.आई. पी. लोगों के खिलाफ मामला दर्ज  करने में एक सशक्त चेहरा दिखाती है। सी.बी. आई. ने वास्तव में अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए अपने कार्य की कला में निपुणता पाई है। 

आमतौर पर न्यायपालिका क्रियाशील होकर सी.बी.आई. पर अपना दबाव बनाती है। इस प्रक्रिया में विभिन्न अदालतों में सी.बी.आई. गुलदस्ते की जगह ज्यादा से ज्यादा पत्थर पा रही है। 
मैं समझ सकता हूं कि सी.बी.आई. के  पास कार्य करने की अपनी कुछ समस्याएं हैं। 1963 में अपनी शुरूआत के बाद यह आगे बढ़ी है। इसकी गतिविधियां भी बढ़ी हैं। अब नई स्थितियां नई प्रतिक्रियाओं की मांग करती हैं। राजनीतिक भ्रष्टाचार के ज्यादा मामलों को देखते हुए सबसे निपटना इसके  लिए मुश्किल होता है। इसी कारण कागजों पर हम सी.बी.आई. की कुशल कार्य 
प्रणाली में कुछ हदें देखते हैं। 

ओडिशा कैडर के एक पुलिस अधिकारी वी.पी. सिन्हा के अनुसार ‘‘संजय गांधी तथा विद्याचरण शुक्ल के खिलाफ ‘किस्सा कुर्सी का’ मामले की जांच के दौरान सी.बी.आई. के वकील ने प्रधानमंत्री को परामर्श दिया कि वह एक गवाही के विशेष टुकड़े पर ही निर्भर रहें। डायरैक्टर जॉन लोबो ने सोचा कि ऐसी गवाही पक्षपात से स्वतंत्र नहीं है। उन्होंने प्रधानमंत्री के सुझाव को नकारने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं की।’’ 

विडम्बना देखिए कि आज सी.बी. आई.  राजनीतिक दबाव के आगे अपने आपको असहाय देखती है और इस प्रक्रिया को पलटना मुश्किल लगता है। वास्तव में यह बेचैन करने वाली बात लगती है कि कुछ प्रधानमंत्री तो  सी.बी.आई. निदेशकों को अपने गृह राज्य से कुछ स्पष्ट कारणों के लिए लाना चाहते हैं। इस बात का स्मरण रहे कि पी.वी. नरसिम्हाराव ने विजय  रामाराव को चुना। एच.डी. देवेगौड़ा ने कर्नाटक कैडर के पुलिस अधिकारी को मांगा। शायद ये बातें प्रधानमंत्रियों में बढ़ रही असुरक्षा को दर्शाती हैं। 

जरूरत पडऩे पर इनकी ख्वाहिश शायद  सी.बी.आई. का इस्तेमाल करने की होती है। चुङ्क्षनदा राजनीति के लिए वे  इनका एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। न तो यह वांछनीय है और न ही देश के हित में है यदि हम पब्लिक लाइफ से भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते हैं। सत्ता की ताकत तथा संरक्षण मंत्रियों को लूटने का लाइसैंस नहीं देतीं। इस लूट पर अंकुश लगाने की जरूरत है। जो आज के दौर में पुराने समय के जागीरदारों से भी बदतर व्यवहार करते हैं। एक स्वतंत्र, निष्पक्ष, स्वायत्त इकाई होने पर ही जांच एजैंसी विश्वनीय तथा प्रभावी नजर आएगी। 

मैं आशा करता हूं कि मुख्य न्यायाधीश  की प्रस्तावित स्वतंत्र जांच एजैंसी कुशलतापूर्वक कार्य कर सकती है। यह समान रूप से महत्वपूर्ण है कि जांच एजैंसी को एक चरित्र और  ईमान वाले व्यक्ति को चलाना चाहिए। इसके समान रूप से यह भी महत्वपूर्ण बात है कि यह पूरी तरह से प्रशासनिक तथा राजनीतिक दखलअंदाजी से पूर्णतया स्वतंत्र हो। क्या हम इसे एक स्वप्न अवधारणा के तौर पर देख सकते हैं? शायद। मगर हमें इस दिशा में कार्य करना होगा और यही राष्ट्रीय हित में है।-हरि जयसिंह     


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