नवाज शरीफ का भारत से भावनात्मक लगाव था

punjabkesari.in Sunday, Mar 28, 2021 - 03:29 AM (IST)

विलियम कांग्रेव को इस कहावत के लिए जिम्मेदार ठहराया गया जिसमें उन्होंने कहा,‘‘नर्क में एक बदहवास महिला के जैसा कोई क्रोध नहीं होता।’’ यह बात तिरस्कार किए गए अब्दुल बासित के बारे में भी सत्य है जिन्होंने अपने 3 वर्ष भारत में बतौर पाकिस्तानी उच्चायुक्त बिताए। वह चोट और बदले की भावना से ग्रस्त थे जिसे शत्रुता कहा जाता है। इसमें कोई शक नहीं है कि इस्लामाबाद में दांतों को पीसा जा रहा है। वे जल्द ही दिल्ली में मुंह दबाकर डूब जाएंगे।

बासित की ‘हॉस्टिलिटी’ नामक किताब इस बात से शुरू होती है कि कैसे नवाज शरीफ ने बासित को बताया कि वह पाकिस्तान के अगले विदेश सचिव होंगे। लेकिन उन्हें कभी भी पद नहीं मिला न ही कोई स्पष्टीकरण। इसलिए एक घायल और अपमानित व्यक्ति मार्च 2014 में पाकिस्तान का उच्चायुक्त बना। दिल्ली उनके लिए एक सांत्वना पुरस्कार था। यह बताना कठिन है कि बासित के क्रोध का अधिक हिस्सा किस पर पड़ता है। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ बासित के कार्यकाल के दौरान एकतरफा और बिना शर्त भारत में घूमने की इच्छा रखते थे। यहां तक कि बासित सुझाते हैं कि प्रधानमंत्री की भावनाओं का विरोध किया गया था।

बासित लिखते हैं कि, ‘‘मैं देख सकता था कि शरीफ का भारत और भारतीयों से भावनात्मक लगाव था जो कई बार प्रधानमंत्री के रूप में यह बात उनके कद से परे थी।’’ शरीफ के विशेष सहायक सरताज अजीज और तारीक फातिमी भी विनम्र नहीं थे। वे उनको धार्मिक रूप से ‘क्षमायाचक और सुधारवादी’ कहते थे। एक बात जो मुझे चकित करती है वह थी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सहजता से स्वीकार करना और उनकी चिंताओं को स्वीकार करने के लिए तेजी से काम करना। वे कोई मुद्दा नहीं देना चाहते थे।

बासित का मानना है कि नवाज शरीफ, सरताज अजीज, तारिक फातिमी और विदेश सचिव एजाज पाकिस्तान के हितों से समझौता करने के लिए तैयार थे। मैं ऐसे किसी भी राजनयिक के बारे में नहीं सोच सकता जिन्होंने अपनी सरकार और सहयोगियों पर सीधे और बेरहमी से निशाना साधा है। हालांकि यह विवरण मुझे लगता है कि कभी-कभी अविश्वसनीय होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि शरीफ तथा विदेश कार्यालय ने उन पर कभी भरोसा ही नहीं किया। उनको एक बाहरी व्यक्ति माना जाता था। उनका अपना मंत्रालय इस्लामाबाद में अपने उच्चायुक्त के माध्यम से भारत के साथ संबंधों का संचालन करना चाहता था और मुझे इस बारे में बताया भी नहीं जाता था।

जब नवाज शरीफ ने मोदी के पत्र का जवाब दिया तो यह भारतीय उच्चायोग को दिया गया बासित को नहीं। इस तरह बासित को मोदी से मिलने का एक मौका देने से इंकार कर दिया गया। जब शरीफ और मोदी पैरिस में एक-दूसरे से मिलने के लिए राजी हुए तब अजीज को यह हिदायत दी गई कि बासित को इसकी सूचना न दी जाए। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री अपने उच्चायुक्त को गांठ में नहीं रखना चाहते थे। वही हुआ जब मोदी लाहौर गए बासित पाकिस्तान में थे मगर उन्हें बैठक में शामिल नहीं किया गया। उनकी उपस्थिति आवश्यक नहीं समझी गई। इस तरह कुछ अफसोसजनक बातें हुईं। जब इस्लामाबाद में एक जूनियर अधिकारी ने उन्हें बताया कि विदेश सचिव ने उन्हें निर्देश दिया था कि उनकी अनुमति के बिना दिल्ली में उच्चायुक्त को कोई भी संवाद न भेजा जाए।

बासित ने खुलासा किया कि पाकिस्तान अक्सर उद्योगपति सज्जन जिंदल के अच्छे कार्यालय को पसंद करता है। यह बासित नहीं जिंदल थे जिन्होंने प्रधानमंत्रियों के बीच फोन काल की व्यवस्था की, कैदी की रिहाई पर सलाह दी, हुर्रियत से नहीं मिलने के लिए मोदी को संदेश दिए, पैरिस में उनकी बैठक की सुविधा दी और कुलभूषण जाधव मामले में शामिल किया गया। ऐसे समय में बासित इस बात से अंजान थे कि क्या हो रहा है। इसलिए विदेश सचिव के अपमान के आधार पर बासित को बार-बार अपनी ही सरकार और उनके सहयोगियों द्वारा अपमानित किया गया। फिर भी आश्चर्यजनक बात यह है कि वह इसे अपनी प्रतिष्ठा की बात समझ बैठे।

उन्होंने इस्तीफा देने से इंकार कर दिया। उन्होंने सजा को सहने के लिए अपने सम्मान को निगल लिया और दिल्ली में अपने आपको जारी रखा। मेरा अनुमान है कि बासित ऐसे समय में मोदी के साथ खड़े होना चाहते थे जब उन्हें लगा कि कोई और ऐसा करने को तैयार नहीं है। जब वे लिखते हैं तो वह इस बात का संकेत देते हैं।

उन्होंने लिखा है कि मैं कश्मीर की कीमत पर मोदी के लिए मददगार होने को तैयार नहीं था। उन्होंने अपनी सरकार को समझाने की कोशिश की। उन्होंने लिखा कि हम इस बात की पुष्टि करते हैं कि हमें इस भ्रम में अपने एकतरफा रवैये से निपटना चाहिए कि मोदी एक संत की तरह थे जो हमारी ङ्क्षचताओं को दूर करेंगे और उन्हें समायोजित करेंगे। बासित को पाकिस्तानी उच्चायुक्त के तौर पर कम पसंद किया गया और उनकी अपनी सरकार द्वारा उन्हें सबसे अधिक अपमानित किया गया। लेकिन वह इस बात से दुखी नहीं थे। उनकी किताब दोनों के लिए शत्रुता के लिए लिखी गई।-करण थापर

 


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