‘आधी रात’ को कश्मीर में ‘जंगबंदी’ का दिया गया हुक्म

punjabkesari.in Sunday, Dec 06, 2020 - 05:32 AM (IST)

‘‘हिन्दुस्तान हमले ने अपने कदम जमाने के लिए काफी लंबा समय लिया। हकूमत इस बारे में जानती है। पाकिस्तानी फौज का जनरल हैडक्र्वाटर भी इस बारे में जानता है। ब्रिगेडियर आजम खान (बाद में लैफ्टिनैंट जनरल बने) जो इस सैक्टर में कमांडर थे, वह विस्तारपूर्वक सूचनाएं भेज रहे थे। परन्तु उन्हें न तो फौजें भेजी गईं और न ही किसी कार्रवाई के लिए हिदायतें प्राप्त हुईं।’’

‘‘स्थिति ऐसी नहीं थी कि ऐसा सब कुछ अचानक और बेखबरी में हुआ। केवल एक कारण जिसका बाद में उलेख किया गया, वह यह था हमारे पास अतिरिक्त सेना मौजूद नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद हमने आकााद, कबायली और बाकायदा सेना को मिलाकर 25000 जवानों पर सम्मिलित सेना का इंतजाम किया है। इस फौजी ताकत के पास संभवत: पाकिस्तानी तोपखाने की 50 तोपें शामिल थीं।

इस बात से इन्कार करना मुश्किल होगा कि अगर इस फौज का एक हिस्सा ही लाया जाता तो झटकों से बचा जा सकता था। काफी मंसूबाबंदी और तैयारियों के बाद हम जम्मू से पुंछ वाली लंबी संचार रेखा को काटने की हालत में थे। नौशहरा से परे बड़ी संख्या में हिन्दुस्तानी फौजों की मौजूदगी को ही खतरा पेश था। इसके बाद दिसम्बर के पहले हफ्ते में एक सुबह बमबारी शुरू हुई और 5000 गोले दागे गए।’’

‘‘लेकिन कोई जमीनी हमला नहीं किया गया। अगर यहां पर हमला किया जाता तो भारतीयों को जम्मू में स्थित उनके सैनिक केन्द्र से काटा जा सकता था। इसके लिए हमेशा से एक ही कारण पेश किया जाता रहा है और वह यह था कि इस किस्म का हमला जंग को खत्म नहीं करता। भारतीय सेना को होने वाले भारी नुक्सान के नतीजे में भारत पाकिस्तान के साथ जंग की घोषणा कर देता। यदि यह कारण वास्तविक रूप से था तो कोई व्यक्ति सवाल कर सकता है कि क्या यह संभव है? कि इस संकट की संभावना हमारी अच्छी मंसूबाबंदी और दो हफ्तों वाली तैयारी के दौरान नहीं था? 

बमबारी शुरू होने के बाद अचानक यह बात उनके दिमाग में कैसे आई? इस प्रकार संपर्क खत्म होने का खतरा खत्म हो गया था, लेकिन भारतीय अब भी अन्य खतरों की मार में थे। उन्होंने आने वाले दिनों में नौशहरा से परे 100 मील तक एक खुले बाजू की पेशकश की जो भारी फौजी काफिलों और चौंकियों पर कबायलियों और आजाद के द्वारा घात लगाकर हमला करने और कत्ल-ए-आम करने के लिए एक जबरदस्त मौका था। निश्चित रूप से उनके लिए शरीर में जलन पैदा करने के समान यह था। साथ ही हिन्दुस्तानी फौज के साधनों को खाली करने की संभावना थी परन्तु बदकिस्मती से दिसम्बर 1948 की जंगबंदी के द्वारा इसे बचा लिया गया।’’ 

31 दिसम्बर 1948 की आधी रात को जंगबंदी का हुक्म दिया गया और यह जंग खत्म हो गई। असल में कुछ महीनों से यह बात स्पष्ट हो गई थी कि जंगबंदी तो होने वाली है और समस्या को दूसरे ढंग से सुलझाना होगा। आजाद के लोगों ने इस बात की आशा नहीं की थी कि वह ताकत के द्वारा भारत को कश्मीर से बाहर फैंक सकते हैं, वह बस इतना चाहते थे कि उनके रायशुमारी के अधिकार को स्वीकार किया जाए। यह हक अब माना जा चुका है इसलिए जंगबंदी की जानी असूली तौर पर अच्छी थी। फिर भी हम में से कुछ लोगों की नजर में, जिन रेखाओं पर जंगबंदी की जानी थी, वह असंतोषजनक प्रतीत होती है। क्योंकि मामला अब पूरी तरह से भारत के हक में गया है और भारत जो कुछ भी चाहता था उसे वह सब कुछ प्राप्त हो गया है।-ओम प्रकाश खेमकरणी
 


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