राजनीतिक ‘हथियार’ न बनें मुसलमान

punjabkesari.in Wednesday, Jan 22, 2020 - 03:09 AM (IST)

इन दिनों दुनिया भर के मुसलमान न केवल इस्लामोफोबिया और हिंसा बल्कि खराब प्रशासन के दौर से भी जूझ रहे हैं। मुस्लिम देशों और शासकों ने दुनिया में अपना सम्मान खो दिया है। मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद जब कहते हैं कि ‘आज हम न तो मानव ज्ञान के स्रोत हैं और न ही किसी मानव सभ्यता के मॉडल’ तो लगता है वह बिल्कुल सही कह रहे हैं। अमरीका और ईरान के बीच चल रहे दशकों पुराने विवाद के फिर से गरमा जाने से इसे समझा जा सकता है। दरअसल ईराक में अमरीका ने एयर स्ट्राइक के जरिए शीर्ष ईरानी कमांडर कासिम सुलेमानी को मार गिराया। सुलेमानी को ईरान के क्षेत्रीय सुरक्षा हथियारों का रचयिता कहा जाता था। इस घटना के बाद खाड़ी क्षेत्र में तनाव गहरा गया। इसका असर पूरी दुनिया पर पडऩा स्वाभाविक था। हिंदुस्तान भी इस तनाव से अछूता नहीं रह पाया। इसके तात्कालिक असर के रूप में हमले के बाद ही क्रूड के दाम चार फीसदी बढ़ गए। 

चीन के बाद हिंदुस्तान ही है, जो ईरान से सर्वाधिक तेल खरीदता है
हिंदुस्तान के लिए ईरान कई मायनों में महत्वपूर्ण है। चीन के बाद हिंदुस्तान ही है, जो ईरान से सर्वाधिक तेल खरीदता है। हिंदुस्तान अपनी जरूरतों का 38 प्रतिशत तेल सऊदी अरब और ईरान से खरीदता है। अगर यह संकट बढ़ता है तो ईरान अपने इलाके से गुजरने वाले तेल के जहाजों को रोक सकता है। जिसका असर यह होगा कि दुनिया भर में कच्चे तेल की कमी हो जाएगी और दाम आसमान छूने लगेंगे। इतना ही नहीं, पश्चिम एशिया में 80 लाख ङ्क्षहदुस्तानी काम कर रहे हैं। इनमें अधिकतर खाड़ी देशों में हैं। युद्ध जैसी आपात स्थिति आती है तो इन लोगों को इस क्षेत्र से वापस लाना बड़ी चुनौती होगी। हालांकि सैन्य मामलों में और क्षमता के हिसाब से ईरान अमरीका के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता। इसके बावजूद अगर हथियारों से संघर्ष शुरू होता है तो खाड़ी देशों में फिर से अफरा-तफरी मच सकती है। अमरीका पहले ही अपने नागरिकों से ईराक छोडऩे के लिए कह चुका है। इतना ही नहीं, ब्रिटेन ने भी मिडिल ईस्ट में अपने सैन्य अड्डों की सुरक्षा बढ़ा दी है। 

दोनों देशों के विवाद को लेकर अब तो पूरी दुनिया ही दो हिस्सों में बंटती नजर आने लगी है। फिक्र करने वाली बात तो यह है कि अमरीका जितना ईरान के खिलाफ है, उतना ही रूस ईरान के साथ मजबूती से खड़ा हो रहा है। ईरानी सेनापति कासिम सुलेमानी की हत्या को डोनॉल्ड ट्रम्प कितना ही जरूरी और सही ठहराएं, लेकिन यह काम एक अघोषित युद्ध की तरह ही है। हालांकि सुलेमानी की तुलना ओसामा बिन लादेन या बगदादी से नहीं की जा सकती। इसे ट्रम्प का चुनाव जीतने का हथकंडा माना जा रहा है। यह काम उन्हें अमरीकियों की नजर में महानायक बना सकता है। लेकिन चीन, रूस और फ्रांस जैसे सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों ने गहरी चिंता व्यक्त की है। 

हो सकता है पश्चिम एशिया छोटे-मोटे युद्ध की चपेट में आ जाए 
माना जा रहा है कि ईरान इसका बदला लिए बिना नहीं रहेगा। हो सकता है कि पश्चिम एशिया छोटे-मोटे युद्ध की चपेट में आ जाए। इस घटना से हिंदुस्तान की ङ्क्षचता बढऩा स्वाभाविक है, क्योंकि अमरीका और ईरान, दोनों से हिंदुस्तान के संबंध अच्छे हैं। यहां यह जान लेना जरूरी है कि ओबामा के अमरीकी राष्ट्रपति रहते समय दोनों देशों के संबंध थोड़ा सुधरने शुरू हुए थे। ईरान के साथ परमाणु समझौता हुआ, जिसमें ईरान ने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने की बात की। इसके बदले उस पर लगे आॢथक प्रतिबंधों में थोड़ी ढील दी गई थी। लेकिन ट्रम्प ने राष्ट्रपति बनने के बाद यह समझौता रद्द कर दिया। दुश्मनी फिर शुरू हो गई। 

