मुसलमान करें गौ-हत्या पर प्रतिबंध की मांग

punjabkesari.in Monday, Sep 06, 2021 - 04:15 AM (IST)

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पिछले हफ्ते गौ माता को राष्ट्रीय पशु घोषित कर पूरे देश में उसके वध पर प्रतिबंध लगाने को कहा। आम धारणा ऐसी बनाई गई है कि गौ हत्या के लिए सबसे ज्यादा मुसलमान जिम्मेदार हैं, जबकि सच्चाई कुछ और है। भारतीय परम्परा के सुविख्यात इतिहासकार धर्मपाल अपने शोध के आधार पर अपनी किताब ‘गौ वध और अंग्रेज’ में लिखते हैं कि महारानी विक्टोरिया ने तत्कालीन वायसराय लैंस डाऊन को लिखे एक पत्र में कहा था, ‘हालांकि मुसलमानों द्वारा की जा रही गौ हत्या आंदोलन का कारण बनी है लेकिन हकीकत में यह आंदोलन हमारे खिलाफ है क्योंकि मुसलमानों से कहीं ज्यादा हम गौ हत्या कराते हैं।’ इस पत्र से यह बात साफ है कि न केवल ज्यादातर भारतीय हिन्दू, मुसलमान और ईसाई, बल्कि ब्रिटिश अफसरों का एक बड़ा वर्ग भी इस बात को जानता था कि पशु वध बंदी का यह आंदोलन जिस गौ-हत्या के विरोध में है, वह वास्तव में भारत में एक लाख से भी अधिक अंग्रेज सैनिकों एवं अफसरों के भोजन के काम आता है। 

उस समय के दौरान ब्रिटिश खुफिया विभाग के दस्तावेजों का एकाग्र अध्ययन यह बताता है कि मुसलमान गौ हत्या छोडऩे के पक्ष में थे, पर अंग्रेजों के इशारे पर ऐसा कर रहे थे। यह भी कहा जा सकता है कि गौ-हत्या पर मुसलमानों का जोर 1880 से बढ़ा, जो कि ब्रिटिश उकसावे का ही परिणाम था। साथ ही अंग्रेजों का इस पर जोर भी रहा कि ‘मुसलमानों की गौवध प्रथा’ जारी रहनी चाहिए।

इस्लाम का जन्म पश्चिम एशिया में जहां हुआ, वहां रेगिस्तानों में गाय की उपलब्धता लगभग न के बराबर थी। इसलिए मुस्लिम समाज में गौ मांस भक्षण की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है। कुरान शरीफ में 7 आयतें ऐसी हैं, जिनमें दूध और ऊन देने वाले पशुओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाने की सलाह दी गई है। इतना ही नहीं, गौवंश से मानव जाति को मिलने वाली सौगातों के लिए उनका आभार तक जताया गया है। इसलिए पश्चिम एशिया के इस्लामिक देशों में ऊंट की कुर्बानी देने की प्रथा है। पर आश्चर्य की बात है कि भारत गौेमांस का आज भी दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। इस धंधे में हिंदुओं की भारी हिस्सेदारी है। 

दरअसल इतिहास के पन्नों में यह बात अंकित है कि अंग्रेजों ने हिंदू-मुसलमानों के बीच फूट डलवाने के लिए गाय और सुअर के मांस की कटाई को बढ़ावा दिया था। अंग्रेजों से पहले मुगल राज में भारत में गौकशी नहीं होती थी। मुगल बादशाह बाबर ने जहां गाय की कुर्बानी से परहेज करने का हुक्म दिया था, वहीं अकबर ने तो गोकशी करने वालों के लिए सजा-ए-मौत मुकर्रर कर रखी थी। 

