मांस विवाद : राजनीति में धर्म का बोलबाला

punjabkesari.in Wednesday, Apr 13, 2022 - 04:31 AM (IST)

मांसाहारियों को सावधान रहना चाहिए। भगवा ब्रिगेड रामनवमी के अवसर पर मांसाहारी उत्पादों की बिक्री पर प्रतिबंध का आनंद उठा रही है क्योंकि भारत में वे बहुमत में हैं और इसलिए वे हमारे इस अधिकार के बारे में निर्णय कर रहे हैं कि हमें क्या खाना चाहिए। भोजन फासीवादी अपने चरमोत्कर्ष पर हैं, जिसके चलते राजनीति में धर्म का तड़का लगाया जा रहा है और यह इस आशा के साथ किया जा रहा है कि यह पवित्र त्यौहार उनके लिए एक कामधेनु बनेगा। 

हाल में संपन्न हुए 5 राज्यों में से विशेषकर उत्तर प्रदेश में भारी जीत से भगवा संघ उत्साहित है और वे अपनी हिन्दुत्व की पहचान के लिए एक के बाद एक मुद्दे उठा रहे हैं और सांप्रदायिक तापमान बढ़ा रहे हैं। लव जिहाद से लेकर अंतर-धर्म विवाह पर रोक, पशुओं के परिवहन के लिए मुसलमानों की ङ्क्षलङ्क्षचग, स्कूल यूनीफार्म के पक्ष में हिजाब पर प्रतिबंध, हलाल मांस की बिक्री, मंदिरों के मेलों में मुसलमानों को दुकान खोलने से रोकना और अजान के लिए लाऊडस्पीकरों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने से लेकर मांस की बिक्री पर रोक इन मुद्दों में शामिल हैं। 

निश्चित रूप से कोई भी नेता नहीं चाहता कि वह किसी की भोजन की पसंद में हस्तक्षेप करे। किंतु मांस की बिक्री पर प्रतिबंध की मांग बढ़ती जा रही है और इसका उद्देश्य धार्मिक भावनाओं को भड़का कर राजनीतिक लाभ प्राप्त करना है। शायद भाजपा और उसके सहयोगी गुजरात, हिमाचल और कर्नाटक में आगामी चुनावों के लिए ऐसा करने को प्रेरित हुए हैं। 

भाजपा का मानना है कि मोदी के गृह राज्य में उन्हें दिक्कत नहीं होगी और उन्हें विश्वास है कि पार्टी राज्य में वापसी करेगी। कर्नाटक के बारे में उसे आशंका है। राज्य में सत्तारूढ़ होने के बावजूद अब पार्टी में येद्दियुरप्पा जैसा कोई प्रभावशाली व्यक्ति नहीं है और अब राज्य में पार्टी कम प्रभावी मुख्यमंत्री बोम्मई के नेतृत्व में कार्य कर रही है। कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों ने पूरे राज्य में मांस की दुकानों को बंद करने के तर्क पर प्रश्न उठाया है। जो व्रत ले रहे हैं या जो शाकाहारी हैं वे अपनी पसंद का खाना खाने के लिए स्वतंत्र हैं किंतु उनकी भोजन की आदतों को सभी भारतीयों पर क्यों थोपा जा रहा है और इस तरह मांस की बिक्री करने वाले लोगों के व्यवसाय को नुक्सान पहुंचाया जा रहा है। 

मांस की दुकानों पर प्रतिबंध से हिन्दू भावनाओं को तुष्ट करने के अलावा कोई बड़ा लोक हित पूरा नहीं होता और इस तरह हर किसी को उनकी आस्था को मानने के लिए बाध्य किया जाता है। इसके अलावा हिन्दू एक बहुलवादी धर्म है और इसके त्यौहार स्थानीय संस्कृति से प्रभावित होते हैं। नवरात्रि के दौरान उत्तरी भारत में लोग मांस और अन्य मांसाहारी उत्पादों को खाने से परहेज करते हैं। किंतु बंगाल में लोग मछली और मांस खाते हैं और उन्हें मां दुर्गा को चढ़ाते भी हैं। 

हिन्दुत्व ब्रिगेड का कहना है कि मुस्लिम शासित देशों में सूअर के सभी मांस उत्पादों पर प्रतिबंध है और लोग इसका पालन करते हैं। अरब जगत में कोई भी व्यक्ति सूअर का मांस न खाने से भुखमरी का शिकार नहीं हुआ और इसलिए यदि ऐसे देश में, जहां पर 80 प्रतिशत हिन्दू हों, वे धार्मिक त्यौहारों के दौरान कोई शर्त रखते हैं तो उनकी भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए। 

