मध्यमवर्ग को मुक्ति दें, ‘आयकर’ समाप्त करें

punjabkesari.in Tuesday, Oct 15, 2019 - 12:47 AM (IST)

गम्भीर आर्थिक संकट में घिरी सरकारों का अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए व्यावयासिक घरानों की ओर लौटना तथा विकास और समृद्धि के चक्कर को प्रोत्साहित करना कोई नई बात नहीं है। 

शताब्दियों पूर्व जब लगभग सभी फ्रांसीसी सम्राटों ने विनाशकारी युद्ध लड़े और अर्थव्यवस्था को दिवालिया बना दिया, वे रुके और एक ऐसे कार्यक्रम का आयोजन किया जो हमारे आधुनिक समय की निवेश शिखर बैठक से अधिक भिन्न नहीं था, जिसका उद्देश्य ‘विश्वास पैदा करना तथा व्यावसायिक भावनाओं को वृद्धि’ देना था। किसी भी व्यवसायी द्वारा दी गई सर्वाधिक गम्भीर सलाह, मगर इतिहास में किसी भी सरकार द्वारा उससे सीख न लेना, 1681 में एक बैठक थी जिसकी अध्यक्षता ताकतवर वित्त मंत्री जीन-बैप्टिस्ट ने की, जिसमें व्यवसायी ली जेंडर ने कहा था कि ‘हमें अकेला छोड़ दें या इसे हम पर छोड़ दें।’ 

यह समय भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को ठीक वही बताने का है। यदि भाजपा सरकार गम्भीरतापूर्वक अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित, वृद्धि की शुरूआत, निवेश बढ़ाना, विश्वास में वृद्धि करना, उपभोक्ता मांग बढ़ाना तथा नौकरियां उत्पन्न करना चाहती है तो इसे निजी आयकर समाप्त करना होगा। भारतीय करदाताओं, अधिकतर नौकरीपेशा से निजी आयकर के तौर पर एकत्र किए गए पांच लाख करोड़ रुपए अर्थव्यवस्था की बजाय लोगों के हाथों में होने से अधिक भला करेंगे। 

मिल सकता है अच्छा समाचार
हां, भाजपा सरकार सम्भवत: दीवाली से पूर्व कोई बहुत अच्छा समाचार सुनाने का मूड बना रही है लेकिन आयकर की स्लैब्स में बदलाव, प्रतिशत में कमी आदि जैसे वास्तविक प्रस्ताव शायद ही काम आएं। यदि सरकार मूड में असामान्य बदलाव चाहती है तो इसे असामान्य रियायतों की घोषणा करनी होगी, राजनीतिक दुष्परिणामों अथवा विपक्ष द्वारा गरीब विरोधी तथा अमीर समर्थक बताकर आलोचना करने या नौकरशाहों व अधिकारियों की खेलों में फंसने, जो कभी भी करदाताओं को परेशान करने की अपनी ताकत को नहीं खोना चाहेंगे की परवाह किए बिना। 

सरकार द्वारा आयकर के मोर्चे पर नीरस तथा फीकी रियायतों की घोषणा करने के परिणाम भी उतने ही नीरस तथा फीके होंगे। सीतारमण को रचनात्मक राजनीतिक निर्णय लेने, जैसे कि मध्यमवर्ग हितैषी होने और इसके साथ ही साहसपूर्ण छलांग लगाने की जरूरत है। नागरिकों के हाथ में पैसा, विशेषकर मध्यमवर्ग के, महज ‘उपभोक्ता मांग में वृद्धि’ की बजाय कहीं अधिक हासिल करेगा। इसका अर्थ एक ऐतिहासिक पल को झपट लेना तथा धन बनाने के लिए, सरकार नहीं, लोगों द्वारा, सरकार के दृष्टिकोण में कायापलट करना है। 

मध्यमवर्ग के हाथों में धन का अर्थ
मध्यमवर्ग के हाथों में धन का अर्थ होगा अधिक खर्च, अधिक मांग, अधिक तथा तेजी से निवेश और थोड़े समय में नौकरियां उत्पन्न करना। दीर्घकाल में इससे समृद्धि के उच्च स्तरों वाले अधिक परिवार बनेंगे-उच्च जोखिम की चाहत वाले लोगों का एक बड़ा आधार जिनमें से कई भविष्य के स्टार्टअप्स के लिए सक्षम निवेशक बनेंगे। 50 खरब डालर की अर्थव्यवस्था का अर्थ एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र बनाना है जहां कई खरबपति तथा बहुत से करोड़पति काम करते हों और देश व अर्थव्यवस्था में निवेश करें। वित्तीय घाटे का प्रबंधन करने के लिए कोष जुटाने के वैकल्पिक तरीकों पर समझदार टैक्नोक्रेट्स को काम करने दें। सुधारों की एक पूरी नई पीढ़ी, निजीकरण को आगे बढ़ाने तथा उद्योगों आदि में से सरकार को व्यापक रूप से बाहर होने देने में कम राजस्वों के अतिरिक्त दबाव को मदद करने दें।

बहुत लम्बे समय से भारतीय राजनीति इस अवधारणा के साथ गरीबों के लिए अपना प्रेम जताती आ रही है कि वे हमेशा गरीब ही रहेंगे। यह समय है कि हम मध्यमवर्गीय भारतीय को एक दूध देने वाली गाय के तौर पर देखना बंद करें जो प्रति वर्ष स्रोत पर 30 प्रतिशत कर चुकाता है, इसकी बजाय उसका इस्तेमाल एक ताकत के तौर पर करें, अर्थव्यवस्था को गति देने तथा कई गुना बढ़ाने वाली ताकत। उन्हें रेस का घोड़ा बनने दें। वे चौकड़ी भरेंगे और भारत जीत जाएगा।


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