1921 में प्रकाशित ख्वाजा हसन निजामी देहलवी की किताब ‘तर्क-ए-कुरबानी-ए-गऊ’ के मुताबिक भोपाल रियासत के पुस्तकालय में मुगल शहंशाह बाबर का ऐसा ही एक फरमान मौजूद है, जिसमें गाय की कुर्बानी से परहेज करने को कहा गया था। इतना ही नहीं, गौ हत्या के खिलाफ मुस्लिम धर्मगुरुओं ने भी समय-समय पर फतवे जारी किए हैं। इनमें फिरंगी महल के मौलाना अब्दुल बारी फिरंगी महली और मौलाना अब्दुल हई फिरंगी महली के फतवे प्रमुख हैं। मौलाना अब्दुल हई फिरंगी महली के एक फतवे में कहा गया था कि गाय की बजाय ऊंट की कुर्बानी करना बेहतर है। मौलाना बारी ने महात्मा गांधी को 20 अप्रैल, 1919 को एक तार भेज कर कहा था हिन्दू और मुसलमानों में एकता हो, इसलिए इस बकरीद में फिरंगी महल (लखनऊ) में गौ-हत्या नहीं हुई। अगर खुदा चाहेगा, तो आइंदा गाय कुर्बान नहीं की जाएगी। 

सन 1700 में जब अंग्रेज भारत में व्यापारी बनकर आए, उस समय भारत में गाय और सुअर का वध नहीं किया जाता था। हिन्दू गाय को पूजनीय मानते थे और मुसलमान सुअर का नाम तक लेना पसंद नहीं करते थे। परंतु अंग्रेज इन दोनों ही पशुआें के मांस के शौकीन थे। लिहाजा भारत पर कब्जा करने हेतु अंग्रेजों ने ऐसी विघटनकारी नीतियों का बीज बोना शुरू किया। उन्होंने मुसलमानों को भड़काया कि कुरान में कहीं भी नहीं लिखा है कि गौ वध नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं, उन्होंने मुसलमानों को गौ मांस का व्यापार करने का लालच भी दिया। ठीक इसी तरह दलित हिन्दुओं को सुअर के मांस की बिक्री करने का लालच देकर अपने मकसद को पूरा किया।

18वीं सदी के आखिर तक अंग्रेजों की बंगाल, मद्रास और बम्बई की प्रैसीडैंसी सेना के रसद विभागों में बड़े पैमाने पर कसाईखाने बने, जहां बड़ी तादाद में गौ हत्या होने लगी। समय के चलते जैसे-जैसे भारत में अंग्रेजी सेना और अफसरों की तादाद बढऩे लगी वैसे-वैसे ही गोकशी में भी बढ़ौतरी हुई। इसी दौरान हिन्दू संगठनों ने पशु वध के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया। 

धर्म के नाम पर सियासत की रोटियां सेंकने वाले नेताओं, चाहे किसी धर्म के हों, का एक ही लक्ष्य होता है, समाज को बांट कर अपना उल्लू सीधा करना। आज जब देश को आॢथक प्रगति और युवाओं को रोजगार की जरूरत है, साम्प्रदायिकता का जहर हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बन चुका है। अत: जरूरी है कि हर धर्म के समझदार लोग इस जहर से अपने समाज को बचाने का काम करें।

अगर मुसलमान तय कर लेते हैं कि गौ हत्या और गौ मांस का व्यापार भी नहीं करेंगे तो देश में एक ऐसा भाईचारा कायम होगा, जिसमें हम सब अपना ध्यान और ऊर्जा अपनी आॢथक प्रगति के लिए लगा सकेंगे। 1980 में मुरादाबाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद महीनों कफ्र्यू रहा, जिससे बर्तनों के कारीगर-निर्यातक तबाह हो गए। तबसे वहां के लोगों ने दंगों से तौबा कर ली। माना कि सनातन धर्म और इस्लाम में कोई समानता नहीं है, फिर भी हम हजारों सालों से साथ रहते आए हैं और आगे भी शांति से रह सकें, इसलिए मुसलमानों को ही गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग करनी चाहिए।-विनीत नारायण  
 


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