हालांकि मुस्लिम देशों में एकजुटता की बात कही जाती है, लेकिन सच यह है कि विश्वभर के मुस्लिम देश दो धड़ों में बंटे हुए हैं। अमरीकी कार्रवाई के बाद की इस मुश्किल घड़ी में ईरान न केवल पूरी दुनिया में अकेला दिखा, बल्कि इस्लामिक दुनिया के देश भी उसके साथ खड़े नहीं हुए। सऊदी अरब खुद को मुस्लिम देशों का मसीहा मानता रहा है, जबकि उसी सऊदी अरब की मठाधीशी को गाहे-बगाहे मलेशिया चैलेंज देता रहता है। मलेशिया एकमात्र मुस्लिम बहुल देश था जो ईरान के समर्थन में खड़ा हुआ। 

महातिर को मुस्लिम देशों का नया मसीहा बनना है
ईरान पर अमरीकी प्रतिबंध के बावजूद मलेशिया के सऊदी की तुलना में ईरान से अच्छे रिश्ते हैं। दुनिया के सबसे बुजुर्ग प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने जनरल कासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद मुस्लिम देशों से एकजुट होने की अपील की थी। हालांकि मुस्लिम देशों की राजनीति पर गहन अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ भी मानते हैं कि महातिर मोहम्मद मुस्लिम शासकों को एक करने की बात तब कर रहे हैं, जब आपस में ही इस्लामिक दुनिया पहले से कहीं ज्यादा उलझी हुई है। महातिर मोहम्मद इससे पहले इसराईल को भी निशाने पर ले चुके हैं। हिंदुस्तान में एन.आर.सी. और सी.ए.ए. लाए जाने पर भी महातिर मोहम्मद हिंदुस्तान सरकार की आलोचना कर चुके हैं। 

उन्हें मुस्लिम देशों का नया मसीहा बनना है। ऐसे में किसी भी मुस्लिम देश में घट रही घटनाओं के साथ ही विश्वभर के मुस्लिम मसलों पर अपनी राय रखकर अपने नंबर बढ़ाना उनकी मंशा है। उन्हें लगता है कि सऊदी अरब के नेतृत्व वाला ‘ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑप्रेशन’ पूरी तरह से अप्रभावी हो गया है और कोई नया मंच बनना चाहिए। 18वीं सदी से लेकर आधी 20वीं सदी तक मुस्लिम देशों पर यूरोपीय ताकतों का प्रभुत्व रहा। लेकिन अब, जब आजाद हैं तब भी मुसलमानों ने स्वतंत्र देशों के तौर पर बहुत कुछ किया नहीं है। यहां तक कि कुछ इस्लामिक देश तो औपनिवेशिक युग के स्तर की गुलामी की हद तक पहुंच गए हैं। यह चिंता की बात तो है ही, मुस्लिम देशों के लिए चुनौती भी है कि वे कैसे इस समस्या से उबर पाएंगे। महातिर मोहम्मद ने मुस्लिम देशों का नया संगठन बनाने की कोशिश की थी। पाकिस्तान को इसकी अगुवाई करनी थी लेेकिन सऊदी अरब के दबाव में पाकिस्तान पीछे हट गया और इमरान खान ने कुआलालम्पुर सम्मेलन में शिरकत ही नहीं की। इससे पहले कुआलालम्पुर समिट में ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी भी शामिल हुए थे। 

यह जानना भी जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र में मलेशिया और तुर्की ही दो देश थे, जिन्होंने कश्मीर मसले पर पाकिस्तान का समर्थन किया था। इसके बाद से ही हिंदुस्तान और मलेशिया के बीच राजनयिक तनाव है। फिलहाल ईरान अभी भी अकेला है और मलेशिया के साथ से वह कुछ कर नहीं पाएगा। महातिर मोहम्मद की कुआलालम्पुर समिट में कही गई एक बात तो गौर करने लायक है कि जेहाद, दमनकारी प्रशासन और नव-उदारवाद मुस्लिम दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है। लेकिन इससे निपटने का कोई नुस्खा महातिर मोहम्मद बता नहीं पा रहे। 

कहीं ईरान और अमरीका के तनाव के बीच अमरीका इसे ही मुद्दा न बना दे और मुस्लिम देश अपनी बात भी न रख पाएं। महातिर मोहम्मद हों या कोई भी मुस्लिम देश का रहनुमा, उसे यह बात ध्यान में रखनी होगी कि मुस्लिम जगत के अलावा अन्य देशों में मुसलमान बड़ी संख्या में बसते हैं। कहीं ऐसा न हो कि अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में वह गैर-मुस्लिम देशों में रह रहे मुसलमानों के लिए संकट खड़ा कर दें। किसी भी देश के नागरिक की भावनाएं आहत होती हैं तो उस देश की मुख्यधारा पर उसका असर पडऩा स्वाभाविक है। मुस्लिम देशों के शासकों को इस बात का एहसास होना जरूरी है। खासकर हिंदुस्तानी मुसलमानों को यह समझना होगा कि उनकी जड़ें इस देश में गहरे तक जमी हैं, इसलिए उनका इस्लामिक मुल्कों के नाम पर राजनीतिक हथियार होने से बचना बेहद जरूरी है।-सैयद सलमान


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