‘आशा की किरणों की तलाश में’

punjabkesari.in Friday, Mar 05, 2021 - 01:43 AM (IST)

संवैधानिक नैतिकता को बनाए रखने के लिए बनी एक संस्था का नाइनपिन्स (बाऊलिंग खेल की पिन्स) की तरह धराशायी हो जाना लेकिन संतोष की बात यह है कि उच्च न्यायालयों तथा जिला अदालतों के जज प्रशासन में धीरे-धीरे हो रहे मूल्यों के क्षरण तथा मनुष्यों के दिमाग में आशा के धूमिल होने के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। 

बेंगलूर स्थित 22 वर्षीय पर्यावरण कार्यकत्री दिशा रवि, जिस पर देशद्रोह का आरोप लगा था, जमानत याचिका पर जज धर्मेन्द्र राणा ने फैसला सुनाया। जब इसकी घोषणा की गई तो हर तरफ खुशी का माहौल बन गया। यह खुशी सरकार द्वारा पैदा किए गए इस डर के कारण खामोश हो गई जिसने सामान्य पुरुष तथा महिलाओं को यह सोचने पर मजबूर कर दिया था कि अगला नंबर किसका होगा। यही डर 80 के दशक में पंजाब में आतंकवाद के चरम पर हिंदुओं के मन में जड़ कर चुका था! 

क्यों जज राणा ने दिशा रवि की याचिका पर उसे जमानत दे दी तथा ऐसी ही राहत याचिका के लिए सफूरा जरगर को इंकार कर दिया? इसका सर्वाधिक संभावित उत्तर यह होगा कि दिशा पर केवल आई.पी.सी. के तहत आरोप लगाए गए थे जबकि सफूरा को तानाशाहीपूर्ण यू.ए.पी.ए. (गैर-कानूनी गतिविधियां रोकथाम संशोधन) के अंतर्गत रखा गया था, जो किसी आरोपी को जमानत पर रिहा करना लगभग असंभव बना देता है। 

दिशा तथा सफूरा दोनों ही अपनी उम्र के तीसरे दशक में थीं तथा दोनों ही कार्यकत्रियों पर देशद्रोह और नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच शत्रुता पैदा करने जैसे गंभीर आरोप गलत तरीके से लगाए गए थे। सफूरा संयोग से मुसलमान थी, दिशा से 6 वर्ष बड़ी और गर्भवती थी। वह सी.ए.ए. तथा एन.आर.सी. कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थी जो मुसलमानों से भेदभाव करते थे। 

यदि यह एक तथ्य था कि जज उसकी धार्मिक पहचान के कारण उसके खिलाफ गोपनीय रूप से पूर्वाग्रह रखते थे, जैसे कि कुछ लोग संदेह करते हैं तो यह अत्यंत घिनौना होना चाहिए। मगर स्वाभाविक तौर पर ऐसा नहीं था! बहुत से ऐसे अन्य कारक होंगे जिन्होंने उन्हें अपनी राय बनाने में मदद की होगी। दिशा के मामले में जज ने दिशा को और हिरासत में रखने के लिए दिल्ली पुलिस की याचिका को स्वीकृति देने में हिचकिचाहट के लिए ‘अंतर्रात्मा की आवाज’ का उल्लेख किया। संभवत: फरवरी 2020 में सफूरा द्वारा दी गई याचिका को खारिज करने के दिन से ही उनकी अंतर्रात्मा उन्हें परेशान करती होगी। 

गत वर्षों के दौरान बहुत से नागरिकों ने सरकार की नीतियों के खिलाफ अपनी असहमति की आवाज उठाने वाले कार्यकत्र्ताओं, प्रदर्शनकारियों के साथ निपटने वाली अदालतों में तर्क तथा न्याय के धीरे-धीरे गायब होने को लेकर अपनी आवाज उठाई है। हिंदुत्व के वफादारों के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ पूर्वाग्रह के परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली में पुलिस ने ‘लव जेहाद’ तथा सी.ए.ए./एन.आर.सी. विरोधी प्रदर्शनों जैसे मुद्दे चुने तथा अल्पसंख्यक समुदाय के अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण सदस्यों के खिलाफ देशद्रोह तथा यू.ए.पी.ए. के अंतर्गत मामले दर्ज किए। संभवत: उदारवादी आवाजों के उत्कर्ष ने जजों पर प्रभाव डाला है। 