प्रश्न यह भी उठता है कि यदि अजान के दौरान मस्जिद में लाऊडस्पीकर का इस्तेमाल ठीक है और इसे धर्मनिरपेक्षता माना जाता है तो फिर हिन्दू इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग क्यों कर रहे हैं और क्या यह सांप्रदायिकता को दर्शाता है? किंतु कैसे? मांस उत्पादों की बिक्री पर प्रतिबंध का धर्मनिरपेक्ष सांप्रदायिकता से क्या लेना-देना, यदि यह किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाता? उनका यह भी कहना है कि मांस के व्यापारियों को इससे अधिक नुक्सान नहीं होगा कि उनका व्यापार साल में केवल 2 बार 9 दिन के लिए बंद रहता है। 

हाल के समय में मांस का राजनीतिकरण किया गया है और इसके चलते अल्पसंख्यक समुदाय ने बीफ फैस्टिवल सहित मीट फैस्टिवल का आयोजन किया ताकि हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचे। जून 2019 में कोलकाता में एक बीफ फैस्टिवल को इसलिए रद्द कर दिया गया कि इसके आयोजकों ने शिकायत की कि उन्हें धमकी मिल रही है। इससे पूर्व टीम केरला साइबर वारियर्स ने अखिल भारतीय हिन्दू महासभा की वैबसाइट को हैक किया और उस पर परंपरागत केरल बीफ करी की रैसिपी पोस्ट की। ऐसा स्वामी चक्रपाणी की इस टिप्पणी के बाद किया गया कि केरल में आई बाढ़ गोमांस खाने और गायों का अपमान करने का परिणाम थी। 

मई 2017 में महाराष्ट्र युवा कांग्रेस कार्यकत्र्ताओं ने खुलेआम गोवध किया। वर्ष 2015 में जैन पर्व पर्युषण के दौरान, जब इस समुदाय के लोग भोजन और जल ग्रहण भी नहीं करते, मुंबई में उनके मंदिर के बाहर चिकन पकाया गया। संविधान में स्पष्ट तौर से भोजन के मौलिक अधिकार का प्रावधान नहीं किया गया, किंतु अनुच्छेद 21 में इसका वर्णन है। 

वर्ष 1958 में उच्चतम न्यायालय ने गोवध पर प्रतिबंध को वैध ठहराया किंतु लोगों की पोषाहार की आवश्यकताओं पर विचार किया और इसके सीमित वध की अनुमति दी क्योंकि उसका मानना था कि गरीब लोगों में से एक बड़ा वर्ग बीफ और भैंस का मांस खाता है। किंतु बाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने पहले के निर्णय को यह कहते हुए पलट दिया कि चूंकि भारत में बहुत कम संख्या में लोग बीफ खाते हैं इसलिए इस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। किंतु 2017 में उच्चतम न्यायालय ने भोजन के अधिकार को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निजता के मूल अधिकार के अंग के रूप में मान्यता दी।

राजनीतिक दृष्टि से देखें तो विपक्षी नेता मानते हैं कि संघ मांस की बिक्री पर प्रतिबंध को अल्पसंख्यक समुदायों के विरुद्ध बहुसंख्यक समुदाय को एकजुट करने का साधन मानता है। उन्होंने भगवाधारी मंत्रियों, नेताओं और स्वामियों पर सांप्रदायिकता करने का आरोप लगाया है। अपनी महत्वाकांक्षी आवश्यकताओं और चुनावी लाभ के लिए हिन्दू धर्म का राजनीतिकरण किया जा रहा है, जिसके चलते एक आदमी की दवा दूसरे के लिए जहर बन जाती है। 

इसके विपरीत भाजपा विपक्षी नेताओं पर आरोप लगाती है कि वे मुस्लिम वोट बैंक को भारतीय राजनीति की मुख्य धुरी बना रहे हैं और इस सबका सरोकार ‘प्यारे मुसलमान, मुझे वोट दो’ से है। इसलिए नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते भोजन पर राजनीति होने लगी। इसके अलावा लगता है हमारे राजनेताओं में किसी प्रकार की शर्म नहीं है और वे भोजन की आदतों को लेकर विवाद को बढ़ाते रहते हैं। हमारे नेताओं को समझना होगा कि धर्म को मुद्दा बनाने और हिन्दू-मुसलमानों को एक-दूसरे से भिड़ाकर वे केवल अपने निहित स्वार्थ पूरे कर रहे हैं।-पूनम आई. कौशिश


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