जो महत्वपूर्ण बात उन्होंने स्पष्ट व ऊंची आवाज में कही, वह यह कि न्याय उनका मार्गदर्शक सिद्धांत है। उन्होंने सतर्कतापूर्वक अपने शब्द चुने। जिन लोगों ने भी उन्हें सुना इन शब्दों ने उनकी अंतर्रात्मा को चोट पहुंचाई और जिन लोगों पर इसका असर नहीं हुआ, मैं उन्हें कहूंगा ‘कहां है आपकी मानवता’ तथा परिणामबोध की भावना? कैसे कोई नागरिक चुपचाप बैठ सकता है जब उनके अपने ही देश के पुरुषों व महिलाओं को महज उन नीतियों का विरोध करने, जिन्हें वे गलत समझते हैं, के लिए दंडित किया जाता है? 

यह जानना संतोषजनक है कि हाईकोर्ट्स में और यहां तक कि सत्र न्यायालयों में जस्टिस राणा जैसे बहुत से जज हैं जो न्याय देने के लिए उठे और सही निर्णय दिया। इससे पहले कि वह फरवरी 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगे भड़काने के लिए जिम्मेदार भाजपा नेताओं को दोषी साबित कर पाते, दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश मुरलीधर को रातों-रात पंजाब तथा हरियाणा हाईकोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया। 

बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ में जस्ट्सि टी.वी. नलवड़े तथा के.के. सोनावणे ने इंडोनेशियाई तथा मलेशियाई धर्म गुरुओं के खिलाफ मामलों को खारिज कर दिया जिन पर दिल्ली में संक्रमित होने के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में मुस्लिम कालोनियों में घुलने-मिलने से कोविड फैलाने का गलत आरोप लगाया गया था। वे दिल्ली में एशिया भर के मुस्लिम धर्म गुरुओं के वार्षिक धार्मिक इकट्ट में शामिल हुए थे। यह धर्म गुरुओं पर बीमारी फैलाने के लिए आरोप लगाने की आधिकारिक क्रिया के खिलाफ जजों का एक बड़ा कदम था। हालांकि यह एक सामान्य ज्ञान है कि कोविड-19 कोई जाति या वर्ग देख कर नहीं फैलता। 

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ की एक खंडपीठ के जस्ट्सि पंकज मिथाल तथा रंजन राय ने एक दलित लड़की, जिसकी 4 राजपूत युवाओं ने दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी थी, के अभिभावकों तथा नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा अंतिम संस्कार किए जाने से रोकने की उत्तर प्रदेश पुलिस की अमानवीय कार्रवाई का ‘स्व:संज्ञान’ लिया। अदालत को पूरी जानकारी थी कि उत्तर प्रदेश सरकार उच्च जाति के युवाओं का पक्ष ले रही थी क्योंकि स्थानीय राजपूत समुदाय आरोपी दोषियों के पक्ष में मजबूती से आ खड़ा हुआ था। फिर भी जजों ने अपनी अंतर्रात्मा के अनुसार कार्रवाई की। 

इसलिए ऐसे जज हैं जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए अपनी तरफ से सब कुछ करने पर दृढ़ हैं। ये हालिया निर्णय, विशेषकर दिशा रवि मामले में और इसके शीघ्र बाद नौदीप कौर मामले में हरियाणा जिला अदालत द्वारा मेरे जैसे सामान्य नागरिकों में आशाएं जगाई हैं कि न्याय तथा कानून का शासन बना रहेगा। ठीक उस समय जब हम आशा गंवा रहे थे (सच, एक खौफनाक चीज  होने वाली थी) हमारा मनोबल फिर से बढ़ गया।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी) 
 


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